साल 1966 में जब बालासाहेब ठाकरे (Balasaheb Thackeray) ने शिवसेना का गठन किया तब शिवसेना कोई राजनीतिक पार्टी नहीं, सिर्फ एक संगठन ( Organisation) थी, जिसका logo हुआ करता था Roaring Tiger यानी दहाड़ता हुआ शेर. उस वक्त शिवसेना के हर दफ्तर पर इसी चिन्ह का इस्तेमाल होता था. आज शिवसेना में जिस धनुष और बाण के निशान को लेकर घमासान मचा हुआ है. इस चुनावी निशान से पहले शिवसेना शुरुआती दौर में रेलवे इंजन (Railway Engine), तलवार और ढाल और यहां तक कि साल 1984 में बीजेपी (BJP) के निशान पर भी लोकसभा चुनाव लड़ चुकी है. साल 1984-85 में शिवसेना को मुंबई के नगर निकाय चुनाव के लिए पहली बार धनुष और बाण का सिंबल मिला और शिवसेना कांग्रेस की मदद से सत्ता में आई.


साल 1989 में शिवसेना ने अपना माउथपीस सामना लॉन्च किया और इसी साल शिवसेना को धनुष और बाण हमेशा के लिए चिन्ह के तौर पर मिल गया. तब से लेकर अब तक शिवसेना इसी सिंबल पर चुनाव लड़ती आ रही है. ये कहानी हमने आपको इसलिए सुनाई, क्योंकि अब  Balasaheb Thackeray के बेटे उद्धव ठाकरे इस सिंबल को बचाने की जद्दो जहद कर रहे हैं, लेकिन क्या आपको पता है कि चुनाव आयोग कैसे इलेक्शन सिंबल देता है? और शिवसेना के केस में चुनाव आयोग किस तरह से ये फैसला लेगा कि शिवसेना का ऑफिशियल सिंबल एकनाथ शिंदे गुट को दिया जाए या फिर उद्धव ठाकरे गुट को? तो चलिए बताते हैं आपको आसान भाषा में.. 


सबसे पहले बात करते हैं चुनाव चिन्ह Allotment की. The Election Symbols (Reservation and Allotment) Order, 1968 Election Commission को Political Parties को चुनाव चिन्ह अलॉट करने की पावर देता है. जिसके तहत इलेक्शन कमीशन के पास 100 के करीब Free Symbol रहते हैं, जो किसी भी पार्टी को अलॉट नहीं किए गए होते. इन Symbols में किसी भी नए दल को चुनाव चिन्ह दिया जाता है, हालांकि कोई दल अगर अपना चुनाव चिन्ह खुद EC को देता है और अगर वो किसी भी पार्टी का चुनाव चिन्ह नहीं है तो वो सिंबल भी उस पार्टी को अलॉट किया जा सकता है.


यहां एक कैच है? Election Commission के मुताबिक जो National Political Parties हैं जैसे कि BJP, Congress, Trinamool Congress आदि. उनको अलॉट किया गया पार्टी सिंबल Reserved Category में आता है यानी वो सिंबल किसी और पार्टी को अलॉट नहीं किया जाता. इसके अलावा जो State Partie का  हैं, सिंबल दूसरे राज्य में किसी दूसरी पार्टी को दिया जा सकता है, जैसे कि महाराष्ट्र में शिवसेना और झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा दोनों का ही सिंबल सेम है. ये भी जान लीजिए कि चुनाव आयोग (ECI) ने Animal rights Activists के विरोध के बाद Animals की फोटो वाला चुनावी चिन्ह देना बंद कर दिया है, क्योंकि पहले पार्टियों को जिस जानवर का सिंबल दिया जाता था वो रैलियों में उन जानवरों की परेड करवाने लग जाती थीं जो गलत था.


अब आते हैं अपने अगले सवाल पर कि शिवसेना के सिंबल को लेकर मचे घमासान में चुनाव आयोग (Election Commission) के पास क्या पावर हैं.  The Election Symbols (Reservation and Allotment) Order, 1968 के पैरा 15 के मुताबिक, जब भी किसी पॉलिटिकल पार्टी में अपने सिंबल को लेकर तकरार होता है तो ECI पहले इस पूरे मामले की जांच करता है. इसके बाद Rule of Majority के आधार पर फैसला लिया जाता है, यानी किस दावेदार के पास चुने हुए प्रतिनिधि ज्यादा हैं. किसका संगठन के भीतर दबदबा है. सबसे पहले चुनाव आयोग देखता है कि किसके पास कितने सांसद और विधायकों का समर्थन और पार्टी में किस धड़े का दबदबा ज्यादा है. जिसके पास समर्थन ज्यादा होगा उसे इलेक्शन सिंबल अलॉट कर दिया जाता है.


अगर दोनों धड़ों के पास समर्थन एक जैसा है तो ऐसे में चुनाव आयोग सिंबल को सीज़ कर सकता है. विवाद जल्दी नहीं सुलझता है और ऐसे में चुनाव आ जाते तो चुनाव आयोग दोनों दलों को किसी और Temporary Symbols पर चुनाव लड़ने के लिए कह सकता है. अब अगला सवाल ये उठता है कि ऐसे विवाद में पार्टी की संपत्तियां किसको मिलेंगी? इसका जवाब सीधा है जिस गुट को चुनाव आयोग (ECI) पार्टी सिंबल देगा उसी के पास संपत्तियां भी जाएंगी. अब जाते-जाते शिवसेना विवाद का नंबर गेम भी जान लीजिए. शिंदे के पास फिलहाल शिवसेना के 55 विधायकों में से 40 का समर्थन है और रही बात सांसदों की तो 18 में से 12 सांसदों साथ में है. वहीं संगठन की बात करें तो नगर पालिकाओं के ज्यादातर कॉर्पोरेटर्स का समर्थन भी शिंदे गुट को मिला हुआ है. फिलहाल इलेक्शन कमीशन इस बात की जांच करेगा और चुनाव आयोग के फैसले के बाद ही ये पता चलेगा कि ऊंठ किस करवट बैठेगा? तो ये हैं शिवसेना के सिंबल और उसकी लड़ाई की पूरी कहानी.


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