कर्नाटक के चुनाव परिणाम शनिवार 13 मई को आए और मानो कांग्रेस के लिए संजीवनी साबित हुए. कर्नाटक में उसने बंपर जीत दर्ज की है. अब सवाल उठ रहा है कि कर्नाटक की सत्ता से बाहर होने के बाद दक्षिण भारत की तरह देश के बाकी राज्यों में भी बीजेपी की मुश्किलें बढ़ सकती है. क्या इसका 2024 के लोकसभा चुनाव पर भी असर पड़ेगा. इस पर भी अब बहस तेज़ हो गई है कि विपक्ष की धुरी बनने के नजरिए से कर्नाटक की सत्ता मिलने से कांग्रेस की दावेदारी को और मजबूती मिली है.


कांग्रेस को रिवाइवल के लिए करनी होगी मेहनत


कर्नाटक चुनाव पर सर्वे जिस तरह से हुए, आश्चर्य का विषय तो यह था कि अगर सर्वे ठीक ढंग से हुए थे तो कांग्रेस की सीटें 125 से 135 तक घोषित होनी थी. अब नतीजे जो भी सर्वे वालों ने निकाले, अगर सही ढंग से सारा काम हुआ तो उसको डायल्यूट करने का काम क्यों किया गया, यह समझ के बाहर है. यह तो एथिकली भी गलत था और यह डेमोक्रेसी को गुमराह करने जैसा हुआ. कांग्रेस की भारी जीत तो राइटिंग ऑन द वॉल की तरह लिखी हुई थी. कांग्रेस के पक्ष में तीन मुद्दों ने बड़ा असर किया...बजरंग बली, बुर्का और नंदिनी डेयरी के मुकाबले अमूल का विमर्श. वहां की जनता ने इन तीनों चीजों को नकारा, जिस पर साल भर से राजनीति हो रही थी. जनता ने कहा कि वह किसी का व्यक्तिगत मसला हो सकता है, होगा, लेकिन चुनाव का मुद्दा नहीं था.


वैसे कांग्रेस का रिवाइवल तो 'भारत जोड़ो यात्रा' और अब कर्नाटक के चुनाव-परिणाम से शुरू हो चुका है. कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के लिए यह खुशी की बात है. अब कांग्रेस को भी एक बात समझनी होगी. अब तक वो लोग कहते आए थे कि ईवीएम की वजह से ये लोग जीतते आए हैं. अब कांग्रेस एक स्टैंड ले. ईवीम सही है या गलत है, यह वह घोषित करे. दोनों चीजें नहीं चलेंगी. वह या तो ईवीएम की बात करे या फिर कहे कि अगला चुनाव बैलेट पेपर पर ही होगा. कांग्रेस के साथ बीजेपी का नेतृत्व और कार्यकर्ता भी यह सोच रहा है कि क्या आगे यह सारी चीजें ऐसी ही चलेंगी या कुछ मैनेज हो जाएगा?


कांग्रेस को सोचना होगा कि कर्नाटक की जीत को ही अगले राज्यों के चुनाव यानी छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्य प्रदेश आदि की भी गारंटी मान कर खुश हो ले या मेहनत और बढ़ाए. इतने ही चुनाव नहीं है, और भी कई राज्य हैं, फिर जाकर लोकसभा का चुनाव है. कांग्रेस अभी पंजाब के जालंधर में चुनाव हारी है, जो उसका गढ़ था. वहां AAP ने बीजेपी का वोट नहीं लिया है, कांग्रेस का वोट ही लिया है. कांग्रेस को मंथन करना चाहिए, करना होगा. आखिर, आप कर्नाटक में बढ़ रहे हैं, तो वहां क्यों हार रहे हैं? 


मिली-जुली सरकारें भी होती हैं मजबूत


कांग्रेस को अभी बहुत सूझबूझ से काम करना होगा. भारत की चुनावी प्रक्रिया कहीं यह नहीं कहती कि आप पीएम कैंडिडेट घोषित कर ही चुनाव लड़ें. हम यह देख भी चुके हैं. 1996, 1998 और 1999 में. हमने यह भी देखा है कि 1996 से 2004 की जो भी सरकारें रहीं, उन्हें भले ही कमजोर कहा गया, मिली-जुली सरकार कह उतनी तवज्जो नहीं दी गयी, लेकिन इन सरकारों ने बहुत ठीक काम किया. चाहे वो यूनाइटेड फ्रंट की गुजराल वाली ही सरकार क्यों न हो? 1998 में वाजपेयी सरकार ने जो पोखरण विस्फोट किया, उसका ग्राउंड वर्क उसी सरकार ने किया था. उनको बेटन नरसिम्हा राव सरकार ने दिया था, सारी तैयारियां मुकम्मल करके. दो मिली-जुली सरकारों ने ये काम मिलकर किया और ये कहना गलत है कि इस तरह की सरकारें कमजोर होती हैं.


एक और बात जो गौर करने की है. 1996 से 2004 की सरकारों का, वह चाहे देवेगौड़ा की हो, गुजराल की हो या वाजपेयी की हो, ट्रांसपैरेसी में रिकॉर्ड अव्वल रहा है. सबको पता होता था कि निर्णय क्या होना है? दूसरी बात ये थी कि इन तीनों सरकारों के ऊपर भ्रष्टाचार के दाग नहीं लगे. वाजपेयी जी की सरकार के समय तो लोग इस बात पर हैरत में थे कि सारी चीजों के दाम खुद ब खुद नीचे क्यों जा रहे हैं? यह धारणा कि मिली-जुली सरकारें फैसले नहीं लेतीं, कमजोर होती है, ये बिला-वजह की धारणा है.


कांग्रेस को भी इसी बात को समझना पड़ेगा. कांग्रेस ने यूपीए का सफल प्रयोग किया है. हालांकि, कांग्रेस की समस्या ये है कि उनको अहंकार जल्दी आ जाता है. अगर उनको देश का नेतृत्व करना है तो अहंकार से नहीं होगा. सबको साथ लेकर चलना होगा. फिलहाल, नीतीश कुमार के लिए बात करना या सोचना बेमानी है. कांग्रेस को भी यह एहतियात रखनी चाहिए कि जब तक चुनाव के नतीजे न आ जाएं, तब तक पीएम के नाम पर बात नहीं होनी चाहिए. सबको साथ लेकर चलने के लिए, देशहित के लिए, उभर रहे कॉम्बिनेशन के लिए सबसे बेहतर नेता कौन होगा, कांग्रेस को यह सब कुछ सोचकर चलना होगा. अगर वह लंबी राजनीति करनी चाहती है तो, हां अगर एक चुनाव का सवाल है तो फिर वह कुछ भी कर सकती है.


कांग्रेस को करना होगा स्टेट यूनिट पर भरोसा


कांग्रेस वहां काम कर सकती है, जहां उनका स्टेट यूनिट अच्छा हो. कर्नाटक में उनको इसका लाभ मिला. छत्तीसगढ़ में वह इसका लाभ उठा सकती है. मध्यप्रदेश में टक्कर काफी जबरदस्त होगी, तो कांग्रेस वहां कहां है, यह देखना पड़ेगा. महाराष्ट्र में उसके पास एक गठबंधन है, कांग्रेस उसके साथ कैसे आगे चलती है, यह देखने की बात होगी. राजस्थान की समस्याएं दूसरी तरह की हैं. उसको वह कैसे सुलझाती है, यह देखने की बात है. अभी विपक्ष की सारी राजनीति का दारोमदार कांग्रेस पर है. कांग्रेस अब बीजेपी को दोष देकर बच नहीं सकती. हां, इसमें एक बात और है. कर्नाटक में अब भी कांग्रेस की फूट या समस्या देखने वाले लोग बस कन्स्पिरसी थीअरिस्ट ही हैं. वह कांग्रेस ने तय कर लिया है और वैसे ही होगा.


राजस्थान का जहां तक सवाल है, सचिन पायलट बेसब्र और अतिउत्साही हो गए हैं. वह अब राजेश पायलट तो नहीं हो जाएंगे. अशोक गहलोत वहां बहुत संभलकर और अपना हाथ-मुंह रोककर गंभीरता से काम कर रहे हैं, जल्दी रिएक्ट नहीं कर रहे हैं. सचिन पायलट के सामने रास्ता है कि वह या तो कांग्रेस से अलग हो जाएं या रास्ता सुधार लें. हरेक पार्टी में मतभेद होते हैं, लेकिन अभी जो रास्ता उन्होंने अपनाया है, वह गलत है, भले ही वह किसी भी पार्टी में रहते.


कांग्रेस के लिए एक बात गौर करने की है कि वह कई राज्यों में बिल्कुल गायब है. उत्तर प्रदेश में नहीं है, तो उत्तराखंड में भी नहीं है. थोड़ा-बहुत जो भी कर ले. बिहार में थोड़ा बहुत है. कांग्रेस को हर राज्य को मजबूत करना होगा. पश्चिम बंगाल और ओडिशा उसे किस तरह की राजनीति करनी चाहिए, ये सोचना होगा. इन सारी चीजों को सोचकर जब वह इंटिग्रेटेड पॉलिसी बनाएंगे और सारे सहयोगियों को जगह देंगे, तभी वह कुछ अच्छा कर पाएंगे. उनको छोटे-छोटे मुद्दे उठाने होंगे, जो जनता को छुए. जैसे, कर्नाटक में नंदिनी अगर 39 रुपए का दूध बेच सकती है, तो बाकी जगह 54 का दूध क्यों बिकता है, उसी तरह पश्चिमी यूपी में 10 साल पुराने ट्रैक्टर को, वाहन को कभी भी कोई पुलिस वाला उठा ले जा सकता है. ये सभी कांग्रेस के लिए अवसर है और उसे इसका लाभ उठाना चाहिए.


(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)