कर्नाटक विधानसभा चुनाव एक नए पड़ाव पर पहुंच चुका है. 20 अप्रैल को नामांकन की आखिरी तारीख थी. कौन किस सीट से लड़ रहा है, उसका भी खुलासा हर जगह से हो गया है. इसके साथ नेताओं में पाला बदलने का सिलसिला भी अब थम चुका है. कर्नाटक की सभी 224 विधानसभा सीटों पर 10 मई को मतदान होना है. ऐसे में अब सभी पार्टियों ने प्रचार अभियान को और भी तेज़ कर दिया है.


कर्नाटक चुनाव में मुख्य तौर से बीजेपी, कांग्रेस और जेडीएस के बीच मुकाबला है. हालांकि राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल करने के बाद आम आदमी पार्टी भी पहली बार राज्य की कमोबेश सभी सीटों पर चुनाव लड़ रही है. इससे पहले 2018 के चुनाव में अरविंद केजरीवाल की पार्टी 28 सीटों पर चुनाव लड़ी थी. हालांकि वो कुछ ख़ास कर नहीं पाई थी. इस बार भी भले ही वो दावा कर रही है कि बेंगलुरु और उसके आस-पास की 15 सीटों पर वो बड़ा उलटफेर कर सकती है, लेकिन फिलहाल इस तरह की संभावना नहीं दिखती है.


सबसे पहले बीजेपी की बात करते हैं. कर्नाटक की सत्ता में वापसी बीजेपी के लिए दो कारणों  से सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है. दक्षिण के 5 बड़े राज्यों कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु और केरल में से सिर्फ़ कर्नाटक ही ऐसा सूबा है, जहां हम कह सकते हैं कि बीजेपी का सही मायने में जनाधार है. बाकी आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु और केरल में बीजेपी पिछले 30-35 साल से चाहे कितने भी हाथ-पांव मारते आई हो, राज्य में सरकार बनाने के लिहाज से न तो उसकी राजनीतिक हैसियत बन पाई है और न ही जनाधार में कोई बड़ा उछाल आया है. अगर इस बार कर्नाटक की सत्ता बीजेपी के हाथों से चली जाती है, तो फिर दक्षिण भारत से उसका पूरी तरह से सफाया हो जाएगा और उसके मिशन साउथ को भी गहरा झटका लगेगा. ऐसे तो बीजेपी दावा करती है कि वो कार्यकर्ताओं के लिहाज से दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी है, लेकिन अगर वो कर्नाटक का चुनाव हार जाती है, तो ये सोचिए कि दुनिया की उस बड़ी पार्टी का भारत के दक्षिण के बड़े राज्यों में से किसी में सत्ता ही नहीं रह जाएगी. इसका सबसे ज्यादा फायदा विपक्ष को मिलेगा इस तरह के परसेप्शन बनाने में कि बीजेपी को भी हराया जा सकता है.


बीजेपी के लिए इस बार कर्नाटक चुनाव इसलिए भी ख़ास है कि क्योंकि अगले साल केंद्र की सत्ता के लिए लोकसभा चुनाव होना है. लोकसभा के हिसाब से कर्नाटक उन राज्यों में शामिल है, जहां 2019 में बीजेपी को अपार समर्थन हासिल हुआ था. उस वक्त यहां की 28 लोकसभा सीटों में 25 पर बीजेपी की जीत हुई थी. ऐसे तो लोकसभा और विधानसभा चुनावों के समीकरण, मुद्दे और वोटिंग पैटर्न अलग-अलग होते हैं, लेकिन कर्नाटक में जो भी विधानसभा के नतीजे रहेंगे, उससे अगले साल के आम चुनाव के लिए सूबे में माहौल बनाने में बहुत हद तक मदद तो मिलेगी ही.


बीजेपी के लिए कर्नाटक की चुनावी बिसात में जगह-जगह कई कांटे हैं. उसके दो बड़े नेता जगदीश शेट्टार और लक्ष्मण सावदी पार्टी छोड़कर कांग्रेस का दामन थाम चुके हैं. इसमें से जगदीश शेट्टार जुलाई 2012 से मई 2013 तक मुख्यमंत्री भी रहे हैं. उनकी गिनती उन नेताओं में होती है, जिन्होंने बीएस येदियुरप्पा के साथ मिलकर दक्षिण भारत के किसी राज्य में पहली बार कमल को खिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. हुबली-धारवाड़ सेंट्रल सीट से टिकट नहीं मिलने से नाराज जगदीश शेट्टार 17 अप्रैल को कांग्रेस में शामिल हो गए थे. कांग्रेस ने उन्हें इसी सीट से उम्मीदवार भी बना दिया है. जगदीश शेट्टार का सीधे-सीधे कहना है कि ये सब कुछ बीजेपी के संगठन महासचिव बीएल संतोष के कहने पर हो रहा है.


वहीं राज्य के पूर्व उपमुख्यमंत्री लक्ष्मण सावदी भी कुछ दिन पहले टिकट नहीं दिए जाने से नाराजगी के बाद बीजेपी से पल्ला झाड़ते हुए कांग्रेस का हाथ थाम चुके हैं. सावदी को कांग्रेस ने बेलगावी जिले की अथानी सीट पर पार्टी का उम्मीदवार बनाया है. मौजूदा एमएलसी लक्ष्मण सावदी अथानी से तीन बार विधायक रह चुके हैं. सावदी, येदियुरप्पा सरकार में 2019 से 2021 तक उपमुख्यमंत्री और परिवहन मंत्री रह चुके हैं.


जगदीश शेट्टार और लक्ष्मण सावदी दोनों ही लिंगायत समुदाय से आते हैं. लिंगायत समुदाय को पिछले तीन दशक से बीजेपी का परंपरागत वोट बैंक माना जाता है. हालांकि 2021 में बीएस येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद से हटाकर बसवराज बोम्मई को सीएम बनाने के बाद से ही कहा जा रहा है कि लिंगायत समुदाय के लोग बीजेपी से नाराज चल रहे हैं. आरक्षण का भी एक मुद्दा है जिसको लेकर लिंगायत समुदाय के लोग बीजेपी से नाराज माने जा रहे हैं. हालांकि चुनाव ऐलान से चंद दिन पहले मुस्लिम कोटे के 4 फीसदी आरक्षण को खत्म कर उसके जरिए वोक्कालिगा और लिंगायतों के समूह में दो-दो फीसदी आरक्षण बढ़ाने का दांव बसवराज बोम्मई सरकार ने चली है, लेकिन ये मुद्दा भी अभी कोर्ट में पहुंच गया है, जिसके बाद से इसके अमल पर रोक लगी हुई है. लिंगायत यहां के काफी प्रभावशाली समुदाय हैं. इनकी आबादी  करीब 17 से 18 फीसदी के बीच मानी जाती है और अगर इनकी नाराजगी मतदान में दिख गई तो फिर बीजेपी के लिए कर्नाटक की सत्ता में वापसी बेहद कठिन हो जाएगी.


बीजेपी की एक और समस्या है. 2013 को छोड़कर ये पहला मौका होगा जब बीएस येदियुरप्पा बीजेपी की तरफ से चुनावी राजनीति में शामिल नहीं हो रहे हैं यानी वे सीधे-सीधे चुनाव नहीं लड़ रहे हैं. बीजेपी के पास बीएस येदियुरप्पा के जैसा फिलहाल कोई चेहरा भी नहीं है जिसे वो आगे कर सके. मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई भले ही लिंगायत समुदाय से आते हैं, लेकिन येदियुरप्पा की तरह न तो उनका प्रभाव लिंगायत समुदाय के बीच है और न ही राज्य में उनका वो कद है. यहीं कारण है कि चुनाव नहीं लड़ने के बावजूद बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को इस बात के लिए मजबूर होना पड़ा कि 80 साल के येदियुरप्पा को ही इस बार भी चुनावी चेहरा बनाए रखा जाए. बीजेपी इस बार कर्नाटक में युवा और नए चेहरों को ज्यादा मौका देने का दांव खेल रही है. लेकिन उसके बावजूद येदियुरप्पा के नाम पर ही बीजेपी के तमाम बड़े नेता चाहे पीएम नरेंद्र मोदी हो या फिर अमित शाह वोट मांग रहे हैं.


2008 में परिसीमन के बाद ये चौथा मौका होगा, जब कर्नाटक में विधानसभा चुनाव हो रहा है. एक और चुनौती है, जिसको पार किए बिना कभी भी कर्नाटक बीजेपी के लिए अभेद्य किला नहीं बन सकता है. कर्नाटक की 224 में से 77 सीटें ऐसी हैं, जिन पर बीजेपी पिछले तीन विधानसभा चुनावों 2008, 2013 और 2018 में कभी नहीं जीती है. ये कितनी बड़ी संख्या है इसका अंदाजा इसी बात से लग जाता है कि ये सूबे की एक तिहाई सीटों से भी ज्यादा है.  इन 77 में से ज्यादातर सीटें दक्षिण कर्नाटक की हैं. हालांकि इनमें हैदराबाद कर्नाटक रीजन की 13 और बॉम्बे कर्नाटक रीजन की 5 सीटें भी शामिल हैं. बीजेपी के लिए थोड़ी राहत की बात ये है कि सामान्य विधानसभा चुनाव में तो कभी इन सीटों पर नहीं जीती है, लेकिन इनमें सात ऐसी सीटें हैं, जिन पर बीजेपी उपचुनाव में जरूर जीत हासिल करने में कामयाब रही है.


कर्नाटक में लिंगायत समुदाय के लोग लंबे समय से आरक्षण को बढ़ाकर 15% करने की मांग कर रहे हैं. फिलहाल कर्नाटक में लिंगायत के लिए 5 फीसदी का आरक्षण है और बोम्मई सरकार के नए फैसले से ये 7 फीसदी पर जा पहुंचेगा. वहीं वोक्कालिगा समुदाय भी लंबे वक्त से आरक्षण को 4 से बढ़ाकर 12% करने की मांग कर रहा है. बोम्मई सरकार के नए फैसले से ये आंकड़ा 6 फीसदी पर पहुंच सकता है. हालांकि सुप्रीम कोर्ट से अल्पसंख्यक कोटे से जुड़े मामले के निपटारे के बाद ही ये सब होगा. अभी भी लिंगायत और वोक्कालिगा समुदाय के अलग-अलग वर्गों में आरक्षण के मुद्दे पर बीजेपी सरकार से नाराजगी है और इससे होने वाले नुकसान को रोकने की चुनौती बीजेपी के सामने है.


अब बात करते हैं कांग्रेस की. कर्नाटक के नतीजे अगर पक्ष में हुए तो कांग्रेस के लिए संजीवनी होगी. पिछले दस साल चुनावी राजनीति के लिहाज से कांग्रेस के लिए बहुत ही बुरा रहा है. इक्के-दुक्के राज्यों को छोड़ दें तो दो लोकसभा चुनाव के साथ ही कई राज्यों में कांग्रेस को बहुत ही बुरी हार का सामना करना पड़ा है. एक तरह से अस्तित्व के संकट से जूझ रही कांग्रेस के लिए कर्नाटक उम्मीद की किरण बन सकती है. ऐसे भी अभी जहां कुल 200 से ज्यादा विधानसभा सीटें हो, उन राज्यों में कहीं भी कांग्रेस की सरकार अपने दम पर नहीं है. कर्नाटक में जीत हासल करने पर कम से कम एक ऐसा राज्य कांग्रेस के पास हो जाएगा. 


दूसरा फायदा कांग्रेस को 2024 के आम चुनाव के लिए रणनीति बनाने के लिहाज से भी होगा. ये हम सब जानते हैं कि केंद्रीय राजनीति के हिसाब से बीजेपी अभी जितनी मजबूत है, बिखरा विपक्ष 2024 में उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती. बीजेपी के खिलाफ 'एक के मुकाबले एक' फार्मूले की रणनीति को लेकर विपक्षी एकता बनाने की कोशिश की जा रही है. हालांकि उसमें सबसे बड़ी बाधा ये आ रही है कि उस विपक्षी एकता की अगुवाई कौन सी पार्टी करेगी. कायदे से पैन इंडिया जनाधार होने की वजह से ये सिर्फ़ कांग्रेस ही कर सकती है, लेकिन अभी भी बहुत सारी विपक्षी पार्टियां जैसे ममता बनर्जी की टीएमसी, केसीआर की बीआरएस, नवीन पटनायक की बीजेडी, अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी और केजरीवाल की आम आदमी पार्टी इस पर राजी नहीं दिख रही है या फिर ये लोग चुनाव पूर्व कांग्रेस को नेतृत्व देने के मुद्दे पर संशय में हैं. अगर कांग्रेस अपने दम पर कर्नाटक का चुनाव जीत जाती है, तो कांग्रेस की अगुवाई में विपक्षी एकता की संभावना को ज्यादा बल मिल सकता है.


जगदीश शेट्टार और लक्ष्मण सावदी के आने से कांग्रेस को उम्मीद है कि एक बार फिर लिंगायत समुदाय के लोगों का थोड़ा ही सही कांग्रेस पर भरोसा बढ़ेगा. प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष डी के शिवकुमार तो इससे इतना ज्यादा उत्साहित नज़र आ रहे हैं कि उन्होंने ये तक दावा कर दिया है कि पार्टी अब 150 सीटें आसानी से जीत लेगी. क्योंकि उनको भरोसा है कि इन दोनों के कांग्रेस में आने से वीरशैव लिंगायत के 2 से 3 प्रतिशत वोट उनकी पार्टी को बढ़ जाएंगे.


2018 विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 36.35% वोट शेयर के साथ सबसे ज्यादा 104 सीटें हासिल हुई थी. वहीं कांग्रेस को सबसे ज्यादा 38.14% वोट मिले थे, लेकिन उसकी सीटें 80 ही रही थी. अगर लिंगायतों की नाराजगी बीजेपी से रही और दो से तीन प्रतिशत वोट बीजेपी से कांग्रेस को खिसक गई तो यहीं वो बड़ा फर्क होगा जिसकी बदौलत कांग्रेस यहां पर आसानी से बहुमत हासिल करने का दावा कर रही है.


1990 से पहले लिंगायत कांग्रेस के ही परंपरागत वोट बैंक हुआ करते थे. लेकिन अक्टूबर 1990 में एक ऐसी घटना घटी जिसके बाद से माना जाता है कि लिंगायत समुदाय के लोगों का भरोसा धीरे-धीरे कांग्रेस से कम होते गया. उस वक्त लिंगायत समुदाय से आने वाले कांग्रेस नेता वीरेंद्र पाटिल कर्नाटक के मुख्यमंत्री हुआ करते थे. कर्नाटक के कुछ हिस्सों में दंगे होने के बाद तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राजीव गांधी ने वीरेंद्र पाटिल से तत्काल इस्तीफा देने को कहा. उस वक्त ये भी कहा जाता था कि राजीव गांधी ने वीरेंद्र पाटिल को अपनी बात तक कहने का मौका नहीं दिया था और चंद मिनटों उन्हें सीएम के पद से हटाने का फैसला कर दिया था. इस घटना को अपमान समझकर उसके बाद  लिंगायत समुदाय के लोग कांग्रेस से नाराज हो गए थे. लेकिन अब जगदीश शेट्टार और लक्ष्मण सावदी के आने से कांग्रेस का भरोसा बढ़ा है कि इस बार उन्हें लिंगायतों का ज्यादा समर्थन मिलेगा. हालांकि बीजेपी के नेता इस बात से वाकिफ हैं और कांग्रेस को लिंगायत विरोधी बताने के लिए पार्टी की ओर से कोशिशें और भी तेज होंगी, ये तय है.


कांग्रेस के पक्ष में एक बात और है. पिछले कुछ महीनों से पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और प्रदेश अध्यक्ष डीके शिवकुमार के बीच तनातनी से जिस नुकसान की आशंका जताई जा रही थी, उसकी संभावना कम हो गई. चाहे टिकट बंटवारे का मुद्दा हो या फिर चुनावी रणनीति को अमलीजामा पहनाने का, दोनों ही नेताओं ने बहुत ही सूझ-बूझ से बीजेपी की उस मंशा पर पानी फेर दिया है कि कांग्रेस के अंदरूनी कलह का फायदा बीजेपी को मिलेगा. उसके साथ ही कांग्रेस को बीजेपी के खिलाफ एंटी इनकंबेंसी का भी फायदा मिल सकता है.


कांग्रेस को इस बार कई सीटों पर जेडीएस की ओर से मुस्लिम वोट बैंक में सेंध लगने का खतरा था. लेकिन बीजेपी सरकार के एक फैसले से ये डर न सिर्फ खत्म हुआ है, बल्कि इसकी भी संभावना बढ़ गई है कि मुस्लिम समुदाय के लोग कांग्रेस के समर्थन में एकमुश्त वोट करेंगे. बीजेपी की बोम्मई सरकार ने चुनाव तारीखों के ऐलान से कुछ दिन पहले 4 फीसदी अल्पसंख्यक आरक्षण कोटे को खत्म कर दिया था. अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण को EWS कैटेगरी में शामिल कर दिया था. बीजेपी का ये दांव कांग्रेस के पक्ष में जा सकता है. कर्नाटक की आबादी में 12 फीसदी  मुस्लिम हैं. करीब 60 सीटों पर उनकी मौजूदगी नतीजों के लिहाज से बेहद अहम हैं. हालांकि असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM भी चंद सीटों पर चुनाव लड़ी रही है, लेकिन उसका कोई ख़ास नुकसान कांग्रेस को होता नहीं दिख रहा है.


एक और पहलू है जो कांग्रेस के लिए कर्नाटक में राहत लेकर आती है. अतीत में कर्नाटक विधानसभा चुनाव में बाकी राज्यों की तुलना में पीएम मोदी फैक्टर ज्यादा कारगर नहीं रहा है. बीजेपी को 2014 के आम चुनाव में कर्नाटक की 28 में से 17 लोकसभा सीटों (43 % वोट) पर जीत मिली थी. वहीं कांग्रेस को 9 सीटें (40.8% वोट) मिली थी. 2019 के आम चुनाव में बीजेपी 51.38 फीसदी वोट शेयर के साथ 28 में से 25 लोकसभा सीटें जीतने में सफल रही थी.  वहीं कांग्रेस सिर्फ एक सीट (31.88% वोट) ही जीत पाई थी.  इससे जाहिर है कि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का वोट कम होते गया है, लेकिन विधानसभा में ऐसा नहीं हुआ है. 2018 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी से ज्यादा वोट शेयर कांग्रेस के खाते में गया था. इन आंकड़ों से साफ है कि कर्नाटक विधानसभा चुनाव में लोकसभा की तरह नरेंद्र मोदी का करिश्मा काम नहीं करता है. कर्नाटक के लोगों का दोनों चुनाव में वोटिंग पैटर्न अलग-अलग है. कांग्रेस के लिए ये बहुत बड़ी राहत की बात है क्योंकि ज्यादातर राज्यों में बीजेपी पीएम मोदी के चेहरे पर ही चुनाव जीतते आ रही है.


अब अगर जेडीएस की बात करें तो भले ही उसके नेता और पूर्व मुख्यमंत्री एच डी कुमारस्वामी ये दावा कर रहे हों कि इस बार उनकी पार्टी अकेले दम पर बहुमत हासिल कर लेगी, लेकिन कर्नाटक में ग्राउंड रियलिटी इससे काफी दूर है. जेडीएस पिछले तीन विधानसभा चुनावों में 25 से 40 सीटों के बीच झूलते रही है. जेडीएस को 2018 में 37 सीटें, 2013 में 40 और 2008 में 28 सीटें हासिल हुई थी. 2008 से ही एक तरह से एचडी देवगौड़ा की पार्टी की कमान उनके बेटे एचडी कुमारस्वामी संभाल रहे हैं. जिस तरह का अभी माहौल है, उससे इस बार भी यही अनुमान है कि जेडीएस इस बार भी इन आंकड़ों के बीच ही सिमट कर जाएगी.


हालांकि जेडीएस इतनी सीटें लाकर भी कई बार किंगमेकर की भूमिका में रही है और 2018 में महज़ 40 सीटें लाने के बावजूद एचडी कुमारस्वामी कांग्रेस से गठजोड़ कर कर्नाटक के मुख्यमंत्री रह चुके हैं. उससे पहले भी वे  फरवरी 2006 से अक्टूबर 2007 के बीच सूबे के मुख्यमंत्री रह चुके हैं. इन दोनों ही मौके वैसे थे जब राज्य में किसी भी दल को बहुमत हासिल नहीं हुआ था और दोनों मौकों पर जेडीएस को कांग्रेस और बीजेपी से कम सीटें हासिल हुई थी.  फरवरी 2006 में जेडीएस बीजेपी के साथ 20 महीने सरकार में रह चुकी है. वहीं 2018 चुनाव के बाद जेडीएस 14 महीने कांग्रेस के साथ सरकार में रह चुकी है.


जेडीएस की कर्नाटक के दक्षिण हिस्सों खासकर पुराने मैसूर क्षेत्रों में और वोक्कालिगा समुदाय में ही पकड़ ज्यादा मजबूत है. पिछली बार पुराने मैसूर क्षेत्र की 89 सीटों में से  31 सीटों पर जेडीएस को जीत मिली थी. वहीं कांग्रेस को 32 और बीजेपी को 22 सीटें मिली थी.  पिछली बार जेडीएस को मिली 37 में से 31 सीटें इन्हीं इलाकों से मिली थी. अब पार्टी चाहती है कि इस बार उसे यहां ज्यादा से ज्यादा सीटें हासिल हो.  पंचरत्न यात्रा से मंड्या, हासन, मैसूरु, बेंगलुरु (ग्रामीण), टुमकुर, चिकबल्लापुर, कोलार और चिकमगलूर जिलों की सीटों पर वो बढ़त हासिल करने में कामयाब रहेगी, जेडीएस के नेता ऐसी उम्मीद में हैं. वोक्कालिगा समुदाय आरक्षण बढ़ाए जाने की मांग को लेकर बीजेपी से नाराज है. इसका भी लाभ जेडीएस को मिल सकता है. जेडीएस मध्य और उत्तरी कर्नाटक में हाथ-पैर फैलाने की कोशिश में है.


कभी कांग्रेस तो कभी बीजेपी के साथ जाने के चलते कर्नाटक के लोगों का जेडीएस पर भरोसा पूरी तरह से कभी नहीं बन पाया है. ऐसे अगर बीजेपी या कांग्रेस में से कोई भी पार्टी बहुमत हासिल करने में कामयाब नहीं रही तो एक बार फिर जेडीएस कम सीट लाकर भी सरकार बनाने में सबसे महत्वपूर्ण साबित हो सकती है. 


(ये आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)