अभी आम आदमी पार्टी का गठन हुआ ही था. चुनाव दूर था. लेकिन, आम आदमी पार्टी के पास दिल्ली नगर निगम में एक पार्षद थे. बिना चुनाव में शिरकत किए हुए. उन पार्षद का नाम था, विनोद कुमार बिन्नी. बाद में वे दिल्ली के लक्ष्मी नगर से आप विधायक बने. मंत्री नहीं बनाए गए तो पार्टी छोड़ दी. 10 साल से बिन्नी कहां हैं, क्या कर रहे हैं, दिल्ली वालों को भी नहीं पता. लेकिन, आम आदमी पार्टी दिल्ली में तीसरी बार सरकार चला रही है. यह उदाहरण अकेला नहीं है. इस पर आगे अभी बात करेंगे. फिलहाल, यह उदाहरण इसलिए कि राजनीति में शोक सन्देश लिखने का रिवाज नहीं है. हां, पार्टी कार्यकर्ताओं को यह विशेषाधिकार जरूर प्राप्त है. वैसे मैं, विनोद कुमार बिन्नी के राजनीतिक अवसान के लिए भी शोक सन्देश लिखे जाने के खिलाफ हूं.
पहली सफलता: गहलोत!
कई कहानियां हैं कैलाश गहलोत के पार्टी और मंत्री पद छोड़ कर जाने के पीछे. मसलन, आतिशी की जगह एलजी ने उन्हें झंडा फहराने का मौक़ा दिया. या कि उन पर आईटी या ईडी के छापे पड़ रहे थे. वे दबाव में थे. लेकिन, याद रखिये, कैलाश गहलोत अकेले ऐसे मंत्री थे, जिनके विभाग के क़ानून, निर्णय एलजी साहब के यहां से बिना फसाद के पास हो जाते थे. लेकिन, पार्टी छोड़ने के फैसले के पीछे ये सारे परिस्थितिजन्य कारण थे. असल कारण कुछ और ही है. दरअसल, दिल्ली वाहिद ऐसा स्टेट है, जो रायसीना हिल्स की नाक के नीचे से सीधे नरेन्द्र मोदी और उनके कथित चाणक्य अमित शाह के लिए 2014 से ही चुनौती बना हुआ है. सारा देश जब मोदीमय हुआ जा रहा था, तब भी दिल्ली केजरीवालमय बनी रही और अब तक बना हुई है. यह स्थिति मोदी जी की रणनीतिक शक्ति के खिलाफ क्रांति और विरोध की बड़ी मुनादी है. इसे रोकना, इसे थामना, इसे हटाना, मोदी जी के लिए, भाजपा के लिए एक सपना भी है, एक रणनीतिक मजबूरी भी. अन्यथा, मलामल के साम्राज्य में दिल्ली टाट का पैबंद बन कर हमेशा भाजपा की आंखों में खटकता रहेगा. तो सवाल है कि इस सपने को पूरा कैसे किया जाए.
गहलोत के बाद कौन?
क्या गहलोत नजफ़गढ़ से आगे जाकर पूरी दिल्ली के जाट मतदाताओं को प्रभावित कर लेंगे? लवली भाजपा में गए थे. तब भी आप को 70 में से 63 सीटें आ गयी थी, जबकि एक वक्त था, जब अरविंदर सिंह लवली, शीला दीक्षित के बाद सबसे कद्दावर कांग्रेसी नेता माने जाते थे. अलका लांबा कांग्रेस से आप, आप से कांग्रेस, कमांडो सुरेन्द्र सिंह का जाना, छतरपुर के आप विधायक करतार सिंह तंवर का भाजपा में जाना, राजकुमार आनन्द, राजेन्द्र पाल गौतम, ये सब पार्टी छोड़ कर जा चुके हैं. तो क्या माना जाए कि आम आदमी पार्टी से और भी लोग बाहर जा सकते हैं और वाशिंग मशीन में अपनी ‘धुलाई’ करवा कर अपनी ‘विनिविलिटी’ 2025 के लिए सुनिश्चित करवाएंगे. हो सकता है, ऐसा हो. लेकिन, यह प्रक्रिया दोतरफा भी हो सकती है. आने वाले दिनों में आप कुछ बड़े नाम देखेंगे, जो आप में शामिल हो सकते हैं. दूसरी अहम् बात यह कि इन पंक्तियों के लेखक को जो अनदरूनी जानकारी मिली है, उसके अनुसार अरविन्द केजरीवाल कुछ ‘आंदोलनकारी’ विधायकों के टिकट अवश्य ही काटेंगे. ऐसे ‘आन्दोलनकारी’ आन्दोलन-आन्दोलन की दुहाई देते हुए कांग्रेस और भाजपा की ओर भागेंगे. तो, इसलिए निश्चिन्त हो कर तमाशा देखते जाइए.
अकेले गहलोत ही नहीं है, अभी कुछ और जाएंगे वाशिंग मशीन की सुपर ब्राईट ‘धुलाई’ के लिए. वैसे भी जब दिल्ली महिला आयोग की पूर्व चेयरपर्सन स्वाति मालीवाल बागी हो चुकी हैं और आज आयोग तकरीबन खाली-खाली हो चुका है, तो आप समझ सकते है कि उपरोक्त वाशिंग मशीन सिर्फ सफेदी की चमकार ही नहीं देता, बल्कि जेल वाला चाबुक भी चलाता है और जेल ऐसी जगह है, जहां जाने और रहने की क्षमता अधिकांश लोगों में नहीं होती.
2025 का नतीजा!
व्यक्ति बड़ा या संगठन? भाजपा से गए नेताओं से इसका जवाब पूछिए. उमा भारती, गोविन्दाचार्य, कल्याण सिंह, बाबू लाल गौड़. अलबत्ता, कई बार कुछ समय के लिए व्यक्ति जरूर संगठन पर हावी हो जाता है. जैसे, अभी मोदी जी हो या पूर्व में शरद पवार, लालू यादव, मुलायम सिंह यादव आदि. आम आदमी पार्टी के संदर्भ में अभी तक व्यक्ति या संगठन, जो कहे, एक ही चेहरा, एक ही नाम है, जो लगातार अपनी पार्टी को दिल्ली में जितवाता आ रहा है. अरविन्द केजरीवाल. 10 साल के अल्पावधि में केजरीवाल ने अपनी पार्टी को दिल्ली जैसे आधे-अधूरे राज्य से निकाल कर राष्ट्रीय पार्टी बना दिया. तो, सहज अनुमान लगा सकते हैं कि मतदाता किसी गहलोत, किसी बिन्नी, किसी स्वाति, किसी आतिशी की जगह, सिर्फ और सिर्फ अरविन्द केजरीवाल पर भरोसा कर रहा है. दिल्ली की आम आबादी से पूछिए, जिसका बिजली बिल, पानी बिल, स्कूल फीस, अस्पताल फीस, कम हुआ है. उन घरेलू काम करने वाली महिलाओं से पूछिए, जिनका बस सफ़र मुफ्त है. क्या वे कैलाश गहलोत की बातों पर भरोसा करेंगी कि केजरीवाल ने काम की जगह सिर्फ टकराव किया? स्वर्गीय रामविलास पासवान, राजद से लेकर कभी गुजरात के गृह मंत्री तक के लिए पत्रकारों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने मर्सिया पढ़े थे. तो इंतज़ार कीजिये, दिल्ली के विधानसभा चुनाव परिणाम का. परिणाम चाहे जो हो, राजनीति में किसी के लिए भी मर्सिया पढ़ने से बचिए. अलबत्ता, राजनीतिक कार्यकर्ताओं को इसकी छूट है.
केजरीवाल वैसे भी जमीन से उठे हुए, जमीन पर संघर्ष कर केंद्र में आए हुए नेता हैं. उनको पता है कि उनकी पार्टी के दामन पर लगे दाग उनको प्रभावित करेंगे, इसलिए ही जेल से लौटने के बावजूद उन्होंने गद्दी छोड़ दी है. गद्दी उन्होंने तब भी नहीं छोड़ी थी, जब वो जेल में थे. अपना उत्तराधिकार भी उन्होंने पत्नी सुनीता को सौंपने की जगह आतिशी को दिया, इन सब का मतलब यही है कि वह भी अपनी नाजुक हालत से बहुत ढंग से वाकिफ हैं. उनके तरकश में अभी कई तीर बाकी हैं और उनके खीसे में कई पत्ते भी छुपे हुए हैं. अगले साल दिल्ली का चुनाव होना है और तब तक यमुना में बहुत पानी बह चुका होगा. फिलहाल, तो बस देखने और इंतजार करने का वक्त है.
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