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BLOG: मोदी के खिलाफ ममता के गेम में छेद कहां है?

Opposition's Unity against PM Modi: राजनीति का खेल निराला है, कब बाजी पलट जाएगी कहना मुश्किल है, कब कौन फॉर्मूला हिट कर जाएगा इससे भी समझना आसान नही है. बंगाल में चुनाव जीतने के बाद ममता बनर्जी जोश में है, लेकिन चुनाव के पहले ये जोश नहीं था वरना महीने तक बिना पैर टूटे ही प्लास्टर लगाने की जरूरत नहीं पड़ती. बंगाल विधानसभा में भारी जीत के बाद ममता को लगता है कि इसी तरह लोकसभा चुनाव में मोदी को हराया जा सकता है और ममता की जीत से विपक्ष में भी जबर्दस्त उत्साह देखा जा रहा है.

ममता दिल्ली आयी हैं और ताबड़तोड़ बैठक कर रहीं हैं कि कैसे 2024 में मोदी को चारो खाने चित्त किया जाए, इसकी रणनीति बना रही हैं. लेकिन मोदी के खिलाफ लड़ने के लिए चेहरे से लेकर गठबंधन तक अंधेरा ही अंधेरा ही दिख रहा है. ममता ने कहा कि बीजेपी को हराने के लिए सबका साथ आना जरूरी है. मैं अकेले कुछ नहीं कर सकती हूं. मैं ज्योतिषी नहीं हूं, चेहरा थोपना नहीं चाहती हैं. अगर विपक्ष से कोई दूसरा चेहरा भी आता है तो मुझे दिक्कत नहीं है. मतलब मोदी को हराना विपक्ष का सपना है, लेकिन कोई ब्लूप्रिंट नहीं दिख रहा है. सवाल है कि अगर मगर की डगर पर चलकर क्या मोदी को शिकस्त देना इतना आसान है.

विपक्ष के पास मोदी के खिलाफ कौन चेहरा होगा?

लोकसभा हो या विधानसभा का चुनाव हो अब निर्णायक चेहरा अहम हो गया है. वैसे सिर्फ चेहरा ही नहीं बल्कि सरकार के कामकाज, मजबूत गठबंधन और संगठन भी महत्व रखता है. लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी के खिलाफ कोई चेहरा नहीं था जिसकी वजह से 2019 लोकसभा में बीजेपी की सीटें पिछली चुनाव की तुलना में 282 से 303 हो गई है जबकि विधानसभा चुनाव में जहां जहां मजबूत चेहरे थे वहां-वहां उन पार्टियों की जीत हुई है. चाहे वो दिल्ली हो, पश्चिम बंगाल हो या उड़ीसा हो, इन तीन राज्यों में बीजेपी ने अपने मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किये थे और ना ही बीजेपी के पास ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल और नवीन पटनायक की तुलना में कोई बड़ा चेहरा था. ऐसे भी राज्य हैं जहां चेहरा के साथ-साथ गठबंधन का भी असर हुआ है और सरकार के कामकाज का भी महत्व होता है.

झारखंड में मजबूत गठबंधन और बीजेपी के अलोकप्रिय मुख्यमंत्री रघुवर दास की वजह से हार हुई. मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में बीजेपी की हार इसीलिए हुई क्योंकि वहां 15 साल का शासनकाल था और कांग्रेस ने लुभावने वायदे किये थे. राजस्थान में बीजेपी के हाथ से सत्ता खिसक गई. गुजरात में मोदी की वजह से बीजेपी बाल-बाल बची. केरल, तमिलनाडु,तेलंगाना और आंध्र प्रदेश का अलग खेल है क्योंकि बीजेपी वहां पर खुद बहुत मजबूत नहीं है. वैसे विधानसभा चुनाव को लोकसभा और लोकसभा को विधानसभा चुनाव नतीजे से नहीं तौला जा सकता है. लोकसभा चुनाव के लिए मोदी जैसा चेहरा विपक्ष के पास नहीं है जो पूरे देश में मोदी को ललकार सके लेकिन विपक्षी एकजुटता हो गई तो हराना भी मुश्किल नहीं है.

 

विपक्ष में सिरफुटौव्ल है तो कैसे मोदी को हराएंगे?

ममता बनर्जी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और लेफ्ट पार्टी से कोई दोस्ती नहीं की. जब दिल्ली पहुंची तो मोदी को हराने की बात कर रहीं हैं और सोनिया गांधी समेत तमाम मोदी विरोधियों से मिलकर ताल ठोंक रही है. जब अपने ही राज्य में ममता का दोहरा चेहरा है तो अन्य राज्यों में ही ऐसी समस्या है. उत्तर प्रदेश में भले लोकसभा चुनाव में सपा और बीएसपी एक साथ लड़ी थी अब फिर दूरी बढ़ गई है. केरल में कांग्रेस और लेफ्ट एक साथ नहीं आ सकती है जबकि यही दोनों पार्टियां पश्चिम बंगाल में एक साथ हो गई थी. सवाल है कि क्या दिल्ली और पंजाब में आप और कांग्रेस एक साथ आ पाएगी? कर्नाटक में फिर से कांग्रेस और जेडीएस हाथ मिलाएगी?

विपक्ष के बारे में कहा जाता है कि गठबंधन करने में जितनी तेजी दिखाते हैं उतनी ही तेजी से टूटने भी लगते हैं. ममता बनर्जी का बंगाल में दबदबा है लेकिन पूरे देश में नहीं है. कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी है तो ममता को मोदी के खिलाफ कैसे चेहरा बनाया जा सकता है वही हाल शरद पवार का है. शऱद पवार भी प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब देख रहें है लेकिन शरद पवार को कांग्रेस क्यों पीएम का चेहरा बनाएगी. अब शिवसेना भी कह रही है उद्धव ठाकरे में भी देश के नेतृत्व संभावने में सक्षम है. विपक्ष के पास बहुत चेहरे हैं लेकिन राष्ट्रीय चेहरा कोई नहीं है जो पूरे देश में मोदी को चुनौती दे सके.

 

 क्या विपक्ष एक जुट हो जाए तो मोदी को हराना मुश्किल नहीं?

राजनीति को कोई एक फिट फॉर्मूला नहीं होता है कि वही हर बार चले. चेहरा महत्वपूर्ण होता है लेकिन इसके साथ तमाम फैक्टर भी उतने महत्वपूर्ण होते हैं और मौजूदा परिस्थिति के हिसाब से समीकरण बनते और बिगड़ते हैं. चेहरे के साथ गठबंधन, सरकार का काम और मुद्दे अहम होते हैं. 1977 में इंदिरा गांधी और 1989 में राजीव गांधी भी बड़े चेहरे थे लेकिन उनकी हार हुई. ये नहीं कहा जा सकता है अगर निर्णायक नेता हैं तो चुनाव नहीं हारेंगे. 1977 में निर्णायक नेता इंदिरा गांधी को जनता पार्टी ने हरा दिया, 1977 में इंदिरा गांधी के खिलाफ जयप्रकाश नारायण ने बिगुल बजाया था लेकिन इंदिरा गाधी के खिलाफ किसी को प्रधानमंत्री का चेहरा नहीं बनाया गया था. वहीं 1989 के चुनाव में राजीव गांधी के खिलाफ विश्वनाथ प्रताप सिंह ने उतर गये लेकिन अधिकारिक रूप से वीपी सिंह को भी प्रधानमंत्री का चेहरा नहीं बनाया गया था.

हालांकि उस दौर में चेहरे की राजनीति नहीं थी, अटल बिहारी वाजपेयी के दौरान चेहरे पर चुनाव लड़ना शुरू हुआ था. विपक्ष मोदी को हराने के लिए मैथमैटिक्स पर जोर दे रही है लेकिन विपक्षी पार्टियों में केमिस्ट्री की बेहद कमी है. विपक्ष फिलहाल एकजुटता की बात कर रही है चेहरे की बात नहीं कर रही है. चुनाव में कभी चेहरे पर लड़े जाते हैं तो कभी बिना चेहरे के भी लड़े जाते हैं. विपक्ष को डर है कि अगर पहले चेहरे को घोषित कर दिया जाता है तो मोदी को हराना तो दूर अपने ही खींचातानी शुरू हो जाएगी इसीलिए ममता भी विपक्षी एकजुटता की बात कर रही है चेहरे की नही.

सवाल ये है कि विपक्षी एकजुटता कैसे होगी, जबतक क्षेत्रीय पार्टियां मोदी विरोधी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों के बीच आपस में गठबंधन नहीं करेंगी. विपक्षी में दूसरी समस्या ये है कि राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टी में एक ही परिवार और एक ही नेता का दबदबा है और सरकार का कामकाज खराब होने लगे तो नेता को हटाना नामुमकिन है. लेकिन बीजेपी में ये समस्या नहीं है. बेहतर कामकाज के लिए बीजेपी ने तीन मुख्यमिंयों को बदल दिये हैं. विपक्ष तीन मुद्दे को लेकर कंफ्यूजड है, चेहरा, सरकार का चरित्र और राष्ट्रीय-क्षेत्रीय स्तर पर आपस में गठबंधन. अगर तीनों मुद्दें पर जबतक विपक्ष में स्पष्टता नहीं जाएगी तबतक मोदी को हराने के नाम पर अंधेरे में तीर मारने जैसा दिख रहा है.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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