आज केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के मामले में ऐतिहासिक फैसले की 50वीं वर्षगांठ है. आज ही के दिन यानी 24 अप्रैल को 1973 में सुप्रीम कोर्ट की 13 सदस्यीय खंडपीठ ने ऐतिहासिक फैसला दिया था. उसी फैसले में संविधान के बेसिक स्ट्रक्चर या 'मूल संरचना' को भी पारिभाषित किया गया था. हालांकि, केशवानंद भारती को इस मामले में राहत नहीं मिली थी, लेकिन लोकतंत्र के नजरिए से यह फैसला ऐतिहासिक है, क्योंकि इसी में पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी और न्यायिक हदों को भी व्याख्यायित किया गया था. 


'केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य' वाद की पृष्ठभूमि


पहली चीज तो यह है कि जो महत्वपूर्ण फैसला आज से 50 साल पहले 'केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य' मामले में सुप्रीम कोर्ट ने दिया, उसको हम तभी समझ सकते हैं, जब पहले उसकी पृष्ठभूमि समझ लें. हमारा संविधान 1950 में लागू हुआ और तब संसद और सुप्रीम कोर्ट के बीच में जो विभाजक रेखा थी, वह बहुत बारीक थी. पार्लियामेंट ने अपनी सुप्रीमैसी को लेकर तब कई प्रावधान किए. 1951 में अमेंडिंग पावर को उन्होंने संसद के संदर्भ में पारिभाषित किया. तब तय हुआ कि किसी भी कॉरपोरेट या निजी संपत्ति या ऐसी किसी प्रॉपर्टी को अगर सरकार अधिग्रहीत करती है, तो उस पर कोई प्रश्नचिह्न किसी अदालत में नहीं लगाया जा सकता. यह मामला सुप्रीम कोर्ट में गया और 'शंकरीप्रसाद बनाम भारत सरकार' मामले में यह तय हुआ कि संसदीय सुप्रीमैसी बनी रहेगी और अगर सरकार कॉरपोरेट, निजी या इसी तरह की संपत्ति में बदलाव या अधिग्रहण करती है तो उस पर कोई प्रश्नचिह्न नहीं लगेगा. इसी तरह का मामला 1964 में 'गोलकनाथ बनाम पंजाब सरकार' का मामला आया और 11 जजों की खंडपीठ ने तय किया कि हां, पार्लियामेंट की सर्वोच्चता इस मामले में है और उसकी अमेन्डिंग पावर को कहीं से चैलेंज नहीं किया जा सकता है. 


ये परिस्थितियां तब की हैं जब भारतीय लोकतंत्र अपनी जड़ें जमा रहा था. संविधान के कुछ प्रावधानों को संशोधित करने की संसद की शक्ति को लेकर बहस शुरू हो गई थी. संविधान के कुछ प्रावधानों को संशोधित करने की संसद की शक्ति को लेकर बहस शुरू हो गई थी. उसी दौरान यानी 1960 के दशक के अंतिम वर्षों में जब मिसेज गांधी सत्ता में थीं, तो संविधान में कई सारे (यानी, 24वां, 25वां, 26वां आदि) संशोधन किए गए. इसमें बैंको के राष्ट्रीयकरण से लेकर राजघरानों के प्रिवीपर्स तक पर फैसले लिए गए. उपर्लिखित  सभी संशोधनों और 'गोलकनाथ बनाम पंजाब सरकार' वाद में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को ही 'केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य' वाद में चुनौती दी गई. यह मामला इसलिए ऐतिहासिक बना, क्योंकि इसी में संसद और सुप्रीम कोर्ट के बीच अब तक जो खींचतान चली आ रही थी, उसमें विराम की स्थिति आई. 


केशवानंद भारती का मामला है ऐतिहासिक


यह मामला अगर सीधे शब्दों में कहें तो जो परिवर्तन किए गए, खासकर ये प्रिवीपर्स वाला और प्राइवेट प्रॉपर्टी वाला जो मामला था, उसमें इसका महत्व है. इस मामले में एडनीर मठ के प्रमुख स्वामी केशवानंद भारती द्वारा याचिका के माध्यम से केरल सरकार के दो राज्य भूमि सुधार कानूनों से राहत की मांग की गई थी. 1970 के दौर में केरल की तत्कालीन सरकार द्वारा भूमि सुधार कानून लाए गए, इन कानूनों के तहत राज्य सरकार ने ज़मींदारों और मठों के पास मौजूद भूमि का अधिग्रहण कर लिया. राज्य सरकार के इसी निर्णय को 'केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य' वाद में चुनौती दी गई थी. हाईकोर्ट ने जब केशवानंद भारती के खिलाफ फैसला दिया तो केशवानंद भारती ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पार्लियामेंट जो भी कानून बनाएगी, वह आर्टिकल 13 के तहत ही होगा. मिसेज गांधी ने जो कुछ आर्टिकल्स बाद में जोड़े थे, सुप्रीम कोर्ट ने उनको निरस्त (Abrogate) कर दिया. सर्वोच्च न्यायालय के कहने का मतलब यह था कि आर्टिकल 13 की जो पावर है- न्यायिक समीक्षा की, वह फंडामेंटल है. इसी कानून के तहत पहली बार विशद व्याख्या प्रस्तुत की गई. उसी व्याख्या में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संविधान का कुछ 'मौलिक ढांचा' या 'मूल संरचना' है, जिसमें परिवर्तन नहीं किया जा सकता है. 


पुराने अनुभवों के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने यह व्याख्या दी कि ठीक है, संसद के पास संशोधन का अधिकार है, लेकिन उसे भी इस बात का ध्यान रखना होगा कि वह संविधान की मूल संरचना में कोई संशोधन नहीं कर सकता. ध्यान देने की बात है कि यह जो परिवर्तन की बात है, उसे दो बातों का ख्याल रखना होगा. पहला तो यह कि अनुच्छेद 13 जिसमें न्यायिक समीक्षा की बात है, दूसरे जो 368 में जो अमेंडिंग पावर की बात दी गयी है, उसकी पूरी तरह व्याख्या की गई. इसी व्याख्या में यह भी बात आई कि कांस्टीट्यूशन सर्वोपरि है और मौलिक अधिकार एवं न्यायिक समीक्षा को संविधान की मूल संरचना में ही शामिल माना जाए. यह भी याद रखिए कि केशवानंद भारती की बेंच में 13 जज थे (सबसे बड़ी पीठों में एक) और इसका फैसला 7 विरुद्ध 6 से आया था. आज से 50 साल पहले 1973 में आज ही के दिन आए इस फैसले का महत्व इसीलिए ऐतिहासिक है. 


संविधान की 'मूल संरचना'


सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के मूल तत्व या ढांचे को सुप्रीम कोर्ट ने व्याख्यायित किया. जैसे, उन्होंने ले लिया- मौलिक अधिकार. इसको कुछ रेस्ट्रिक्शन्स के साथ उन्होंने पारिभाषित किया. न्यायिक समीक्षा को लिया और उसे भी पारिभाषित किया. पार्लियामेंट्री सिस्टम, कांस्टीट्यूशनल सुप्रीमैसी, लोकतांत्रिक ढांचा इत्यादि सभी संविधान की मूल संरचना के तहत आ गए. आजकल तो खैर इसका दायरा और भी व्यापक हो गया है. मौलिक अधिकारों में राइट टू लाइफ भी जुड़ा और यह सूची लगातार बढ़ रही है. यहां ध्यान देने की बात है कि कोर्ट ने संविधान की सर्वोच्चता की बात कही है, इसी व्याख्या में यह भी कहा गया कि परिवर्तन का अधिकार तो संसद के पास है, लेकिन मौलिक ढांचा जो है, वह अपरिवर्तनीय है. यानी, संसद को उसकी हदों में बांधा गया है. 


न्यायिक सक्रियता का जहां तक सवाल है, तो वह इस बात से आया है कि हमारी जो प्रशासनिक व्यवस्था है, वह कहीं न कहीं हमारे अधिकारों के प्रति उतनी सचेष्ट नहीं है, उनका रक्षण नहीं कर पा रही है तो जूडिशियरी उसी गैप को फिल करने का काम कर रही है. यहीं से वह बात शुरू हुई, जिसे आप आजकल न्यायिक सक्रियता का नाम देते हैं. जहां तक मुकदमों की लंबित संख्या है, उसके विभिन्न कारण हैं. उसमें केवल न्यायालयों को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते. 


जहां तक न्यायालय और संसद के बीच तलवारें तनी होने का सवाल है, तो यह कोई अच्छी स्थिति नहीं है. चाहे कॉलेजियम का मामला हो या गाहे-बगाहे संसद को सुप्रीम कोर्ट से मिली थपकी, स्थितियां आदर्श तो नहीं कही जा सकती. कॉलेजियम के जरिए जिस तरफ हम बढ़ रहे हैं, वह तो न्यायिक तौर पर निरंकुशता की स्थिति हो जाएगी. इस मामले में मुझे तो यही ठीक लगता है कि सरकार जो इस विषय में- कानूनी सुधारों के- कानून लाई थी, जिसमें एक कमिटी प्रस्तावित थी, वह व्यवस्था ज्यादा बेहतर है.