BLOG: क्या करतारपुर गलियारा भारत-पाक दोस्ती का गलियारा भी बनेगा?
करतारपुर गलियारे की आधारशिला पाकिस्तान ने भी अपनी तरफ रख दी है. भारत ने अपनी तरफ के कॉरिडोर का शिलान्यास पाकिस्तान से दो दिन पहले ही कर दिया था. अब बड़ा सवाल ये है कि दो मुल्कों के बीच बनने वाला यह कॉरिडोर क्या दोनों मुल्कों के बीच दोस्ती का भी कॉरिडोर बन पाएगा. इसी पर पढ़ें विजयशंकर चतुर्वेदी का ये ब्लॉग.
पाकिस्तान की तरफ बहुप्रतीक्षित करतारपुर गलियारे की आधारशिला रखने के अवसर पर पाक प्रधानमंत्री इमरान खान के इस डायलॉग पर जोरदार तालियां बजनी चाहिए कि जब जर्मनी और फ्रांस एक ही यूनियन में साथ रह सकते हैं तो भारत और पाकिस्तान क्यों नहीं रह सकते? बता दें कि यह गलियारा पाकिस्तान के करतारपुर में रावी नदी के पार स्थित गुरुद्वारा दरबार साहिब को भारत के गुरदासपुर जिले के डेरा बाबा नानक गुरुद्वारा से सीधे जोड़ देगा. भारत सरकार की तरफ इस पवित्र मार्ग का शिलान्यास इस आयोजन के दो दिन पहले ही हो चुका था.
द्विराष्ट्र के सिद्धांत में योगदान देने वाली विचारधाराएं ईरान-ईराक की दुश्मनी का हवाला देते हुए यह तर्क दे सकती हैं कि कभी एक दूसरे के खून के प्यासे रहे जर्मनी और फ्रांस में से एक भी इस्लामिक देश नहीं हैं, इसलिए इमरान का डायलॉग एक खामखयाली के सिवा कुछ नहीं है. दरअसल 2016 के उरी हमले और उसके बाद हुई सर्जिकल स्ट्राइक के बाद भारत-पाक संबंध लगातार खराब होते चले गए. लेकिन इतना तो तय है कि पिछले दो सालों से दोनों देशों के रिश्तों पर जमी बर्फ पिघलाने की दिशा में इमरान खान ने बाजी मार ली है और भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के हालिया बयान सुनकर यही लगता है कि करतारपुर गलियारे को लेकर पाकिस्तान के कदम की सराहना करने के बावजूद हमारी केंद्र सरकार एक इंच भी आगे बढ़ने के मूड में नहीं है. माना कि पाक प्रायोजित आतंकवाद को निर्मूल किए बिना किसी सार्थक, व्यावहारिक और फैसलानुकूल बातचीत की उम्मीद नहीं की जा सकती. लेकिन आतंक की फैक्ट्रियां उजाड़ने पर पाक को मजबूर करने के लिए भी तो वार्ता की मेज पर बैठना ही होगा. इतना तो सभी जानते-समझते हैं कि परमाणु आयुध संपन्न पाक से युद्ध करके आप किसी मसले का हल नहीं निकाल सकते. दोस्त मुल्कों से दबाव डलवा कर पाक की दुम सीधी करने की रणनीति भी विफल हो चुकी है. ऐसे में आमने-सामने की बातचीत के सिवा रास्ता ही क्या है? उधर इमरान खान ने एक डायलॉग और मारा है कि अगर भारत एक कदम आगे बढ़ाएगा तो उनका देश दो कदम आगे आएगा.यहां मुद्दा पाक की नीयत और वादे निभाने को लेकर उपजे अविश्वास का है. भारत ने कश्मीर समस्या हल करने और आतंकवाद समाप्त करने के आश्वासनों पर भरोसा करके पाक के हाथों बार-बार धोखा ही खाया है. साल 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी और नवाज शरीफ ने नई दिल्ली और लाहौर के बीच एक दोस्ताना बस चलाई थी. ऐसा लगा कि सालों से घिरे दुश्मनी के बादल छंटने वाले हैं लेकिन तभी पीछे से पाकिस्तान ने करगिल में जंग के हालात बना दिए. रिश्ते सुधरना तो दूर, उल्टे दुश्मनी और गहरी होती चली गई. करतारपुर गलियारे से पहले भी इमरान खान ने सत्ता संभालने के तुरंत बाद भारत के पीएम नरेंद्र मोदी को चिट्ठी लिखकर बातचीत का रास्ता खोलने का आग्रह किया था. उसके बाद इमरान सरकार ने सार्क बैठक में शामिल होने के लिए पीएम मोदी को निमंत्रण भेजा. लेकिन इन तमाम पहलों के बीच पाकिस्तान का दुरंगापन रह-रह कर सामने आता रहा है.
इरादों पर शक इस कदर है कि इस पार लोग कह रहे हैं कि बीस सालों के बाद पाकिस्तान अगर बिना किसी ना-नुकुर के करतारपुर गलियारा बनाने को तैयार हो गया है तो यकीनन दाल में कुछ काला है. और उस पार चर्चा है कि भारत सरकार इतनी आसानी से अपनी तरफ शिलान्यास करने को कैसे राजी हो गई! बीजेपी सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने अपनी स्टाइल में नुक्ता निकालते हुए खबरदार किया है कि करतारपुर गलियारा एक खतरनाक कदम है, क्योंकि वहां महज पासपोर्ट दिखा देना ही काफी नहीं होगा. उन्होंने आशंका जताई है कि आतंकवादी इस गलियारे से सैर करते हुए भारत में घुस आएंगे और पासपोर्ट तो 250 रुपये में कोई भी दिल्ली के चांदनी चौक से खरीद सकता है!
यह सच है कि अविश्वास की गहरी खाई दोनों मुल्कों को परिणाममूलक कदम उठाने से रोक देती है. लेकिन इससे भी बड़ी समस्या है भारत में बीजेपी की राजनीति और पाकिस्तान में सेना के वर्चस्व का खाद-पानी. बीजेपी को पाकिस्तान विरोध से मेवा मिलता है और पाक सेना को भारत विरोधी माहौल गरमाए रखने से गिजा मिलती है. इधर बीजेपी पर आरएसएस का एजेंडा ढोने की जिम्मेदारी है और उधर इमरान खान के गले में पाक सेना की चट्टान बंधी हुई है. इसीलिए दोनों पार की ऊपरी शक्तियों को कहना कुछ और करना कुछ और पड़ता है. यह समझना मुश्किल नहीं है कि करतारपुर गलियारा खोलने में पाक सेना प्रमुख बाजवा की केंद्रीय भूमिका रही और ‘आतंक और बातचीत साथ नहीं चल सकती’ पर रिकॉर्ड की सुई अटकाने में आरएसएस की कूटनीति का हाथ है.
कांग्रेस ने तो अपने लिए एक सुरक्षित गलियारा खोज ही लिया है. वह नवजोत सिंह सिद्धू को पाक पीएम के कसीदे पढ़ने के लिए निजी हैसियत से वहां जाने देती है लेकिन अपने मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह से पाकिस्तान के खिलाफ देशभक्ति के गीत गवाती है! इसमें दो राय नहीं है कि दोनों मुल्कों के बाशिंदों की खुली आवाजाही और आपसी मेलजोल से ही अपरिचय के विंध्याचल रास्ता देंगे और फर्जी दुश्मनी के नाम पर फलता-फूलता दोतरफा राजनीतिक कारोबार खत्म होगा. उम्मीद की जानी चाहिए कि वाहे गुरु के आशीर्वाद से करतारपुर गलियारा सरहद के आर-पार दोस्ती का गलियारा भी बनेगा.
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(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)