कहते हैं कि धर्म को राजनीति से अलग रखा जाना चाहिये लेकिन राजनीति में धर्म का क्या महत्व है और वे कैसे इसे प्रभावित करता है, इसकी ताज़ा मिसाल कर्नाटक है. जहां लिंगायत या वोक्कालिगा समुदाय को नाराज़ करके कोई भी पार्टी ज्यादा दिनों तक सत्ता में नहीं रह पाती. सोमवार को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने वाले येदियुरप्पा लिंगायत समुदाय से ही संबंध रखते हैं, इसलिए देखना होगा कि बीजेपी उनका उत्तराधिकारी किसी लिंगायत को ही बनाती है या फिर इस समुदाय को नाराज़ करने की जोखिम लेती है.


साल 1956 में भाषाई आधार पर बने कर्नाटक राज्य की राजनीति पर इन दोनों ही समुदाय का वर्चस्व रहा है जो आज भी बरकारर है.आबादी के लिहाज से लिंगायत 17% और वोक्कालिगा 15% हैं लेकिन वे सरकार बनाने या फिर उसे गिराने की भी ताकत रखते हैं. लिंगायत तटीय इलाकों को छोड़कर राज्यभर में फैले हैं और विधानसभा की 224 सीटों में से तकरीबन सौ सीटों पर इनका प्रभाव है, इसलिये कोई भी राजनीतिक दल इनकी नाराज़गी मोल लेने से अक्सर बचता ही रह है.जबकि वोक्कालिगा दक्षिणी कर्नाटक में डॉमिनेट करते हैं.


दरअसल लिंगायत को कर्नाटक की अगड़ी जातियों में गिना जाता है.बात 12वीं सदी की है जब समाज सुधारक संत बासव ने हिंदू जाति व्यवस्था के खिलाफ आंदोलन छेड़ा और लिंगायत संप्रदाय की स्थापना की. दक्षिण भारत में बासव को भगवान बासवेश्वरा भी कहा जाता है. बासव मानते थे कि समाज में लोगों को उनके जन्म के आधार पर नहीं बल्कि काम के आधार पर वर्गीकृत किया जाना चाहिए. बासव वेदों और मूर्तिपूजा के भी खिलाफ थे.


आम मान्यता ये है कि बासव के विचारों को मानने वालों को ही लिंगायत और वीरशैव कहा जाता है. हालांकि, लिंगायत खुद को वीरशैव से अलग बताते हैं. उनका कहना है कि वीरशैव बासव से भी पहले से हैं. वीरशैव शिव को मानते हैं, जबकि लिंगायत शिव को नहीं मानते हैं. लिंगायत अपने शरीर पर गेंदनुमा आकार का एक इष्टलिंग बांधते हैं. उनका मानना है कि इससे मन की चेतना जाग्रत होती है.


लिंगायतों से वीरशैव के विरोधाभास की एक वजह यह भी है कि बासव हिंदू धर्म की जिस जाति व्यवस्था के खिलाफ थे, वही व्यवस्था लिंगायत समाज में पैदा हो गई. लिंगायत संप्रदाय में पुरोहित वर्ग की स्थिति वैसी ही हो गई जैसी बासव के समय ब्राह्मणों की थी. सामाजिक रूप से लिंगायतों को उत्तरी कर्नाटक की प्रभावशाली जातियों में गिना जाता है.


पूरे प्रदेश में  पांच सौ से भी अधिक मठ हैं जिनमें से अधिकांश लिंगायत मठ हैं,जबकि दूसरे नंबर पर वोक्कालिगा समुदाय के मठ हैं.हर चुनाव के वक़्त इन मठों का प्रभाव बढ़ जाता है. राज्य में लिंगायत मठ बहुत शक्तिशाली हैं और सीधे राजनीति में शामिल हैं.


साल 2018 में हुए विधानसभा चुनावों से ऐन पहले कांग्रेस की सिद्धारमैया सरकार ने एक बड़ा सियासी दांव खेलते हुए लिंगायत को अलग धर्म का दर्जा देने का अहम फैसला किया था.तब राज्य सरकार के इस फैसले को मास्टर स्ट्रोक की तरह देखा गया था.


कर्नाटक की राजनीति में लिंगायत संप्रदाय का प्रभाव काफी पहले से रहा है. अस्सी के दशक की शुरुआत में लिंगायतों ने जनता दल के नेता रामकृष्ण हेगड़े को अपना हितैषी माना और उन्हें अपना समर्थन दिया. हालांकि, जल्दी ही ये भरोसा टूट गया और अगले इलेक्शन में लिंगायत कांग्रेस नेता वीरेंद्र पाटिल की ओर झुक गए.


1990 के दशक तक लिंगायत बड़े पैमाने पर राज्य में कांग्रेस पार्टी को सत्ता में लाने के लिए मतदान कर रहे थे.उस समय वीरेंद्र पाटिल द्वारा जुटाए गए लिंगायत वोटों के कारण कर्नाटक में कांग्रेस विधानसभा की 224 सीटों में से 179 सीटों के सबसे बड़े बहुमत के साथ सरकार में थी.लेकिन राम जन्मभूमि मुद्दे पर आयोजित रथ यात्रा के कारण हुई सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं के बाद, पाटिल सरकार को तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राजीव गांधी ने बर्खास्त कर दिया था.


गांधी द्वारा पाटिल सरकार की बर्खास्तगी को देखने के बाद लिंगायत समुदाय ने 1994 में हुए अगले चुनावों में कांग्रेस के खिलाफ मतदान किया, जिसमें कांग्रेस सिफ 36 सीटों पर सिमट गई.अधिकांश वोट बीजेपी को गए.इससे राज्य की राजनीति में लिंगायत चेहरे के रूप में येदियुरप्पा का उदय हुआ और बीजेपी ने लिंगायत समुदाय में येदियुरप्पा के कद पर भरोसा करना शुरू कर दिया.


हालांकि भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण जब येदियुरप्पा को सीएम पद से हटाया गया था,तब भी लिंगायत बीजेपी से खासे नाराज हुए थे.लेकिन 2014 के लोकसभा चुनावों से पहले उनकी बीजेपी में वापसी हुई और लिंगायत वोटों के दम पर ही बीजेपी ने राज्य की 28 लोकसभा सीटों में से 17 पर जीत हासिल की.