लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत संसदीय प्रणाली में चुनाव की बहुत ही अहमियत होती है. अभी कर्नाटक चुनाव का शोर है. बीजेपी, कांग्रेस, जेडीएस समेत तमाम पार्टियों के बड़े-बड़े नेता जोर-शोर से प्रचार में जुटे हैं. इस दौरान कर्नाटक में आम आदमी की जरूरतों से मुद्दों की बजाय पार्टियों और नेताओं के बीच आपसी बयानबाजी और एक-दूसरे पर सियासी हमले ज्यादा प्रमुखता से छाए हुए हैं. सियासी हमले इसलिए क्योंकि 10 मई को मतदान के बाद इनकी कोई अहमियत नहीं रह जाएगी.
कर्नाटक हो या फिर किसी और राज्य का चुनाव ..या फिर केंद्र की सत्ता के लिए लोकसभा का चुनाव..हर चुनाव में रोजगार या बेरोजगारी, महंगाई, ग़रीबी, बेहतर शिक्षा, बेहतर मेडिकल सुविधा, रहन-सहन में सुधार जैसे आम जनता से जुड़े कई बुनियादी मुद्दे होते हैं. पार्टियों के प्रचार में इन मुद्दों पर जोर होने की बजाय उन मुद्दों को ज्यादा तवज्जो दिया जाने लगा है, जिसका सीधे-सीधे जनता की भलाई में कोई सरोकार नहीं रहता है.
कर्नाटक चुनाव का ही उदाहरण लें, तो वहां प्रचार अभियान बुनियादी मुद्दों से दूर दिख रहा है. पिछले 10 दिनों में बीजेपी और कांग्रेस के शीर्ष नेताओं का ज़ोर एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप पर रहा है, वो भी व्यक्तिगत स्तर पर. हमने देखा है कि कैसे बीजेपी और कांग्रेस के नेता इस दौरान जहरीला सांप, विषकन्या, नालायक जैसे शब्दों को उछाल कर प्रचार अभियान को बुनियादी मुद्दों या कहें जनता के मुद्दों से कहीं और पहुंचा दिया.
कहने को कर्नाटक में चुनाव में हो रहा है. बात होनी चाहिए थी कर्नाटक के लोगों की जरूरतों की और यहां के स्थानीय समस्याओं की. लेकिन प्रचार अभियान को जैसा मोड़ राजनीतिक दलों ने दे दिया है, उनसे तो यही लग रहा है कि दल चाहे कोई भी हो, किसी को भी जनता के मुद्दों की परवाह नहीं है. उन्हें बस इसकी परवाह है कि अपने-अपने प्रचार अभियान में कैसे एक-दूसरे के बड़े से बड़े नेताओं को कमतर दिखाया जाए और इसके लिए अमर्यादित शब्दों के इस्तेमाल से भी किसी को कोई गुरेज नहीं है.
और इस तरह के प्रचार अभियान की वजह से ही कर्नाटक का चुनाव वहां से निकलकर अब देश के हर राज्य में चर्चा का विषय बन चुका है. बजरंग बली से होता हुआ मामला अब बजरंग दल पर पहुंच चुका है और इसकी आग दूसरे राज्यों में भी दिख रही है.
जैसा कि कर्नाटक में हम सब देख रहे हैं कि गालियां गिनी जा रही हैं, धार्मिक शब्दों का बेधड़क इस्तेमाल किया जा रहा है. जनता की बजाय देवी-देवताओं के नाम पर वोट मांगे जा रहे हैं. इन सबके बीच अगर कुछ गौण हो गया है, तो वो है कर्नाटक की जनता की जरूरतें, कर्नाटक राज्य की समस्याएं.
ये सिर्फ़ कर्नाटक चुनाव की बात नहीं है. आजादी के बाद से ही हो रहे चुनाव में चाहे वो केंद्र स्तर पर हो या फिर राज्य में हो, प्रचार अभियान में बुनियादी मुद्दों की अपेक्षा हमेशा से ही सियासी हमले ज्यादा हावी रहे हैं. हालांकि पिछले दो दशक में इस तरह की परंपरा को राजनीतिक दलों की ओर से और भी बढ़ावा मिला है. बानगी के तौर पर कर्नाटक में कांग्रेस नेता, बीजेपी के नेता पर टिप्पणी करते हैं और फिर बीजेपी के नेता उनके जवाब में कुछ और बयान देते हैं और इस तरह का सिलसिला ही आखिरी दौर के प्रचार अभियान में जारी रहता है.
सैद्धांतिक तौर से हम हर जगह पढ़ते हैं कि धार्मिक और जातीय आधार पर वोट मांगना ग़लत है और इसके लिए चुनाव आयोग को ये अधिकार भी है कि वो कार्रवाई करें. लेकिन व्यवहार में हम पिछले कई साल से देखते आ रहे हैं कि लोगों के रोजमर्रा जीवन के लिए जरूरी चीजों की बजाय धर्म और जाति का चुनाव में बोलबाला लगातार बढ़ते ही जा रहा है.
जब प्रचार अभियान से वास्तविक मुद्दे गौण हो जाते हैं, तो फिर मीडिया में भी उन मुद्दों को उतनी जगह नहीं मिल पाती है, जितनी मिलनी चाहिए. वहां भी किस नेता ने क्या कहा, किसने किसके लिए अमर्यादित शब्द बोले, जवाब में सामने वाले नेता ने क्या पलटवार किया..बस इन सबके इर्द-गिर्द ही मीडिया विमर्श घूमते रहता है और फिर मतदान की तारीख आ जाती है. इससे मीडिया में भी जनता से जुड़े बुनियादी मुद्दों पर उतनी बहस नहीं हो पाती है, जितनी की जरूरत है.
इस तरह के प्रचार अभियान का सीधा नुकसान मतदाताओं को उठाना पड़ता है. राजनीतिक दलों के नेताओं के बीच आपसी खींचतान में मतदाता इतने उलझ जाते हैं कि वोटिंग का समय आने तक उन्हें वास्तविक मुद्दों पर सोचने का वक्त ही नहीं मिलता है.
इन सबके बीच एक और मसला है जिस पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है. चुनाव में घोषणापत्र या मैनिफेस्टो का महत्व धीरे-धीरे घट रहा है. चुनाव से पहले पार्टियों की ओर से घोषणापत्र जारी किया जाता है. इसमें उन कामों और नीतियों का ब्यौरा होता है, जिसे वो पार्टी सत्ता में आने पर लागू करती है या फिर कहें कि उन कामों को पूरा करती है. दरअसल इसके जरिए राजनीतिक दल जनता के बीच अपने-अपने वादे रखते हैं, ताकि जनता को ये समझने का मौका मिल सके कि कौन सी पार्टी उनके हित में ज्यादा बेहतर काम करेगी.
पिछले कुछ सालों में जिस तरह से पार्टियां चुनाव से पहले अपना-अपना घोषणापत्र जारी कर रही हैं, उससे साफ है कि इसको लेकर पार्टिया बहुत ज्यादा गंभीर नहीं है. कर्नाटक चुनाव की बात करें तो यहां 10 मई को मतदान होना है. इसके नौ दिन पहले एक मई को बीजेपी और मतदान के आठ दिन पहले दो मई को कांग्रेस अपना-अपना घोषणापत्र जारी करती है. ऐसे तो यहां जेडीएस भी बड़ी राजनीतिक हैसियत रखती है, लेकिन असली मुकाबला बीजेपी और कांग्रेस के बीच ही है.
कहने का मतलब है कि अब मुख्य पार्टियां घोषणापत्र इतनी देर से जारी करते हैं कि मतदाताओं को उन पर सोच विमर्श करने का ज्यादा मौका ही नहीं मिलता है. सैद्धांतिक तौर से ये माना जाता है कि हर पार्टी के घोषणापत्र का तुलनात्मक अध्ययन कर ही मतदाता किस पार्टी को वोट करेगा, इसका फैसला लेता है. हालांकि व्यवहार में ये होता नहीं है, लेकिन सैंद्धांतिक तौर से ही मान लें, तो फिर पार्टियों को अपना-अपना घोषणापत्र मतदान की तारीख से बहुत पहले जारी करनी चाहिए, ताकि जनता के बीच में उन पर बहस हो सके. लेकिन अमूमन अब ऐसा नहीं दिखता है.
2014 के लोकसभा चुनाव में तो बीजेपी ने अपना घोषणापत्र उस वक्त जारी किया था, जब देश के कुछ हिस्सों में वोटिंग का काम पूरा हो गया था. ये सिर्फ़ एक उदाहरण है. इस तरह के उदाहरण बीजेपी, कांग्रेस समेत कई दूसरी पार्टियों से भी मिल जाएंगे. कुछ राज्यों में तो पार्टियों की ओर से चुनाव के चार-पांच दिन पहले घोषणापत्र जारी किए गए हैं. अब जिस तरह का रवैया राजनीतिक दल अपना रहे हैं, उससे तो यही लगता है कि घोषणापत्र महज़ एक औपचारिकता बन कर रह गया है. जबकि होना ये चाहिए था कि किसी भी चुनाव में प्रचार अभियान का मुख्य ज़ोर पार्टियों के मैनिफेस्टो में किए गए वादों पर होना चाहिए था, लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं देखा जा रहा है. अब प्रचार अभियान में मुख्य ज़ोर आपस में ही सियासी हमले पर रह गया है और एक तरह से मैनिफेस्टो की प्रासंगिकता भी धीरे-धीरे गौण होते जा रही है.
संसदीय प्रणाली में मैनिफेस्टो एक अहम दस्तावेज जिसका महत्व न सिर्फ चुनाव के पहले होता है, बल्कि चुनाव के बाद भी रहता है. एक जागरूक लोकतांत्रिक प्रणाली में यही वो दस्तावेज है, जिसको आधार बनाकर चुनाव नतीजों के बाद जिस भी पार्टी की सरकार बने, उससे अगले 5 साल तक सवाल पूछा जा सकता है. इस संदर्भ में भारत में मैनिफेस्टो की प्रासंगिकता को बढ़ाने की जरूरत है.
मैनिफेस्टो को चुनाव तारीख से कितने दिन पहले जारी किया जाना चाहिए, इस मसले पर भारत के निर्वाचन आयोग को गंभीरता से विचार किए जाने की जरूरत है और सभी राजनीतिक दलों से विचार-विमर्श कर इसके लिए भी एक समय सीमा तय की जानी चाहिए. तभी सही मायने में चुनाव में मैनिफेस्टो की भूमिका बनी रहेगी.
प्रचार अभियान में कौन-कौन से मुद्दे उजागर होने चाहिए और मैनिफेस्टो पर मतदाताओं के बीच चर्चा..ये दो ऐसे मसले हैं, जिनकी बदौलत हर 5 साल में होने वाले चुनाव की प्रासंगिकता को सही मायने में बनाए रखा जा सकता है. किसी भी चुनाव के लिए चुनावी विमर्श बेहद ही अहम है. जब मुद्दों पर ख़ासकर बुनियादी जरूरतों से जुड़े मुद्दों पर चुनाव नहीं लड़ा जाता तो ऐसे में भले ही कोई भी पार्टी जीत जाती हो.लेकिन आम जनता की हार होती है और आने वाले वक्त में इससे जुड़े हर पक्ष को सोचने की जरूरत है.
(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)