Kargil Vijay Diwas: ठीक 23 साल पहले आज ही के दिन 26 जुलाई 1999 को हमारी सेना ने पाकिस्तान के मंसूबों को नाकाम करते हुए देश की सबसे ऊंची चोटी पर तिरंगा फहराते हुए ये ऐलान किया था कि कारगिल हमारा है, इस पर कब्ज़ा करना तो दूर, इधर देखने की हिम्मत भी न करना. तकरीबन 60 दिन लंबी चली इस लड़ाई में भारत की एक इंच जमीन बचाने के लिए भी हमारे कई बहादुर सैनिकों ने अपना बलिदान दिया. दुनिया में कहीं भी ऐसे बलिदान को किसी तराजू पर नहीं तौला जा सकता लेकिन फिर भी हमारी सेनाओं में ये रवायत बनी हुई है कि युद्ध के मैदान में किसी एक के बलिदान को सर्वोच्च तो माना ही जायेगा, ताकि उसकी शहादत के जरिये आने वाली पीढ़ी के लिए सेना के शौर्य को हमेशा जिंदा रखा जाये.
आज पूरे देश में "कारगिल विजय दिवस" मनाया जा रहा है, जिसके जरिये उन शहीदों की कुर्बानी को पिछले 22 साल से याद किया जाता रहा है, लेकिन कड़वी हकीकत ये है कि आज भी इस देश के अधिकांश लोग अपने बच्चों को सेना की जोखिम भरी जिंदगी जीने की तरफ भेजने की बजाय एक सुरक्षित व आरामदायक प्रोफेशन में भेजने को अपनी प्राथमिकता समझते हैं. बेशक सरकार द्वारा लाई गई "अग्निवीर स्कीम" के तहत बहुत सारे युवाओं ने सेना में भर्ती के लिए आवेदन किया है, तो इसकी बड़ी वजह को भी समझना होगा.
चूंकि देश में सरकारी नौकरियों का अकाल पड़ा हुआ है, इसलिये युवा होने वाली इस नई पीढ़ी को लगता है कि किसी प्राइवेट सेक्टर में 12 घंटे तक खुद को खपाने और अपना शोषण करवाने से बेहतर है कि सरकार के तीन-चार साल वाली इस ठेके वाली नौकरी में ही कहीं चांस मिल जाये, लेकिन गौर करने और सोचने वाली बात ये भी है कि ऐसी योजनाओं के जरिये हमारी सरकार युवाओं में देश के लिए बलिदान देने का वो जज़्बा आखिर कैसे पैदा कर पायेगी, जो कारगिल की लड़ाई के दौरान सिर्फ भारत ने ही नहीं बल्कि दुश्मन देश पाकिस्तान की सेना और वहां के अवाम को भी देखने-सुनने को मिला था.
मई 1999 में पाकिस्तानी सेना की वर्दी पहनकर कारगिल-द्रास सेक्टर में घुसपैठ करने वाले आतंकियों के बारे में अगर तब वहां के स्थानीय चरवाहों ने आगाह नहीं किया होता, तो यकीनन इन दोनों चोटियों पर पाक सेना अपना कब्जा करने में कामयाब भी हो जाती.
दरअसल, ढाई दशक पहले तक ये सिलसिला बना हुआ था कि तेज सर्दी पड़ते ही ऊंची चोटियों पर तैनात दोनों देश के सैनिक अपनी पोस्ट छोड़कर निचले इलाकों में आ जाते थे. तब तक दोनों देशों की सेना के बीच उसे एक तरह का अलिखित समझौता माना जाता था कि कोई भी एक-दूसरे की पोस्ट पर कब्ज़ा करने की नापाक कोशिश नहीं करेगा, लेकिन उस साल मई में जब हमारे सैनिक उन ऊंची चोटियों से नीचे उतरे, तब पाकिस्तान ने उन पर कब्ज़ा करने का पूरा प्लान बनाया हुआ था. तब पाक सेना के प्रमुख जनरल परवेज़ मुशर्रफ थे और दावा तो ये भी किया जाता है कि तब उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ को भी इसकी भनक नहीं लगने दी थी.
तब पाक सैनिकों और आतंकवादियों ने घुसपैठ करके हमारी प्रमुख चोटियों को अपने कब्जे में ले लिया था. पाकिस्तानी सैनिक और आतंकवादी ऐसी चोटियों पर तैनात हो गए थे, जहां से भारतीय सेना उनके पूरे टारगेट पर थी और अगर हमारे युवा जांबाज़ सैनिकों ने उन्हें खदेड़ा नहीं होता, तो शायद आज हम कारगिल विजय दिवस भी नहीं मना रहे होते, लेकिन हमारी सेना आज भी उन चरवाहों का पूरा ख्याल रखती है, जिन्होंने सबसे पहले उस घुसपैठ की जानकारी हमारी सेना को दी थी. उसके बाद से ही भारतीय सेना ने अपनी जमीन को खाली कराने के लिए ऑपरेशन विजय चलाया था.
उस पूरे ऑपरेशन ने तब दिल्ली में बैठे भारतीय सेना के आला अफसरों समेत सरकार को हिलाकर रख दिया था कि एक नौजवान अफसर कैप्टन विक्रम बत्रा ऐसा भी हो सकता है, जो दुश्मन सेना के चार सैनिकों को मार गिराकर चोटी 5140 पर तिरंगा लहराते हुए अपने वॉकी-टॉकी पर ये उद्घोष करेगा कि "ये दिल मांगे मोर". उस चोटी पर तिरंगा लहराने वाली उस तस्वीर ने हर देशवासी का सीना गर्व से चौड़ा कर दिया था. वैसे किसी भी लड़ाई के दौरान अपनी टुकड़ी को लीड करने वाले अफसर को एक कोड वर्ड दिया जाता है और वही उसकी पहचान होता है. तब विक्रम बत्रा का कोड वर्ड "शेरशाह " था लेकिन इतनी दुर्गम चोटी पर कब्ज़ा करने के साथ ही उन्हें सेना में ‘कारगिल का शेर’ की भी संज्ञा दे दी गई.
लेकिन कौन जानता था कि दुश्मनों को धूल चटाने वाला वहीं विक्रम बत्रा अपनी जिंदगी के 25 साल पूरा करने से दो महीने और दो दिन पहले ही मातृभूमि के लिए ऐसा बलिदान दे जायेगा, जो शहादत की सबसे बड़ी मिसाल बनेगा. इसीलिए उन्हें मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च वीरता सम्मान यानी परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया.
लेकिन उसी योद्धा ने 7 जुलाई 1999 को शहादत से पहले अपने माता-पिता को भेजे संदेश में लिखा था "या तो मैं तिरंगा फहराकर वापस आऊंगा, या फिर उसमें लिपटकर आऊंगा, लेकिन वापस जरूर आऊंगा." हम देश के करोड़ों लोग चैन की नींद ले सकें, इसलिये विक्रम बत्रा भी तिरंगे में ही लिपटकर आया था और आज भी न जाने कितने जांबाज़ हर रोज तिरंगे में लिपटकर ही किसी गांव या छोटे शहरों में पहुंच रहे है. उनकी कुर्बानी को तौलने के लिए दुनिया में आज तक कोई ऐसा तराजू ही नहीं बना है, जो उसे कमतर साबित कर सके. इसलिये आज कारगिल के शहीदों को नमन करते हुए उन सबको भी याद करने का दिन है, जिन्होंने हमारी जिंदगी को महफूज़ रखने के लिए दुश्मन के आगे कभी अपनी पीठ नहीं दिखाई!ए शहादत, तेरे इस कर्ज़ को भला कौन चुका सकता है? लोग दिल से भी इतने भिखारी बन चुके हैं कि वे तुझे अनगिनत सलाम भी कर दें,तो समझ लेना काफी है!
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