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लोकसभा चुनावों से पहले महिला आरक्षण बिल लाने की हिम्मत जुटा पायेगी सरकार?

पिछले 27 बरस से लटका पड़ा महिला आरक्षण का मुद्दा एक बार फिर से गरमा उठा है. संसद और राज्यों की विधानसभा में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने संबधी बिल पास करने की मांग को लेकर भारत राष्ट्र समिति (BRS) की नेता के. कविता ने दिल्ली में एक दिन की भूख हड़ताल करके राजनीति का पारा चढ़ा दिया है. वह तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव की बेटी हैं और खुद भी सुलझी हुई राजनीतिज्ञ हैं, लिहाजा उन्होंने तेलंगाना से दिल्ली आकर सियासी मज़मा इकट्ठा करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी. उनके इस धरने में 12 पार्टियों के नेताओं ने शिरकत की लेकिन बड़ी बात ये है कि शुरुआत से ही इस बिल का विरोध कर रही आरजेडी, सपा और जेडीयू के नेताओं ने इसमें शामिल होकर सबको चौंका दिया है.

उनके इस रुख से साफ है कि अब वे इस विधेयक के समर्थन में आ गई हैं.एक तरह से समूचे विपक्ष ने गेंद अब मोदी सरकार के पाले में फेंक दी है,इसलिये सवाल है कि अगले लोकसभा चुनाव से पहले सरकार क्या इस बिल को संसद के दोनों सदनों से पास कराने की हिम्मत जुटा पायेगी? सियासी भाषा में कहें,तो 2024 के चुनावों से ऐन  पहले विपक्ष ने इस मसले को सरकार के गले की हड्डी बनाने की रणनीति को अंजाम देने की कोशिश की है. वैसे तो महिला आरक्षण ऐसा नाजुक मसला है, जिस पर कभी आम सहमति नहीं बन पाई और एक बार ये बिल राज्यसभा से पास होने के बावजूद लोकसभा से पारित नहीं हो पाया. हालांकि महिला आरक्षण बिल को सबसे पहले 1996 में तत्कालीन एच डी देवगौड़ा सरकार ने संसद में पेश किया था लेकिन कई कारणों से इसका इतना तीखा विरोध हुआ कि कोई बात नहीं बनी. मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली यूपीए सरकार ने इस पर गम्भीर कोशिश की और साल 2010 में इसे राज्यसभा से पास भी करा लिया गया लेकिन लोकसभा में तीखे विरोध के चलते इस पर वोटिंग नहीं हुई और तबसे यह लेप्स है.

वैसे विधायिका में महिलाओं को आरक्षण देने की मांग कोई नई नहीं है. इसे अमली जामा पहनाने के मकसद से ही साल 1992 और 1993 में 72 वां और 73 वां संविधान संशोधन करके ये व्यवस्था की गई कि संसद और विधानसभाओं में एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी और ग्राम पंचायत व शहरी निकायों में भी चेयरपर्सन के पद पर महिला का ही अधिकार होगा. हैरानी की बात है कि हर पार्टी महिला अधिकारों और उनको ज्यादा प्रतिनिधित्व दिये जाने का ढिंढोरा तो खूब पिटती हैं लेकिन वे इस बिल पर आज तक राजनीतिक सहमति नहीं बना पाई है.के कविता कहती हैं कि अगर भारत दुनिया के अन्य विकसित देशों की बराबरी करना चाहता है,तो उसे भी महिलाओं को राजनीति में ज्यादा प्रतिनिधित्व देना ही होगा. समूचा विपक्ष इसके समर्थन में एकजुट हो गया है और मोदी सरकार के पास मौका है कि अब वह इस बिल को पास कराकर इतिहास रच सकती है.

दुनिया के अन्य देशों की संसद में महिलाओं की भागेदारी की अगर भारत से तुलना करें तो हमारी लोकसभा में फिलहाल महज 14 फ़ीसदी यानी कुल 78 महिला सांसद हैं. जबकि राज्यसभा में ये आंकड़ा और भी कम है और वहां करीब 11 प्रतिशत ही महिला सदस्य हैं. हालांकि पहली लोकसभा के मुकाबले इसमें काफी इजाफा हुआ क्योंकि तब सिर्फ 5 फीसदी ही महिला सदस्य थीं लेकिन फिर भी अन्य देशों के मुकाबले भारत अब भी काफी पीछे है. मसलन,रवांडा में 61 फीसदी, साउथ अफ्रीका में 43 प्रतिशत जबकि बांग्लादेश में 21 फीसदी महिलाओं की संसद में भागेदारी है. Inter-Parliamentary Union की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक संसद में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को लेकर 193 देशों में भारत 144 वें नंबर पर है. American Economic Association की एक स्टडी के मुताबिक जिन देशों की संसद में महिलाओं की भागेदारी ज्यादा होती है,वहां लैंगिक संवेदनशील कानून बनाने और उस पर अमल करने में आसानी होती है.

वैसे कुछ विपक्षी दल शुरुआत से ही महिला आरक्षण बिल के मुखर विरोधी रहे हैं.1996 में जब ये बिल लोकसभा से पास नहीं हो पाया था,तब इसे गीता मुखर्जी की अध्यक्षता वाली संयुक्त संसदीय समिति JPC को भेज दिया गया था,जिसने उसी साल दिसंबर में अपनी रिपोर्ट दी थी.लेकिन उसके तत्काल बाद लोकसभा भंग हो गई और बिल लैप्स हो गया.उसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार ने 1998 और 1999 में इसे लोकसभा में पेश किया लेकिन कोई सहमति नहीं बनी.साल 2003 में सरकार ने फिर दो बार राजनीतिक सहमति बनाने की कोशिश की लेकिन वो भी बेकार ही साबित हुई. 

साल 2004 में आई यूपीए सरकार ने इसे अपने Common Minimum Programme में रखा था.  लिहाज़ा राज्यसभा में पेश कर बिल को लैप्स होने से बचा लिया.साल 2008 में इसमें मुखर्जी की कमेटी की 7 में से 5 सिफारिशों को शामिल भी कर लिया गया.उसके बाद 9 मार्च 2010 को राज्यसभा ने पूर्ण बहुमत से ये बिल पास करके एक नया इतिहास रचा.तब बिल के पक्ष में 186 जबकि विरोध में सिर्फ एक वोट पड़ा था.वहां से इसे लोकसभा भेजा गया,जहां अगले चार साल तक ये वेंटिलेटर पर पड़ा रहा और आखिरकार 2014 में लोकसभा भंग होते ही इसने भी दम तोड़ दिया. अब देखना ये है कि मोदी सरकार इसे दोबारा जिंदा करती भी है या नही?

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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