#ApologiseToLordAyappa के साथ भले ही केरल की मुसीबत का ठीकरा औरतों पर फोड़ दिया गया है लेकिन औरतें ही इस मुसीबत से सबसे ज्यादा प्रभावित हुई हैं. आप लोगों ने ट्विटर पर कह दिया कि भगवान केरल से नाराज हैं. औरतें कहीं सबरीमाला में ना घुस जाएं- इस आशंका से ही भगवान गुस्सा गए. कितनी शैतान हैं औरतें. अगर मान जातीं तो ये दिन न देखने पड़ते. देखो, अब औरतें ही इसमें सबसे ज्यादा परेशान हो रही हैं. केरल की त्रासदी के लिए कौन जिम्मेदार है- यह पता लग ही गया. हम लोग प्रकृति को कोस रहे थे. यह बात और कि मनुष्य से आक्रांत प्रकृति किसी को नहीं कोस सकती.
अब प्रकृति कुछ शांत हुई है. बाढ़ का पानी उतर रहा है. राहत को तेज, और तेज करने की जरूरत है. देश भर से मदद की जा रही है. राजनैतिक, भाषाई सीमाओं से परे होकर सहायता दी जा रही है. सरकार से लेकर नागरिक संगठन तक हाथ बढ़ा रहे हैं. कोई रुपए-पैसे दे रहा है, कोई खाना, दवाएं, कंबल, मच्छर भगाने की मशीनें दे रहा है. पर सबसे ज्यादा मांग की जा रही है सैनिटरी पैड्स की. जाहिर सी बात है, इस एक जरूरत के बारे में लोग भले ही बात न करना चाहें लेकिन बुरे हालात में इससे ज्यादा जरूरी और कुछ नहीं होता. कई साल पहले चेन्नई की बाढ़ में कुछ राहतकर्मियों ने सैनिटरी पैड्स की बजाय खाने के पैकेट्स लाने पर जोर दिया था. तब बहुत सी बाढ़ पीड़ित महिलाओं ने कहा था- महीने के कुछ खास दिनों में हमें खाने से ज्यादा शर्म छुपाने और साफ-सफाई रखने की जरूरत पड़ती है. पर आदमी ये नहीं समझ सकते.
नहीं समझते, इसीलिए घूम-फिर कर वहीं पहुंच जाते हैं. भगवान अयप्पा से माफी मांगने वाले लोगों में ऐसे लोग अलग नहीं जिन्होंने सैनिटरी पैड्स की मदद पर सवाल खड़े किए. बाढ़ के पानी ने सब कुछ धो दिया लेकिन मर्दपना नहीं धुला. किसी ने यह तक कह डाला कि सैनिटरी पैड्स की तरह क्या केरल में कंडोम की भी जरूरत है... इस निहायत बेतुके सवाल का क्या जवाब दिया जाए. बंदा मस्कट में बैठा तंज कस रहा था. जिस कंपनी ने काम पर रखा था, नौकरी से निकाल दिया. इतनी असंवदेनशीलता! छोड़ो... लेकिन मैन्स्ट्रुअल हाइजीन पर बातचीत करनी तो जरूरी है. साफ-सफाई के बिना सेहत कैसी और हमारी सेहत बिगड़ी तो दुनिया की सेहत बिगड़ जाएगी.
औरतें अपनी जरूरतों के बारे में नहीं बतातीं. ज्यादातर. मुसीबत आती है तो फैमिली को मुसीबत से बचाने में लग जाती हैं. प्राकृतिक आपदा में भी यही किस्सा दोहराया जाता है. खान-पान, बीमारियों पर ध्यान दिया जाता है. लेकिन इस बात पर बात नहीं की जाती कि पीरियड्स हर महीने आएंगे. जैसा कि अमेरिकी ह्यूमन राइट्स एक्टिविस्ट डाना मारलोवे कहती हैं, पीरियड्स आपदाओं के लिए नहीं रुकते. आपदाओं में भी इसके बारे में हमें उसी तरह सोचना पड़ता है, जैसे पेट के लिए खाने के बारे में. तो, राहत शिविरों में खाना और दवाएं अगर फौरी जरूरतें हैं तो सैनिटरी पैड्स सेहत और हाइजीन के लिए जरूरी है. इसके साथ ही वेस्ट मैनेजमेंट की रणनीतियां भी बनाई जानी चाहिए क्योंकि इस्तेमाल किए हुए पैड्स का उचित तरीके से डिस्पोज़ल भी बहुत जरूरी है. नहीं तो आपदा से बचे, तो इन्फेक्शन और बीमारियों की बलि चढ़े.
डब्ल्यूएचओ की एक स्टडी जेंडर एंड हेल्थ इन डिज़ाज़्टर्स में कहा गया है, आपदाओं से ज्यादा आपदाओं के बाद के असर से औरतों को नुकसान होता है. चूंकि मैन्स्ट्रुएशन को लेकर सोशल टैबू महिलाओं और लड़कियों को साफ-सफाई की तरफ पूरा ध्यान देने से रोकते हैं. 1998 में बांग्लादेश में आई बाढ़ की स्टडी के दौरान डब्ल्यूएचओ ने पाया था कि वहां छोटी लड़कियों को यूटीआई इन्फेक्शन का सामना करना पड़ा था क्योंकि सैनिटरी क्लोथ को सुखाने के लिए उन्हें प्राइवेट जगह नहीं मिलती थी. फिर साफ पानी की भी कमी थी. गंदे कपड़ों का बार-बार इस्तेमाल और फिर बीमारियों का खतरा. इसी तरह 2008 में सिचुआन, चीन के भूकंप के बाद महिलाओं की रीप्रोडक्टिव हेल्थ पर स्टैटिसटीशियन एस ल्यू ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि इस आपदा के बाद मैन्स्ट्रुअल डिसऑर्डर के सबसे ज्यादा मामले सामने आए थे.
सैनिटरी पैड्स की जरूरत इसलिए है- केरल की बाढ़ के बाद भी. साथ ही उनके साफ-सुथरे निस्तारण की भी. यूं आपदा हो, न हो, उनके सही तरीके से डिस्पोज़ करने की जरूरत हमेशा है. इससे बड़ा वेस्ट और क्या होगा. मतलब पैड्स को सूखे हाथों से इस्तेमाल करें. फ्लश न करें. अखबार में लपेटकर कूड़ेदान में फेंके. डब्ल्यूएचओ को राहतकर्मियों को भी हिदायत देता है. सैनिटरी पैड्स जिस कूड़ेदान में फेंका जाता है, उसे रोजाना खाली करें. कहीं-कहीं कूड़े को जलाने की भी सलाह दी जाती है. या अस्पताल के वेस्ट के साथ उसे जलाया जा सकता है. एक मीटर गहरे गड्ढों में दबाया जा सकता है, या वहीं जलाया जा सकता है. पैड्स भी लोकल तरीकों से बने हों तो अच्छा. विदेशी कंपनियों की बजाय इनडीजीनियस तरीकों से बने.
औरतों की सेहत का ध्यान रखना जरूरी है. आपदा से पहले सचेत होने की तरह. बेंगलूर के एक एनजीओ सुखी भव ने पीरियड फेलोशिप शुरू की है. इसमें युवाओं को ट्रेन किया जाता है कि वे पीरियड्स पर नन्हीं बच्चियों को जानकारी दें. उन्हें बताए कि मैन्स्ट्रअल हेल्थ और हाइजीन की कितनी जरूरत है. यह आपदा से पहले की तैयारी है. सचेत होने की तैयारी. फिर हमारा काम क्या है... मदद देने के नाम पर सिर्फ पुराने कपड़े मत थमाएं. सैनिटरी पैड्स और साफ अंदरूनी कपड़े थमाएं. डिज़ाज़्टर रिकवरी में यह एक साइलेंट जरूरत है. बस, इस पर कान देने की जरूरत है.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)