जैसे-जैसे इस साल होने वाले लोक सभा चुनाव की तारीख़ नज़दीक आ रही है, केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख के लोगों का धैर्य भी जवाब देने लगा है. यही कारण है कि लद्दाख के लोगों का आंदोलन अब व्यापक रूप लेते जा रहा है. लद्दाख के अलग-अलग इलाकों में लगातार प्रदर्शन जारी है. इसी का भव्य स्वरूप पूरे देश ने तीन फरवरी को देखा, जब लेह में एक साथ 20 हज़ार से अधिक लोग प्रदर्शन करने के  लिए सड़क पर उतर आए. उसके बाद भी लद्दाख में प्रदर्शन का दौर थमा नहीं है.


लद्दाख के लोगों की मांगों पर विचार करने को लेकर केंद्र सरकार ने पिछले साल 30 नवंबर को एक उच्च स्तरीय समिति का पुनर्गठन किया था. गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय इस समिति के अध्यक्ष हैं. लद्दाख के लोगों की अगुवाई करने वाले संगठनों के साथ इस समिति की पहली बैठक पिछले साल 4 दिसंबर को हुई थी. दूसरी बैठक इस साल 19 फरवरी को होने वाली है. हालाँकि उससे पहले ही लद्दाख के लोगों के मन में यह डर बैठ गया है कि केंद्र सरकार उनकी मांगों को लेकर बहुत उत्सुक नहीं दिख रही है. तभी लद्दाख के लोगों ने 19 फरवरी के बाद आंदोलन को और तेज़ करने की चेतावनी दी है.


लद्दाख के लोगों की मांग को लेकर बे-रुख़ी का आरोप 


केंद्रीय गृह मंत्रालय की इस तरह की पहली समिति का गठन जनवरी, 2023 में किया गया था, जिसे लेह अपेक्स बॉडी (LAB) और कारगिल डेमोक्रिटिक अलायंस (KDA) ने ख़ारिज कर दिया था. हालाँकि पिछले साल 4 दिसंबर को पुनर्गठित समिति पहली बार लद्दाख के लिए संवैधानिक सुरक्षा उपाय से जुड़ी मांग की समीक्षा करने को लेकर सहमत हुई.


लद्दाख भारत के लिए सामरिक महत्व रखने वाला इलाका है. लद्दाख के लोगों का केंद्र सरकार के प्रति रोष महीने- दो महीने में पैदा नहीं हुआ है. जम्मू-कश्मीर से अलग होकर केंद्र शासित प्रदेश बने हुए लद्दाख को 4 साल से अधिक का समय हो गया है. इसके बावजूद लद्दाख के लोगों से किए गए वादों को पूरा करने में केंद्र सरकार की बे-रुख़ी से पूरा मसला गंभीर होता जा रहा है.



बिना विधान सभा वाला केंद्र शासित प्रदेश है लद्दाख


हम सब जानते हैं कि अगस्त, 2019 में संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू-कश्मीर को प्राप्त विशेष स्थिति को ख़त्म कर दिया जाता है. इसके बाद केंद्र सरकार जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को अलग-अलग केंद्र शासित प्रदेश बनाने का फ़ैसला करती है. इसके लिए संसद से जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 पारित किया जाता है.


इसके ज़रिए जम्मू और कश्मीर विधान सभा के साथ केंद्र शासित प्रदेश बनता है. साथ ही लद्दाख को भी अलग से केंद्र शासित प्रदेश बना दिया जाता है. हालाँकि जम्मू-कश्मीर की तरह लद्दाख के लिए विधान सभा की व्यवस्था नहीं की जाती है.


विधान सभा के बिना लद्दाख 31 अक्टूबर, 2019 को बतौर केंद्र शासित प्रदेश भारत के भौगोलिक और राजनीतिक नक़्शे पर आज जाता है. पुराने जम्मू-कश्मीर राज्य के कारगिल और लेह जिले को शामिल कर लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाया जाता है.


लद्दाख का प्रशासन सीधे केंद्र सरकार के अधीन


पूरे लद्दाख के लिए सिर्फ़ एक लोक सभा सीट है. विधान सभा नहीं होने के कारण राज्य सभा में लद्दाख के लिए कोई प्रतिनिधित्व नहीं रह जाता है. संविधान के अनुच्छेद 240 के अधीन राष्ट्रपति ही लद्दाख की शांति, प्रगति और सुशासन के लिए नियम (regulation) बना सकेगा. लद्दाख के लिए व्यावहारिक स्तर पर प्रशासनिक प्रमुख के तौर पर उपराज्यपाल या'नी लेफ्टिनेंट गवर्नर की व्यवस्था है. उपराज्यपाल की सहायता के लिए केंद्र सरकार सलाहकार नियुक्त करती है. इन सबका स्पष्ट मतलब है कि लद्दाख की प्रशासनिक व्यवस्था एक तरह से केंद्र सरकार के अधीन आ जाती है.


विधायी और प्रशासनिक स्तर पर स्वायत्तता की मांग


अलग केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद धीरे-धीरे यहाँ के लोगों को एहसास होने लगता है कि लद्दाख को विधायी और प्रशासनिक स्तर पर और स्वायत्तता मिलनी चाहिए. इसके बाद धीरे-धीरे यहाँ के लोग अपनी माँग सामने लाते हैं. लेह अपेक्स बॉडी (LAB) और कारगिल डेमोक्रेटिक अलायंस (KDA) लद्दाख के लोगों की मांग को आगे बढ़ाने वाला दो प्रमुख संगठन है. मुख्य तौर से यही दो संगठन जम्मू और कश्मीर से अलग होने के बाद लद्दाख के लोगों के लिए विशेष अधिकारों की मांग से जुड़े आंदोलन की अगुवाई कर रहे हैं.


फ़िलहाल लद्दाख के लोग जो आंदोलन कर रहे हैं, उसके तहत केंद्र सरकार से मुख्य तौर से चार मांग हैं....



  • लद्दाख के लिए राज्य का दर्जा बहाल किया जाए. या'नी केंद्र शासित प्रदेश की जगह विधानमंडल के साथ राज्य बनाया जाए.

  • लद्दाख को जनजातीय दर्जा (tribal status ) देते हुए इसे संविधान की छठी अनुसूची में शामिल किया जाए.

  • स्थानीय लोगों के लिए नौकरी में आरक्षण की व्यवस्था की जाए, और

  • लेह और कारगिल जिले के लिए अलग-अलग संसदीय क्षेत्र बनाया जाए, जो वर्तमान में एक ही लोक सभा सीट लद्दाख के हिस्से हैं.


लद्दाख में लगातार आंदोलन व्यापक हो रहा है


लद्दाख की इन मांगों के पक्ष में वहाँ के हर क्षेत्र के नामी-गिरामी लोग अब खुलकर सामने आ रहे हैं. ऐसे लोग सार्वजनिक मंचों से लेकर मीडिया के अलग-अलग प्लेटफॉर्म पर यह दावा कर रहे हैं कि बीजेपी की अगुवाई केंद्र सरकार के तमाम बड़े मंत्रियों ने अनुच्छेद 370 को हटाने के बाद लद्दाख को संविधान की छठी अनुसूची में शामिल करने का वादा किया था. लद्दाख से जुड़ी मांग को मुखरता से उठाने वाले लोगों में मैग्सेसे अवार्ड विनर, सामाजिक कार्यकर्ता और शिक्षा सुधारक सोनम वांगचुक भी शामिल हैं.


आंदोलन को हर वर्ग का मिल रहा है समर्थन


सोनम वांगचुक लद्दाख से लेकर दिल्ली आकर अलग-अलग मंचों से केंद्र सरकार के तमाम मंत्रियों और बीजेपी को पुराने वादे याद दिला रहे हैं. वांगचुक दावा कर रहे हैं कि 2019 के लोक सभा चुनाव के साथ ही 2020 के लेह हिल काउंसिल चुनाव के लिए बीजेपी के घोषणापत्र में वादा किया गया था कि लद्दाख के लिए संवैधानिक सुरक्षा उपाय किए जाएंगे. सोनम वांगचुक का कहना है कि बीजेपी के उन घोषणापत्रों में लद्दाख को छठी अनुसूची में शामिल करने करने की बात कही गयी थी. सोनम वांगचुक हर मंच से दोहरा रहे हैं कि अब केंद्र सरकार और बीजेपी अपने उन वादों पर चुप्पी साधे हुए है. उन्होंने इतना तक आरोप लगाया है कि अब लद्दाख में छठी अनुसूची की बात करने वालों को प्रताड़ना का भी सामना करना पड़ रहा है.


लद्दाख के लोग इस बार आर-पार के मूड में


अतीत में लद्दाख में बीजेपी के अध्यक्ष रह चुके चेरिंग दोरजे इस पूरी मुहिम में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं.  लेह अपेक्स बॉडी के सदस्य चेरिंग दोरजे ने कहा है कि जब तक मांग पूरी नहीं होती आंदोलन जारी रहेगा. उन्होंने जनजातीय दर्जा को यहाँ के लोगों की भावना बताते हुए 2020 में लद्दाख में बीजेपी के प्रमुख पद छोड़ दिया था.  उनका कहना है कि यहाँ जो भी कुछ हो रहा है, वो केंद्र सरकार के लिए स्पष्ट संदेश है कि उसे लद्दाख के लोगों की मांगें मान लेनी चाहिए.


तीन फरवरी को लेह और कारगिल दोनों ही जिलों के अलग-अलग हिस्सों में लद्दाख के लोग बड़े पैमाने पर सड़कों पर उतरे. लेह में तो 20 हज़ार से अधिक लोग प्रदर्शन में शामिल हुए. यह कितनी बड़ी तादाद है, इसका अंदाज़ा इस बात से लगा सकते हैं कि उस दिन लेह की एक चौथाई युवा आबादी प्रदर्शन में शामिल थी.


भविष्य में लद्दाख में स्थिति नहीं बिगड़नी चाहिए


लद्दाख के लोगों का जो रुख़ दिख रहा है, उससे स्पष्ट है कि अपनी मांगों के लिए वे अब रुकने वाले नहीं हैं. लोकतंत्र की बहाली और संविधान की छठी अनुसूची के तहत सुरक्षा उपाय को सुनिश्चित करने की मांग पर लद्दाख के लोग अडिग दिख रहे हैं. यही कारण है कि 19 फरवरी की बैठक के बाद अगर मोदी सरकार से कुछ ठोस हासिल नहीं होता है, तो यहाँ के संगठनों और उसे जुड़े प्रबुद्ध लोगों ने 21 दिनों का अनशन और उसके बाद आमरण अनशन करने तक की चेतावनी दी है. अनशन की चेतावनी देने वालों में पूर्व लोक सभा सांसद थुपस्तान छेवांग भी शामिल हैं. वे 2014 में बीजेपी उम्मीदवार के तौर पर लद्दाख सीट से जीतकर लोक सभा पहुँचे थे. सोनम वांगचुक ने भी कहा है कि अगर केंद्र सरकार ने इस दिशा में जल्द कोई फ़ैसला नहीं किया, तो लद्दाख में स्थिति बिगड़ भी सकती है.


स्थानीय लोगों और उनके निर्णय को मिले महत्व


दरअसल इन मांगों के माध्यम से लद्दाख के लोग कुछ गारंटी चाहते हैं. लद्दाख हिमालय क्षेत्र के अंतर्गत आने वाला संवेदनशील पहाड़ी इलाका है. खनन के जरिए बाहरी हस्तक्षेप बढ़ने का अंदेशा यहाँ के लोगों के लिए एक बड़ी चिंता की बात है. इन लोगों का मानना है कि खनन उद्योग में ऐसी लॉबी हैं जो लद्दाख को नष्ट करना चाहती हैं. लद्दाख के लोग चाहते हैं कि पहाड़ के साथ बाहरी लोगों खिलवाड़ नहीं कर पाएं.


इसके साथ ही यहाँ के विकास परियोजनाओं में स्थानीय लोगों के महत्व और निर्णय को प्रमुखता मिले, इसके लिए लद्दाख के लोग संविधान की छठी अनुसूची में शामिल करने की मांग को प्रमुखता से उभार रहे हैं. इनका मानना है कि छठी अनुसूची में शामिल होने से ऑटोनॉमस डिस्ट्रिक्ट काउंसिल के ज़रिए लद्दाख की भौगोलिक और सांस्कृतिक पहचान को बचाए रखने में मदद मिलेगी. विकास किस रूप में हो, कैसे हो..इन सबमें स्थानीय लोग की अनुमति का महत्व बढ़ेगा.


इसी तरह से लद्दाख के लोगों को लगता है कि बिना विधान सभा के उनके संवैधानिक और लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा संभव नहीं है. यहाँ के लोगों का मानना है कि उपराज्यपाल के ज़रिए लद्दाख पूरी तरह से केंद्र सरकार के रहम-ओ-करम पर आश्रित हो गया है और दिल्ली से जो भी फ़ैसला होता है, उससे मानने के लिए स्थानीय लोग विवश हो गए हैं. यहाँ के लोग कहने लगे हैं कि लद्दाख से किए गए वादे मोदी सरकार पूरा नहीं कर रही है.


छठी अनुसूची में शामिल करने पर है अधिक ज़ोर


पहले लद्दाख के लोग अपनी स्वायत्तता के लिए जम्मू-कश्मीर से अलग होना चाह रहे थे. जब 2019 में लद्दाख को जम्मू-कश्मीर से अलग कर केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया, तो, यहाँ के लोगों की कई दशक पुरानी मांग एक तरह से पूरी हुई.. उस वक़्त स्थानीय लोग ख़ुश थे. लेकिन धीरे-धीरे लोगों को समझ आने लगा कि उनके पहाड़ ..उद्योग और खनन जैसी गतिविधियों से.. जिस तरह से अनुच्छेद 370 के तहत संरक्षित थे, अब वैसी स्थिति नहीं रह गयी है. भविष्य में यह तभी हो सकता है, जब लद्दाख को संविधान की छठी अनुसूची में जगह मिल जाए.


राज्य का दर्जा बहाल से जुड़ी मांग व्यावहारिक नहीं


लद्दाख के लोगों की प्रमुख रूप से चार मांग हैं, उनमें भी सबसे ज़ियादा अहमियत छठी अनुसूची में शामिल करने वाली मांग है. पूर्ण राज्य बनाने और लद्दाख के लिए दो लोक सभा सीट की मांग पर फ़िलहाल शायद ही कोई फ़ैसला हो.


इसका कारण है. एक लंबे आंदोलन के बाद लद्दाख ..जम्मू-कश्मीर से अलग होकर केंद्र शासित प्रदेश बनता है. अभी जम्मू-कश्मीर को ही केंद्र शासित प्रदेश की जगह पर पूर्ण राज्य बनाने को लेकर केंद्र सरकार की ओर कोई पहल नहीं की गयी है. हालाँकि केंद्र सरकार के तमाम मंत्रियों की ओर से भविष्य में ऐसा करने का वादा बार-बार ज़रूर किया जा रहा है. लद्दाख को राज्य बनाने को लेकर मोदी सरकार या बीजेपी कभी भी मुखर नहीं रही है. ऐसे में लद्दाख को राज्य बनाने को लेकर निकट भविष्य में मोदी सरकार कोई फ़ैसला करेगी, इसकी संभावना कम ही है.


ऐसे भी लद्दाख की आबादी को देखते हुए पूर्ण राज्य बनाने से जुड़ी मांग को व्यावहारिक नहीं कहा जा सकता है. जनगणना 2011 के मुताबिक़ लद्दाख की आबादी क़रीब 2.75 लाख थी. वहीं अब लद्दाख की आबादी तीन लाख से कुछ अधिक होने का अनुमान है.


फ़िलहाल लद्दाख में लोक सभा सीट बढ़ाना संभव नहीं


लोक सभा सीट की संख्या लद्दाख के लिए एक से बढ़ाकर दो करना भी फ़िलहाल केंद्र सरकार के लिए संभव नहीं है. लोक सभा की सीट पूरे देश के फ़िलहाल निर्धारित है और इसकी संख्या में वर्ष 2026 तक कोई इज़ाफ़ा नहीं किया जा सकता है. 2026 में परिसीमन प्रक्रिया अगर शुरू हुई तो उसके बाद लोक सभा में सीटों की संख्या बढ़ सकती है. उस वक़्त लद्दाख के लिए सीट बढ़ने की संभावना ज़रूर रहेगी. ऐसे लद्दाख क्षेत्रफल के लिहाज़ से जितना बड़ा है, उसको देखते हुए एक लोक सभा सीट कम है, यह ज़रूर कहा जा सकता है.


रोज़गार में लद्दाख के लोगों को आरक्षण और लद्दाख को छठी अनुसूची में शामिल करने को लेकर केंद्र सरकार आने वाले दिनों में कोई बड़ा फ़ैसला कर सकती है. बीजेपी के मेनिफेस्टो का यह हिस्सा भी रहा है और अब एक बार फिर से आगामी आम चुनाव दहलीज़ पर है. जिस तरह का रोष लद्दाख के लोगों में दिख रहा है, उसको देखते हुए 19 फरवरी को गृह मंत्रालय की उच्च स्तरीय समिति इस दिशा में कोई ठोस पहल कर सकती है.


संविधान की छठी अनुसूची का है ख़ास महत्व


लद्दाख की मांग के बाद छठी अनुसूची सुर्ख़ियों में है. हमारे संविधान में वर्तमान में कुल 12 अनुसूची हैं. इनमें से छठी अनुसूची का संबंध असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिज़ोरम के जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन से है. छठी अनुसूची में शामिल होने से ख़ास इलाके को स्थानीय प्रशासन के लिहाज़ से ख़ास प्रकार का जनजातीय दर्जा मिल जाता है. वर्तमान में इन चारों राज्यों के दस जिले छठी अनुसूची का हिस्सा हैं. इन जिलों में से असम, मेघालय और मिज़ोरम में तीन-तीन और एक त्रिपुरा में है. इन जिलों को ख़ास तरह का विशेषाधिकार हासिल है. यह विशेष प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 244 और अनुच्छेद 275 के तहत किया गया है.


छठी अनुसूची का मकसद पूर्वोत्तर राज्यों के जनजातीय इलाकों को सीमित स्वायत्तता (limited autonomy) देना था. संविधान सभा ने बारदोलोई समिति की रिपोर्ट के आधार पर छठी अनुसूची को पूर्वोत्तर के आदिवासी क्षेत्रों को सीमित स्वायत्तता देने के लिहाज़ से तैयार किया था. इसके तहत जनजातीय क्षेत्रों को स्वायत्त जिलों के तौर पर गठित किया जाता है.


वहीं संविधान की पाँचवीं अनुसूची में तेलंगाना,आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखंड,  महाराष्ट्र, ओडिशा और राजस्थान के अनुसूचित और अनुसूचित जनजातीय क्षेत्रों के लिए अलग से प्रशासनिक व्यवस्था का प्रावधान किया गया है.


विधायी, प्रशासनिक और न्यायिक अधिकार में वृद्धि


विधान सभा के होने बावजूद छठी अनुसूची के तहत बने इन स्वायत्त जिलों को कुछ विशेषाधिकार हासिल होते हैं. इसके लिए स्वायत्त क्षेत्रीय परिषद और स्वायत्त जिला परिषदों (ADCs) का गठन किया जाता है. विधान सभा से इतर इन परिषदों के पास कई मामले में विधायी और कार्यकारी शक्तियाँ भी होती हैं. स्वायत्त जिला परिषदों के पास नागरिक और न्यायिक दोनों ही शक्तियाँ होती हैं.


छठी अनुसूची का हिस्सा बनने से उस क्षेत्र में विकास से जुड़ी परियोजनाओं में भी स्थानीय मूल के लोगों की सहमति-असहमति का महत्व बढ़ जाता है. लद्दाख के लोग यही सुनिश्चित करना चाह रहे हैं.  फ़िलहाल लेह और कारगिल के लिए अलग-अलग स्वायत्त पहाड़ी विकास परिषद (Autonomous Hill Development Council) हैं, लेकिन इन दोनों ही परिषदों को उस तरह से अधिकार और शक्तियाँ हासिल नहीं है, जैसा छठी अनुसूची में शामिल ऑटोनॉमस डिस्ट्रिक्ट काउंसिल के पास होता है.


लद्दाख है सामरिक तौर से बेहद महत्वपूर्ण


लद्दाख ऐसा केंद्र शासित प्रदेश है, जो सामरिक रूप से हमारे लिए बेहद संवेदनशील है. चीन की सीमा लद्दाख से लगती हैं. पड़ोसी देश पाकिस्तान की नज़र हमेशा ही लद्दाख को लेकर अच्छी नहीं रही है. लद्दाख के कई सीमावर्ती इलाकों में हमारा चीन के साथ लंबे समय से तनाव जारी है. गलवान घाटी यहीं पड़ता है. क़रीब ढाई दशक पहले पाकिस्तान के नापाक मंसूबों का नतीजा भी हम कारगिल युद्ध के तौर पर देख चुके हैं.


सामाजिक और सांस्कृतिक ताना-बाना अनोखा


सामरिक, भौगोलिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक लिहाज़ से भी लद्दाख के लोगों में केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ पनपते रोष को समझते हुए इसका निकट भविष्य में हल निकालने पर ज़ोर देने की ज़रूरत है. लद्दाख का सामाजिक और सांस्कृतिक ताना-बाना बेहद अनोखा है. इसके दो हिस्से हैं..कारगिल और लेह. फ़िलहाल लद्दाख में यह हीं दोनों जिले भी हैं.


धार्मिक आधार पर सह-अस्तित्व का उदाहरण


धार्मिक और सांस्कृतिक आधार पर सह-अस्तित्व का एक अनोखा उदाहरण लद्दाख है. लद्दाख को हम धार्मिक सहिष्णुता का मॉडल कह सकते हैं. पूरे लद्दाख में तक़रीबन 47 फ़ीसदी मुस्लिम हैं और क़रीब 40 फ़ीसदी बौद्ध हैं. यहाँ 12 फ़ीसदी के आस-पास हिन्दू हैं. इस तरह के धार्मिक और सामाजिक ताना-बाना में लद्दाख में कभी भी धार्मिक उन्माद का माहौल नहीं रहा है. देश के दूसरे हिस्सों में भले ही हिन्दू-मुस्लिम को लेकर हमेशा ही रस्साकशी का माहौल राजनीतिक तौर से दिखता हो, लेकिन इस मामले में लद्दाख अलग है.


लेह है बौद्ध बहुल, कारगिल है मुस्लिम बहुल


लद्दाख का लेह जिला बौद्ध बहुल है, जबकि कारगिल जिला मुस्लिम बहुल है. लेह में पड़ने वाले लद्दाख ऑटोनॉमस हिल डेवलेपमेंट काउंसिल में बीजेपी बहुमत में है. लेकिन, कारगिल के ऐसे ही काउंसिल में बीजेपी की हालत बेहद दयनीय है. 2019 के लोक सभा चुनाव में लद्दाख लोक सभा सीट पर बीजेपी के जमयांग सेरिंग नामग्याल को जीत मिली थी.


आंदोलन में लद्दाखी पहचान पर है अधिक ज़ोर


लद्दाख में जो आंदोलन चल रहा है, वो लेह इलाके में तो पूरे ज़ोरो पर है ही, कारगिल के इलाकों में भी आंदोलन का प्रसार पिछले कुछ महीनों में तेज़ी से देखा गया है. पूरे आंदोलन में मुस्लिम और बौद्ध दोनों एकजुट दिख रहे हैं. दोनों ही समुदाय के लोग एकजुट होकर ज़ियादा राजनीतिक प्रतिनिधित्व, राज्य का दर्जा और शासन में अधिक स्वायत्तता की मांग कर रहे हैं.


अलग-अलग धर्म से होने के बावजूद लद्दाख में मुस्लिम और बौद्ध के लोगों में सामाजिक और भाषायी समानता काफ़ी है. यहाँ के अधिकांश स्थानीय लोग धर्म की बजाए लद्दाखी पहचान को अधिक महत्व देते हैं. यही कारण है कि मोदी सरकार पर दबाव बनाने के लिए लद्दाख के हर इलाके में आंदोलन का प्रासर देखा जा रहा है. सामरिक महत्व को देखते हुए यह बेहद ज़रूरी है कि लद्दाख के सामाजिक और धार्मिक ताना-बाना पर बाहरी कारकों का प्रभाव कम पड़े.


लद्दाख को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर विचार-विमर्श


लद्दाख में आंदोलन के तेज़ होने का एक और असर हुआ है. ऐसे तो लद्दाख में क्या चल रहा है, वहाँ के स्थानीय लोगों की क्या मंशा है, जम्मू-कश्मीर से अलग होने के बाद उनकी सोच प्रशासन और व्यवस्था को लेकर क्या रही है..इन सबके बारे में देश के बाक़ी हिस्सों के लोगों को कम ही जानकारी मिल पाती थी. मीडिया की मुख्यधारा में आम तौर से लद्दाख से जुड़ी उन्हीं ख़बरों को जगह मिल पाती थी, जिनमें लद्दाख में विकास को लेकर केंद्र सरकार की पहल से संबंधित कोई बात होती थी. इस आंदोलन के तहत व्यापक प्रदर्शन से पिछले चार साल में शायद यह पहला मौक़ा है, जब लद्दाख के लोगों की इन मांगों पर व्यापक विचार-विमर्श राष्ट्रीय स्तर पर देश के आम लोगों के बीच होता दिख रहा है. एक तरह से यह भी लद्दाख के लोगों के लिए सकारात्मक पक्ष ही है. हालाँकि इसमें सबसे बड़ी भूमिका सोशल मीडिया के अलग-अलग मंचों की रही है.


नरेंद्र मोदी सरकार के रुख़ पर टिकी है नज़र


आम चुनाव, 2024 को देखते हुए निकट भविष्य में मोदी सरकार कोई फै़सला कर सकती है. इस तरह की भी संभावना है कि लद्दाख में जिलों की संख्या बढ़ा दी जाए. लेह जिले में पड़ने वाले नुब्रा और कारगिल जिले में पड़ने वाले ज़ंस्कार को नया जिला बनाने को लेकर भी केंद्र सरकार फ़ैसला कर सकती है. इतना तय है कि हाल-फ़िलहाल में लद्दाख के लोगों ने आंदोलन को तेज़ कर जिस तरह का दबाव दिल्ली पर बनाया है, उसके मद्द-ए-नज़र मोदी सरकार के लिए अब छठी अनुसूची से जुड़े वादे पर चुप्पी बनाए रखना आसान नहीं होगा. अब देखना यह है कि भविष्य में लद्दाख के लोगों की 'रेवा' पर मोदी सरकार कितना खरा उतरती है. लद्दाख की स्थानीय भाषा में 'रेवा' का मतलब अपेक्षा होता है.


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