भारत आज 1 अरब 20 करोड़ लोगों वाली और तीन खरब डॉलर की वैश्विक अर्थव्यवस्था है जिसमें सार्वजनिक और निजी कंपनियों की बड़ी भूमिका है. इस अर्थव्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए निवेश का अनुकूल आर्थिक-सामाजिक माहौल और आर्थिक वृद्धि के लिए सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के बीच संतुलन बनाए रखना किसी भी सरकार का बुनियादी दायित्व है. लेकिन आज समाज, प्रशासन और उद्योग जगत में आशंकाओं का माहौल व्याप्त है. सूरते हाल यह है कि पिछले 15 सालों में अर्थव्यवस्था की विकास दर सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई है, बेरोजगारी बढ़ने की दर बीते 45 सालों के सबसे ऊंचे स्तर पर है, आम नागरिक के खर्च करने और खरीदने की क्षमता 40 सालों में सबसे निचले स्तर पर आ गई है. खुदरा महंगाई दर लगातार बढ़ रही है. भारतीयों को अधिकाधिक नौकरियां और रोजगार देने वाले विनिर्माण, ऑटोमोबाइल, खनन और सर्विस सेक्टर लहूलुहान हो चुके हैं. रियल इस्टेट सेक्टर पहले ही वीरान पड़ा हुआ है. औद्योगिक उत्पादन में गिरावट बीते आठ सालों की सीमा तोड़ चुकी है. नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफिस (एनएसओ) के ताजा आंकड़ों के मुताबिक ग्रामीण अर्थव्यवस्था में मांग बीते 40 साल के न्यूनतम स्तर पर चली गई है. भारतीय अर्थव्यवस्था की चाल देखते हुए मूडीज जैसी अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियां भारत की विकास दर का अनुमान पहले ही घटा चुकी हैं.


इन पीएसयू का हो सकता है निजीकरण 


बैंकों के एनपीए से लेकर बिजली उत्पादन की वृद्धि दर तक हर मोर्चे से जुड़ा आंकड़ा चिंताजनक है. उससे भी चिंताजनक बात यह है कि कई महत्वपूर्ण आंकड़ों के पब्लिक डोमेन में आने पर पहरे लगा दिए गए हैं और प्रमुख सूचकांकों की वृद्धि दर या गिरावट मापने के पैमाने तक बदल दिए गए हैं. आरोप हैं कि भारत सरकार विकास दर और राजस्व घाटे का जो डेटा दिखाती है वह असली नहीं है. ऐसा आरोप मोदी सरकार के आर्थिक सलाहकार रहे अरविंद सुब्रमण्यम भी लगा चुके हैं. रसातल में जाती अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए बीएचईएल, बीपीसीएल, जीएआईएल, एचपीसीएल, आईओसी, एमटीएनएल, एनटीपीसी, ओएनजीसी और सेल जैसी नवरत्न कंपनियों को विनिवेशित कर देने का चौतरफा दबाव है. कभी इनमें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विशाल उद्यमों के रूप में उभरने की क्षमता थी. पिछले दशक में नवरत्न का दर्जा प्राप्त सार्वजनिक उपक्रमों की संख्या 23 तक पहुंच गई थी. लेकिन अब तो केंद्र सरकार भारत पेट्रोलियम कॉरपोरेशन, हिंदुस्‍तान पेट्रोलियम कॉरपोरेशन और एयर इंडिया का निजीकरण करने की तैयारी लगभग पूरी हो चुकी है.


विनिवेश प्रक्रिया निवेश से उल्टी होती है. यहां निजीकरण और विनिवेश के अंतर को भी समझना जरूरी है. निजीकरण में सरकार अपने 51 फीसदी से अधिक की हिस्सेदारी निजी क्षेत्र को बेच देती है जबकि विनिवेश की प्रक्रिया में वह अपना कुछ हिस्सा निकालती है लेकिन उसकी मिल्कियत बनी रहती है लेकिन अब ''रणनीतिक विनिवेश'' में मिल्कियत भी नहीं बचेगी. चालू वित्त वर्ष में विनिवेश के माध्यम से सरकार ने 1.05 लाख करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य रखा है. इतना ही नहीं, यह लक्ष्य हासिल करने के लिए सरकार अपनी बड़ी हिस्सेदारी के साथ-साथ प्रबंधन पर नियंत्रण भी पूरी तरह से छोड़ने को तैयार है. निजीकरण होने पर सरकार से कंपनी की मिल्कियत निजी हाथों में चली जाती है जिसके कारण कर्मचारियों की नौकरियों पर खतरा पैदा हो जाता है. टेकओवर के बाद निजी कंपनियों की दिलचस्पी कर्मचारियों के कल्याण में नहीं बल्कि केवल लाभ कमाने में होती है.


पीएसयू में सरकारी हिस्सेदारी 51 फीसदी से नीचे लाने की तैयारी


‘व्यापार करना सरकार का काम नहीं है’ वाली टैगलाइन की आड़ में मोदी सरकार सार्वजनिक कंपनियों का स्वास्थ्य सुधारने की बजाए उन्हें निजी हाथों में सौंपने को ही उनके उद्धार का एकमात्र उपाय समझ रही है. जल्द 12 सरकारी कंपनियों (पीएसयूज) में सरकारी हिस्सेदारी घटाने की योजना है. अभी एनटीपीसी में सरकार की हिस्सेदारी 56.41 फीसदी, पावर फाइनांस कॉरपोरेशन में 59.05 फीसदी, पावर ग्रिड कॉरपोरेशन में 55.37 फीसदी, गैस अथॉरिटी ऑफ इंडिया (गेल) में 52.64 फीसदी, बीपीसीएल में 53.29 फीसदी और इंडियन ऑयल में 52.18 फीसदी है. नेल्को, कॉनकोर, बीईएल औऱ एमओआईएल में भी सरकारी हिस्सेदारी 51 फीसदी से नीचे लाने की तैयारी है.


ऐसा भी नहीं कि अधिकांश पीएसयू घाटे में चल रहे हैं. निजी क्षेत्र की कंपनियां पहले ही इनके साथ प्रतिस्पर्धा में थीं, तो वे लगातार चालें चल रही थीं कि किसी प्रकार सरकारी कंपनियां बर्बाद हों और उनका एकछत्र राज कायम हो जाए. उन्होंने मंत्रालयों मे जासूसी कांड तक करवाए. डिपार्टमेंट ऑफ टेलीकम्युनिकेशंस (डीओटी) ने सार्वजनिक क्षेत्र की टेलीकॉम कंपनियों बीएसएनएल और एमटीएनएल की वित्तीय हालत सुधारने के लिए 74 हजार करोड़ रुपये के निवेश का प्रस्ताव दिया था, जिसे केंद्र सरकार ने ठुकरा दिया. अब वित्त मंत्रालय इन दोनों टेलीकॉम कंपनियों को बंद करने की सिफारिश कर चुका है. बीपीसीएल जैसी लाभ कमाने वाली और डिवीडेंड देने वाली कंपनी को बेच देने से भला सरकार को क्या लाभ होगा? सार्वजनिक उपक्रमों-कंटेनर कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (कॉनकॉर), नीपको और टीएचडीसी इंडिया में नियंत्रक हिस्सेदारी की बिक्री के संबंध में सलाहकारों को अनुबंधित करने के लिए बोलियां आमंत्रित की जा चुकी हैं.


5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनाना मोदी सरकार का लक्ष्य


हमारी सरकार देश की अर्थव्यवस्था को 5 खरब डॉलर तक पहुंचाने का लक्ष्य लेकर चल रही है. वास्तविकता यह है कि यह लक्ष्य पाने के लिए भारत को अगले 5 साल तक हर साल 9 प्रतिशत की दर से विकास करना होगा. इस दर से वित्तीय वर्ष 2021 में भारतीय अर्थव्यवस्था 3.3 खरब डॉलर, 2022 में 3.6 खरब डॉलर, 2023 में 4.1 खरब डॉलर, 2024 में 4.5 खरब डॉलर और 2025 में 5 खरब डॉलर की बन सकती है. इसके उलट सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वृद्धि दर लगातार गिरती जा रही है और यह फिलहाल 5 प्रतिशत पर है. तो क्या तमाम पीएसयूज का विनिवेश करके या उन्हें बेच कर यह लक्ष्य पाने की योजना है? यह सही है कि राजकोषीय घाटा पाटने और कल्याणकारी योजनाएं चलाने के लिए सरकार को अकूत धन की जरूरत होती है, लेकिन लाभ कमाने वाली पीएसयूज को निजी हाथों में बेचकर आप एक बार ही धन जुटा सकते हैं. यह कुछ-कुछ ऐसा ही है जैसे कोई अपना घर संभालने के लिए अपनी आमदनी बढ़ाने की जगह पुरखों की जमीन, घर के जेवर और बरतन बेच देता है. अगला घाटा पाटने के लिए सरकार के पास बेचने को क्या बचेगा?


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)


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