किताब का नाम है 'लोई' और उसका टाइटल है 'चले कबीरा साथ'. चूंकि लोई कबीर की पत्नी थीं. चले कबीरा साथ कबीर की एक दोहा की एक पंक्ति है कि 'कबीरा खडे़ बाजार में लिए लुकाटी हाथ , जो घर फूंके आपना, चले हमारे साथ' तो चले हमारे साथ से ये टैग उठाया गया है. कबीर की पत्नी लोई से उनके साथ तो और कोई चला नहीं उनके जीवन में. इसलिए वो टाइटल लोई के साथ चस्पा हुआ. चले कबीरा साथ....तो ये लोई की कहानी और लोई की आंख से कबीर को देखने की कोशिश और मूलतः देहरी के भीतर का कबीर कैसा था.
कबीर की जो पारिवारिक भूमिका थी, उनके जीवन में जो रस था. कबीर के जीवन में जो परिवार का रस था क्या तंत्र था जो उन्हें बांध कर रखता था. एक आदमी जो आदमी इतना औघड़ है, इतना उन्मुक्त है अपने विचारों से, अपनी जीवन शैली से, लेकिन पूरे जीवन उस परिवार के साथ जिया, जिस स्त्री के साथ रहा और वो स्त्री कौन थी? उस स्त्री की भी ताकत को हमको पहचानना पड़ेगा और उसकी महता को भी हमें स्वीकार करना पड़ेगा. चूंकि 650 साल पहले की एक अनूठी प्रेम कहानी है लोई चले कबीरा साथ.
लोई कबीर का जीवन बचाती है...
लोई के बारे में अब तक सिर्फ एक उपन्यास है जो 60 के दशक में छपकर आया था और लिखा रांगे राघव ने लोई का ताना..उसमें भी कुल 32-33 पेज लोई के बारे में है और उन्होंने बकायादा उपन्यास के ऊपर लिखा है कि ये कबीर के जीवन पर आधारित है. लेकिन ये पहली किताब है जो लोई को केंद्र में रखकर ये बात कही जाती है.
लोई को इसलिए भी जानना जरूरी है आज के समय में कि अब से साढ़े 600 साल पहले एक स्त्री हुई थी. वो स्त्री उस समय कबीर का जीवन बचाती है, जब कबीर से मिलती है. वो स्त्री कबीर के लिए समाज से टकराती है और वो कबीर से भी टकराती है, जहां-जहां उसको लगता है कि यहां कबीर गलत हैं...तो एक ऐसी आदर्श स्थिति और एक ऐसी आदर्श स्त्री हमारे सामने आती है.
लोई का जो आरंभ है वो पंडे कबीर को डुबोने ले जा रहे हैं और वो उनको बचाने आती है वहां से होता है. उसका जो निधन है सिकंदर लोधी के दरबार में होता है. सिकंदर लोधी अपने दरबार में कबीर को मिलने के लिए बुलाता है और वहां दोनों में संवाद होता है. संवाद के बाद लोधी नाराज हो जाता है और वो हाथी छोड़ देता है और उसके बाद लोई की वहां मृत्यु हो जाती है. यानि वो कबीर जैसे चले कबीरा साथ जो मैंने कहा उस पूरे जीवन में वह कबीर के पीछे नहीं बल्कि पग-पग पर उनके बराबर चलती रही.
मैं तुमसे नहीं, साहूकार के बेटे से प्रेम करती हूं...
प्रभाष जी की पुण्यतिथि थी सन 2010 में. उस वक्त मेरे मन ये विचार आया. मैं खुश था और जो नाटक चल रहा था एक कबीर का एक सोलो शेखर सिंह उस नाटक में किरदार निभा रहे थे तो उसमें लोई कहती है कि मैं तुमसे प्रेम नहीं करती, मैं साहूकार के बेटे से प्रेम करती हूं.. कबीर कहते हैं चलो तुझे उससे मिला लाते हैं. मेरे दिमाग में आया कि साढ़े 600 साल पहले एक स्त्री और एक पुरुष के बीच ये संवाद संभव था..तो वो स्त्री कौन थी जो पति से इस तरह के संवाद कर रही हो और हमारे यहां जितनी कहानियां स्त्रियों की है हम जानते हैं.
उन स्त्रियों की कहानियों में या तो वो साध्वी हैं, सत्ती हैं, ऋषि कन्या हैं, राजाओं की रानियां हैं, बादशाहों की बेगमें हैं तो इन सब की अपनी अलग-अलग महता रही है क्योंकि वो एक बड़े पहचान के साथ जुड़ी रही हैं. लेकिन ये एक साधारण स्त्री की असाधारण कहानी है...तो एक साधारण स्त्री को पहचानने का जो मुझे मौका मिला और इसी क्रम में जो मैंने ढूंढा तलाशा और इसके बारे में मैंने एक शोध किया और उसके बाद इसको लिखा. इसको लिखने की शुरुआत के बाद इसी बात से शुरुआत की क्योंकि लोई जो एक सूत्रधार स्त्री है जैसा की आपने पूछा उसी तरह से उसका पुरुष पात्र पूछता है कि लोई कौन लोई? स्त्री कहती है लोई जो न किसी राजा की रानी थी, न किसी बादशाह की बेगम, न किसी राज्य की राजकुमारी, न किसी सल्तनत की शहजादी, न कोई परी, न कोई अप्सरा, न कोई नर्तकी न कोई गायिका, न सत्ती, न साध्वी, न तपस्वीनी, न देवी, न विदुषी जितनी तरह की स्त्रियां तुम्हारे ख्याल में आ रही होंगी उनमें से कोई नहीं.
वो पुरुष कहता है कि क्या थी लोई...तब स्त्री कहती है कि लोई जिसने काशी के मल्लाह के घर जन्म लिया और पैदा होते ही उसकी मां चल बसी, पिता ने अकेले पाला और संभाला. विवाह हुआ तो एक ऐसे शख्स से जो न हिन्दू था न मुसलमान, न गृहस्थ न सन्यासी...
यह एक-दूसरे की पूरक होने की सबसे सुंदर प्रेम कथा
ये ऐसे अलग है कि जरा सोचिए कि उस समय में और उस वक्त के समाज में एक जो हम आज कबीर को पढ़ते हैं, बुनते हैं और तमाम सारे विचारकों ने जैसे कबीर को लिखा और उसके बाद हमें समझाया तब आज कबीर हमें इतने बड़े लगते हैं. उस वक्त के कबीर सबसे टकराते हुए, समाज की उपेक्षा झेलते हुए तो जब कबीर को इतनी उपेक्षा झेलनी पड़ रही थी तो वह स्त्री को कितनी उपेक्षा झेलनी पड़ रही होगी उनके घर पर...तो उसने कबीर को सहेजने में उसकी पूरी मदद की और लोग यहां तक भी कहते हैं कि कबीर का का जो लिखित साहित्य है उसमें एक बड़ा हिस्सा लोई का योगदान है चूंकि लोई ने पढ़ना-लिखना सीख लिया था. कबीर ने तो मथी कागज छूयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ तो कबीर तो पढ़े-लिखे थे नहीं.
लोई न कबीर को सिर्फ भौतिक तौर पर नहीं सहेजा बल्कि उनकी विचारों को भी सहेजा. तो सबसे बड़ी सीख यही मिलती है कि जो दांपत्य जीवन है, जो परस्परता, प्रेम है वो किस कोटि का हो सकता है. हम अपने यहां जो प्रेम की कहानियां पढ़ते हैं तो ये प्रेम कथा एक-दूसरे की पूरक होने की सबसे सुंदर प्रेम कथा मुझे लगी. इसलिए कबीर कहते थे कि लोई मेरी ताकत है और लोई मेरी पहचान है.
मनुष्य के तौर पर जो कबीर आएगा वो ज्यादा अपना लगेगा
इसमें हम कबीर को भी पुनः परिभाषित करते हैं. हम लोगों ने कबीर के जीवन में एक चमत्कार को जोड़ दिया. अब सोचिए आप कह रहे थे कि कबीर ने रूढ़ियों को तोड़ा, जो ढकोसले व पाखंड थी उसकी खिलाफत की लेकिन हम देखते हैं कि कबीर के जीवन में तरह तरह के चमत्कार डाल दिए गये हैं, उन्हें देवता बनाने के लिए. यहां तक की उनकी जो तस्वीरें दिखाई पड़ती हैं तो कबीर के पीछे रोशनी चमक रही होती है और वो हाथ फैलाए आशीर्वाद दे रहे होते हैं...तो कबीर एक मनुष्य के तौर पर पहले परिभाषित हों क्योंकि मनुष्य के तौर पर जो कबीर आएगा वो ज्यादा अपना लगेगा. और कबीर इन पाखंडों से परे जो एक तार्किक समाज को बनाने वाला एक संत था तो मेरी पुस्तक उसी कबीर को तलाशती है और लोई उसमें मदद करती है क्योंकि मैंने इस पुस्तक में लोई की आंखों से कबीर को देखा है.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. ये आर्टिकल प्रताप सोमवंशी से बातचीत पर आधारित है.)