कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजे आ चुके हैं. पिछले 9 साल से कांग्रेस को जिस तरह की जीत की दरकार थी, कर्नाटक से उसे वैसे ही नतीजे हासिल हुए हैं. कर्नाटक की जनता ने जिस तरह से कांग्रेस पर जमकर प्यार लुटाया है, वो अस्तित्व की लड़ाई से जूझ रही कांग्रेस के लिए एक तरह से संजीवनी है.
कर्नाटक में 1985 के बाद से ही सरकार बदलने की परंपरा रही है. यहां की जनता ने भी इस परंपरा को तब से बरकरार रखा है. हालांकि 1999 में कांग्रेस की सरकार थी और फिर 2004 में त्रिशंकु जनादेश और बीजेपी के सबसे बड़ी पार्टी बनने के बावजूद कांग्रेस ने जेडीएस के साथ मिलकर सरकार बनाते हुए सत्ता बरकरार रखने में कामयाब रही थी. इस बार भी कर्नाटक के लोगों ने बदलने की परंपरा के मुताबिक ही जनादेश दिया है.
चुनाव नतीजों से कर्नाटक में अपने दम पर पहली बार बहुमत हासिल करने के बीजेपी के मंसूबों पर पानी फिर गया है. साथ ही एक बड़े राज्य की सत्ता से भी वो बाहर हो गई है. कर्नाटक में भले ही बीजेपी 2007 से सत्ता में आ-जा रही थी, लेकिन कभी भी उसे यहां की जनता ने पूर्ण बहुमत नहीं दिया था. उसे 2008 में सबसे ज्यादा 110 सीटें हासिल हुई थी.
देश की राजनीति ले सकती है करवट
कर्नाटक के नतीजों का यहां के लिए तो महत्व है हीं, ये चुनाव देश की राजनीति में बड़े बदलाव का पड़ाव भी साबित हो सकता है. कर्नाटक का नतीजा कांग्रेस के लिए तो महत्व रखता ही है, उसके साथ ही 2024 में बीजेपी को हराने के लिए विपक्षी एकता बनाने की जो मुहिम चल रही है, उस नजरिए से भी ये काफी अहम है. उसके विपरीत पिछले 9 साल से चुनाव दर चुनाव जीत हासिल कर रही बीजेपी के लिए ये नतीजे बहुत बड़ा झटका है.
कर्नाटक में 1989 के बाद कांग्रेस की सबसे बड़ी जीत
इन पहलुओं पर चर्चा करने से पहले ये समझ लेते हैं कि कर्नाटक में कांग्रेस की जीत कितनी बड़ी है. आंकड़ों की बात करें तो 224 सदस्यीय विधानसभा में कांग्रेस को बहुमत से काफी ज्यादा 135 सीटों पर जीत मिली है. वहीं बीजेपी को महज़ 66 सीटों से ही संतोष करना पड़ा है. क्षेत्रीय दल जेडीएस के खाते में सिर्फ़ 19 सीटें ही आई. पिछली बार यानी 2018 विधानसभा चुनाव की तुलना में कांग्रेस को 55 सीटों का लाभ हुआ है. वहीं बीजेपी को 38 सीटों का नुकसान उठाना पड़ा है और जेडीएस को 18 सीटों का नुकसान हुआ है. 1989 के बाद कर्नाटक में कांग्रेस की ये सबसे बड़ी जीत है. 1989 के विधानसभा चुनाव में वीरेंद्र पाटिल की अगुवाई में कांग्रेस ने 178 सीटों पर जीत हासिल की थी. 1989 के बाद कांग्रेस को सबसे बड़ी जीत 1999 के विधानसभा चुनाव में मिली थी जब उसने एसएम कृष्णा की अगुवाई में 132 सीटों के साथ पूर्ण बहुमत हासिल किया था. वहीं 2013 के चुनाव में सिद्धारमैया की अगुवाई में कांग्रेस को 122 सीटों के साथ बहुमत मिला था.
कांग्रेस को बीजेपी से 7% ज्यादा मिले वोट
वोट शेयर के मामले में भी इस बार कांग्रेस को भारी उछाल मिला है. पिछली बार के मुकाबले में इस बार कांग्रेस और बीजेपी के वोट शेयर में काफी अंतर है. इस बार कांग्रेस का वोट शेयर करीब 43 फीसदी पहुंच गया है, वहीं बीजेपी का वोट शेयर 36% रहा. यानी दोनों के वोट शेयर में 7% का फर्क रहा है. 2018 में कम सीट के बावजूद कांग्रेस का वोट शेयर बीजेपी से 1.79% ज्यादा रहा था. जेडीएस की बात करें तो उसका वोट शेयर 13.3 फीसदी रहा जो पिछली बार के मुकाबले 5 फीसदी कम है. वोट शेयर के मामले में हालांकि बीजेपी को इस बार ज्यादा नुकसान नहीं उठाना पड़ा है. पिछली बार बीजेपी को 36.36% वोट हासिल हुए थे. लेकिन कांग्रेस का वोट शेयर पिछली बार के मुकाबले करीब 5 फीसदी बढ़ गया है. इस बार कांग्रेस की बड़ी जीत के पीछे सबसे बड़ा कारण यही रहा कि उसे वोट शेयर में इजाफा हुआ और उसे बीजेपी से करीब 7% ज्यादा वोट मिले.
सिर्फ़ कोस्टल कर्नाटक में बीजेपी का रहा दबदबा
क्षेत्रवार भी बात करें तो कर्नाटक में कांग्रेस के नजरिए से नतीजे काफी सकारात्मक रहे हैं. मौटे तौर पर कर्नाटक 6 रीजन... हैदराबाद कर्नाटक, मुंबई कर्नाटक, कोस्टल कर्नाटक, सेंट्रल कर्नाटक, ग्रेटर बेंगलुरु और ओल्ड मैसूर रीजन में बंटा है. पहले इनमें से सेंट्रल, कोस्टल और मुंबई कर्नाटक रीजन बीजेपी का गढ़ माना जाता था, वहीं ग्रेटर बेंगलुरु में भी बीजेपी के वर्चस्व की बात की जाती थी. इसके अलावा ओल्ड मैसूर रीजन में जेडीएस का प्रभाव रहता था. लेकिन इस बार कांग्रेस ने इन सभी समीकरणों को पीछे छोड़ दिया है. इस बार सेंट्रल कर्नाटक, हैदराबाद कर्नाटक, मुंबई कर्नाटक और ओल्ड मैसूर रीजन में कांग्रेस का दबदबा रहा. वहीं ग्रेटर बेंगलुरु में बीजेपी, कांग्रेस से ज्यादा सीटें तो लाने में कामयाब रही, लेकिन कांग्रेस ने पूरी तरह से बीजेपी का दबदबा नहीं बनने दिया. सिर्फ़ कोस्टल कर्नाटक ही एक ऐसा रीजन रहा जहां हम कह सकते हैं कि कांग्रेस, बीजेपी से बहुत पीछे रही.
शहरी इलाकों में भी कांग्रेस को मिली ज्यादा सीटें
ग्रामीण इलाकों की 151 सीटों में से कांग्रेस 97 सीटों पर जीत हासिल करने में कामयाब रही और बीजेपी को 34 सीटें मिली और जेडीएस के खाते में 17 सीटें गई. वहीं सेमी अर्बन इलाकों की 26 में से 15 सीटें कांग्रेस जीतने में कामयाब रही और बीजेपी को 8 पर जीत मिली. अर्बन इलाकों की 47 में से 23 सीटें कांग्रेस के खाते में गई और बीजेपी को 24 सीटें मिली.
लिंगायत समुदाय ने नहीं दिया बीजेपी का साथ
लिंगायत बहुल 69 में से 44 सीटें कांग्रेस और 21 सीटें बीजेपी के खाते में गई, जबकि वोक्कालिगा बहुल 51 में 27 सीटों पर कांग्रेस और 12 सीटों पर जेडीएस जबकि 10 सीटों पर बीजेपी को जीत मिली. अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित 15 में 14 सीटों पर कांग्रेस को जीत मिली है और एक सीट जेडीएस के खाते में गई. वहीं अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 36 में से 20 से ज्यादा पर कांग्रेस को जीत मिली है. मुस्लिम बहुल ज्यादातर सीटें भी कांग्रेस के खाते में ही गई.
कुल मिलाकर ग्रामीण इलाकों और छोटे शहरों-कस्बों में कांग्रेस को जमकर वोट मिला. उसके साथ ही इस बार बड़े शहरों में भी बीजेपी से आगे निकलने में कांग्रेस कामयाब रही. साथ ही इस बार बीजेपी को लिंगायत समुदाय का समर्थन उस तरह से नहीं मिला, जैसा पिछले 5-6 चुनाव से मिलते आ रहा था. 1989 तक लिंगायत समुदाय के लोग कांग्रेस के परंपरागत वोटर माने जाते थे. इस बार 34 साल बाद कांग्रेस दोबारा उनको अपने साथ लाने में सफल हो गई. साथ ही एसटी और एससी समुदाय के लोगों ने भी कांग्रेस पर एकमुश्त भरोसा जताया है.
एंटी इनकम्बेंसी का बीजेपी को खामियाजा
इन आंकड़ों से एक बात तो स्पष्ट है कि राज्य की जनता ने खुलकर कांग्रेस का समर्थन किया है. 24 साल बाद कोई पार्टी यहां 130 सीट से ज्यादा हासिल करने में कामयाब हुई है. मोटे तौर पर कर्नाटक की जनता ने बीजेपी को तो नकारा ही है. साथ ही एचडी कुमारस्वामी की जेडीएस को भी क्षेत्रीय दल के तौर पर नकार दिया है. जेडीएस को जो नुकसान हुआ है, उसका सीधा फायदा कांग्रेस को तो मिला ही है, उसके अलावा बीजेपी के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर भी कांग्रेस की बड़ी जीत के पीछे बड़ी वजह है. आंकड़ों से हम ये निष्कर्ष निकाल सकते हैं.
जीत से कांग्रेस कार्यकर्ताओं का बढ़ेगा उत्साह
कर्नाटक में जीत के साथ ही कांग्रेस की अब देश के 4 राज्यों राजस्थान, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक में खुद की बदौलत सरकार हो जाएगी. उसमें भी अब तक कांग्रेस के पास ऐसा कोई राज्य नहीं था, जहां 200 से ज्यादा विधानसभा सीटें हैं. अब कर्नाटक जैसे बड़े राज्य की सत्ता पाकर कांग्रेस एक बार फिर से नए सिरे से अपने जनाधार को पूरे देश में बढ़ा सकती है. पिछले 9 साल में जिस तरह से उसे दो लोकसभा चुनाव और कई राज्यों की विधानसभा चुनाव में हार मिल रही थी, उसकी छवि जनता के साथ ही बाकी विपक्षी दलों में भी उतनी अच्छी नहीं रह गई थी. बाकी राज्यों में निराश कार्यकर्ताओं में भी कर्नाटक की जीत से जोश आने की कांग्रेस उम्मीद कर सकती है. ये भी संदेश जाएगा कि बीजेपी को एक बड़े अंतर से हराया जा सकता है.
राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा का असर
कर्नाटक की इतनी बड़ी जीत में राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के साथ ही, कांग्रेस के सकारात्मक चुनाव प्रचार अभियान को भी महत्व मिलना चाहिए. राजनीतिक मामलों के ज्यादातर लोगों का ये मानना है कि राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा ने कर्नाटक में पार्टी के लिए जबरदस्त माहौल तैयार कर दिया था. उसके बाद बीजेपी के विपरीत कांग्रेस ने अपने प्रचार अभियान में उन मुद्दों पर फोकस किया था, जो सत्ता मिलने के बाद वो कर्नाटक जनता के लिए करने वाली थी. वहीं प्रचार अभियान के आखिरी 20 से 25 दिनों में बीजेपी का पूरा ज़ोर जनता के मुद्दों पर न रहकर कांग्रेस के ऊपर निशाना साधने पर रहा था. जिस तरह के नतीजे आए हैं, उससे हम कह सकते हैं कि कर्नाटक की जनता अपनी रोजमर्रा की जरूरतों से जुड़े मुद्दों पर ही फोकस रही और उसी नजरिए से जनादेश दिया.
बीजेपी को मजबूत स्थानीय नेता की कमी खली
कर्नाटक का रिजल्ट ये भी दिखाता है कि उत्तर भारत के विपरीत यहां सिर्फ़ सेंट्रल लीडरशिप के नाम पर चुनाव नहीं जीता जा सकता है. कांग्रेस के पास कर्नाटक की जनता के सामने पेश करने के लिए राज्य के दो बड़े नेता पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और प्रदेश अध्यक्ष डीके शिवकुमार थे. वहीं बीजेपी के पास बीएस येदियुरप्पा के चुनावी राजनीति से दूर होने के बाद कोई बड़ा स्थानीय नेता नहीं था, जिसको बीजेपी आगे कर सकती थी. इसका खामियाजा पार्टी को भुगतना भी पड़ा. इस बार भी यहां बीजेपी के सबसे बड़े चेहरे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही थे. ऐसे भी 2013 विधानसभा चुनाव छोड़ दें तो पिछले 6 विधानसभा चुनावों में बीजेपी का कर्नाटक में जो भी प्रदर्शन रहा था, उसमें पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा की काफी महत्वपूर्ण भूमिका रही थी. 2013 में जब वो बीजेपी से अलग थे, तो हम सब जानते हैं कि बीजेपी 40 सीटों पर सिमट गई थी. कर्नाटक में बीजेपी की अब तक जो राजनीतिक हैसियत बनी, उसमें सबसे बड़ा हाथ बीएस येदियुरप्पा का रहा है.
इस बार के नतीजों से ये साफ हो गया कि कर्नाटक में बीजेपी को येदियुरप्पा जैसे कद के नेता की कमी खली. ये अलग बात है कि येदियुरप्पा पार्टी के चुनाव प्रचार में हिस्सा ले रहे थे, लेकिन कर्नाटक के लोगों को पता था कि 82 साल के येदियुरप्पा खुद अब चुनावी राजनीति में नहीं रहने वाले हैं. कर्नाटक के नतीजों से स्पष्ट है कि भले ही लोकसभा चुनाव में यहां की जनता पीएम मोदी के नाम पर वोट देते हैं, लेकिन विधानसभा में उनके वोटिंग पैटर्न का पैमाना हर बार की तरह इस बार भी स्थानीय नेताओं को चेहरा मान कर ही रहा है.
कर्नाटक में लोगों ने स्थानीय मुद्दों को दिया महत्व
नतीजों से ये भी साफ है कि कर्नाटक में उत्तर भारत की तरह सांप्रदायिक आधार पर वोटों का ध्रुवीकरण नहीं हो सकता है. जैसे-जैसे कर्नाटक का चुनाव करीब आता जा रहा था, राज्य के बाहर से आने वाले बीजेपी के शीर्ष नेताओं ने स्थानीय मुद्दों की बजाय बजरंग बली, बजरंग दल और फ़िल्म 'द केरला स्टोरी' को बड़ा मुद्दा बनाने की कोशिश की. वहीं कांग्रेस के केंद्रीय नेताओं ने इसकी बजाय स्थानीय मुद्दों पर ज्यादा फोकस किया. चुनाव की तारीखों के ऐलान के चंद दिन पहले वहां की बसवराज बोम्मई सरकार ने मुस्लिमों को मिले 4% आरक्षण को खत्म करने का फैसला किया . पार्टी ने इस मुद्दे को भी अपने प्रचार अभियान में खूब उछाला कि ये संविधान के मुताबिक फैसला नहीं था और पहले कांग्रेस की सरकार ने महज़ वोट बैंक के लिए इसे लागू किया. बीजेपी के लिए ये दांव भी उल्टा ही पड़ गया.
बाकी राज्यों में कांग्रेस को मिल सकता है लाभ
कर्नाटक की इस जीत के बाद कांग्रेस चाहेगी कि ये जीत का सिलसिला इस साल होने वाले बाकी राज्यों के विधानसभा चुनावों में बरकरार रहे. इस साल अब राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम में चुनाव होना है. इनमें से राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस फिलहाल सत्ता में है और मध्य प्रदेश बीजेपी के पास है. हालांकि कर्नाटक की जीत से उत्साहित कांग्रेस के लिए इन तीनों राज्यों में बढ़त बनाने का मौका बढ़ गया है.
राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की संभावनाओं को सबसे बड़ा खतरा उसके खुद के नेताओं से ही है. इन दोनों राज्यों में कांग्रेस अंदरूनी गुटबाजी से जूझ रही है. राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और सचिन पायलट हमेशा से ही एक-दूसरे के खिलाफ तलवार लिए खड़े नज़र आते हैं. वहीं छत्तीसगढ़ में भी सीएम भूपेश बघेल और टीएस सिंह देव के बीच तनातनी अब चरम पर पहुंच गया है. कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व भी इसका तोड़ नहीं निकाल पा रहा था. हालांकि अब कर्नाटक की जीत से पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को एक मौका मिल गया कि ये संदेश देने का कि चुनाव जीतना है तो आपसी कलह को पीछे रखना होगा, जैसा कि कर्नाटक में सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार ने किया.
कर्नाटक की जीत का कांग्रेस को पड़ोसी राज्य आंध्र प्रदेश में भी लाभ मिल सकता है. एक वक्त था जब आंध्र प्रदेश में कांग्रेस की तूती बोलती थी, लेकिन 2014 में आंध्र प्रदेश से तेलंगाना के अलग राज्य बनने के बाद से ही इन दोनों ही राज्यों में कांग्रेस काफी कमजोर हो गई. पिछली बार आंध्र प्रदेश विधानसभा चुनाव और लोकसभा में यहां कांग्रेस खाता तक नहीं खोल पाई थी. आंध्र प्रदेश में भी 2024 के लोकसभा चुनाव के साथ विधानसभा चुनाव होना है. हालांकि कर्नाटक की जीत के बाद आंध्र प्रदेश और तेलंगाना दोनों राज्यों में कांग्रेस अपनी पकड़ मजबूत करने की कोशिश करेगी.
2024 के लोकसभा चुनाव के नजरिए से अहम
कर्नाटक के नतीजों से देश की राजनीति बदल सकती है. 2024 के लोकसभा चुनाव में अब महज 11 महीने का वक्त रह गया है. बीजेपी भले ही कर्नाटक विधानसभा का चुनाव हार गई हो, लेकिन लोकसभा के नजरिए से अभी भी वो ऐसी ताकत है, जिसको हराने के लिए मजबूत विपक्ष या फिर कहें विपक्षी एकता की जरूरत पड़ेगी. या कहें कि पूरे देश में वन टू वन फॉर्मूला के जरिए ही कांग्रेस समेत तमाम विपक्ष मिलकर बीजेपी के लिए चुनौती खड़ा कर सकता है. विपक्षी एकता की कोशिश भी की जा रही है. हालांकि इसकी अगुवाई कौन करेगा, कांग्रेस की खराब स्थिति को देखते हुए बाकी विपक्षी दल खुलकर कांग्रेस का नेतृत्व स्वीकार करने से कतरा रहे हैं. लेकिन कर्नाटक में कांग्रेस का जिस तरह का प्रदर्शन रहा है, ये एक तरह से बाकी विपक्षी दलों के लिए संदेश है कि कांग्रेस का नेतृत्व स्वीकार किए बिना विपक्षी एकता का कोई मायने नहीं रहेगा.
कांग्रेस पर बाकी विपक्षी दलों का बढ़ेगा भरोसा
ऐसे भी कांग्रेस कितना भी कमजोर हुई हो, विपक्ष में अभी भी वहीं एक पार्टी है, जिसका पैन इंडिया जनाधार और प्रभाव है. कर्नाटक के नतीजों के बाद तो दक्षिण भारत के राज्यों में कांग्रेस का जनाधार बीजेपी से काफी ज्यादा है. जनता के बीच भी कर्नाटक की जीत से कांग्रेस की छवि में सुधार होने की संभावना है. इसका भी लाभ कांग्रेस को 2024 के चुनाव में मिल सकता है.
राहुल की लोकसभा सदस्यता का जाना बना हथियार
कर्नाटक में कांग्रेस की बड़ी जीत के पीछे एक और भी कारण है. मार्च में कांग्रेस के सबसे बड़े चेहरे राहुल गांधी को मानहानि केस में दोषी मानते हुए सूरत की अदालत से दो साल की सज़ा सुना दी. इसके आधार पर राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता भी चली जाती है. कांग्रेस के स्थानीय स्तर के नेताओं ने इस मुद्दे का कर्नाटक के गांव-देहात से लेकर छोटे कस्बों में खूब उठाया. कांग्रेस ने इसे केंद्र की सरकार के खिलाफ हथियार के तौर पर प्रचारित किया. कांग्रेस को इसका भी लाभ मिला है और अब पार्टी जरूर उम्मीद कर रही होगी कि बाकी राज्यों और अगले साल के लोकसभा चुनाव में भी वो इस मुद्दे को लेकर जनता का समर्थन हासिल कर सकती है.
बीजेपी के 'मिशन साउथ' को झटका
बीजेपी के नजरिए से ये न सिर्फ़ एक राज्य कर्नाटक की हार है. ये बीजेपी के मिशन साउथ के लिए बहुत ही बड़ा झटका है. दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी, दो बार से लोकसभा में बड़ी जीत हासिल करने वाली पार्टी का अब दक्षिण भारत के जो 5 बड़े राज्य हैं, उनमें से किसी में सरकार नहीं है. आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल में से सिर्फ कर्नाटक ही एक राज्य था, जिसमें बीजेपी को सबसे ज्यादा भरोसा था. लेकिन कर्नाटक में उसे जिस तरह से हार मिली है, भविष्य में उसके लिए दक्षिण भारत की राह और भी मुश्किल हो गई है. ऐसे भी जिस प्रकार का जनाधार है, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और केरल में निकट भविष्य में ज्यादा बेहतर प्रदर्शन की बीजेपी की संभावना नज़र नहीं आती है. अब कर्नाटक की हार के बाद बीजेपी के इन दक्षिणी राज्यों में अपना राजनीतिक विस्तार करना उसके सबसे बड़े मंसूबों में से एक रहेगा.
दक्षिण के 5 बड़े राज्यों में कहीं नहीं है बीजेपी की सत्ता
लोकसभा के नजरिए से बीजेपी के लिए सबसे बड़ी ताकत उत्तर और पश्चिम भारत के बड़े राज्य है. इनमें गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार खासकर है. इन 5 राज्यों में ही लोकसभा की 200 सीटें हैं और 2019 के चुनाव में बीजेपी ने इनमें से अकेले 157 सीटों पर जीत हासिल की थी. अगर इसमें पश्चिम बंगाल को मिला दें तो बीजेपी ने इन 6 राज्यों की 242 में से अकेले 175 सीटों पर जीत दर्ज की थी. इस लिहाज से लोकसभा में चुनौती देने के लिए कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों को इन राज्यों में बीजेपी के सामने बड़ी चुनौती बननी होगी. कर्नाटक के चुनाव में ये संदेश जरूर जाएगा कि कांग्रेस अभी भी बीजेपी के लिए सबसे बड़ा खतरा है और उसकी अगुवाई में ही विपक्ष 2024 में बीजेपी की सत्ता को किसी भी प्रकार की चुनौती दे पाने में सक्षम हो सकता है.
भले ही बीजेपी लगातार दो बार से लोकसभा चुनाव जीतने में कामयाब रही है और इन 9 सालों में धीरे-धीरे करके पूर्वोत्तर समेत कई राज्यों में सरकार बनाने में कामयाब रही हो, लेकिन अब कर्नाटक की सत्ता खोने के बाद उसका दक्षिण भारत के 5 बड़े राज्यों से सफाया हो गया है. इसके साथ ही वो राजस्थान, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, हिमाचल, पंजाब, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और दिल्ली की सत्ता से बाहर है. पूर्वोत्तर राज्यों को छोड़ दे तो बीजेपी की फिलहाल अपने दम पर सिर्फ़ उत्तराखंड, हरियाणा, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, गुजरात और गोवा में ही सरकार है. वहीं महाराष्ट्र और पुडुचेरी में सहयोगियों के साथ उसकी सरकार है. यानी पूर्वोत्तर के इतर कर्नाटक के नतीजों के बाद बीजेपी की 14 राज्यों में सरकार नहीं है और 8 राज्यों में सरकार है.
बीजेपी के खिलाफ विपक्षी लामबंदी की कोशिशों को टॉनिक मिला है. अगर कर्नाटक की सत्ता बरकरार रखने में बीजेपी कामयाब हो जाती तो बीजेपी की कोशिश रहती ये संदेश देने की कि उसके खिलाफ कांग्रेस की अगुवाई में विपक्षी एकता बनाने की जो कोशिश की जा रही है, वो 2024 में कारगर नहीं साबित होगा. लेकिन अब कर्नाटक ने जो मैंडेट दिया है, उससे आने वाले समय में देश की राजनीति में बड़ा बदलाव देखने को मिल सकता है.
(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)