पिछले कई महीनों से लद्दाख के लोग अपनी नाज़ुक संस्कृति और अपने पर्यावरण को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं. जम्मू-कश्मीर से अलग होकर बने केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख में स्थानीय लोग अपनी मांगों को लेकर लेह से लेकर कारगिल तक आंदोलनरत हैं. अलग-अलग इलाकों में अनशन का दौर भी जारी है.


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार से लद्दाख के लोगों की कई मांगें हैं. इनमें मूल रूप से दो प्रमुख मांग है. पहली मांग लद्दाख को स्टेटहुड या'नी राज्य का दर्जा देने की है. वहीं दूसरी प्रमुख मांग संविधान की छठी अनुसूची में शामिल करते हुए लद्दाख को जनजातीय दर्जा देने की है.


छठी अनुसूची में शामिल करने की मांग


इनके अलावा लेह और कारगिल के लिए अलग-अलग संसदीय क्षेत्र या'नी लोक सभा सीट बनाने की है. वर्तमान में लद्दाख के लिए एक ही लोक सभा सीट है, जिसके दायरे में लेह और कारगिल दोनों जिला आता है. लद्दाख के लोग नौकरी में स्थानीय लोगों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की भी मांग कर रहे हैं. इसके तहत अलग से लोक सेवा आयोग (PSC) बनाने की भी मांग है.


इन सबमें सबसे अधिक ज़ोर संविधान की छठी अनुसूची में शामिल करने पर है. ऐसा भी नहीं है कि छठी अनुसूची को लेकर लद्दाख के लोगों की मांग नयी है. यह वही मांग है, जिसे पूरा करने का वादा भारतीय जनता पार्टी पिछले पाँच साल से करती आ रही है. बीजेपी के 2019 के लोक सभा चुनाव से संबंधित घोषणापत्र में यह वादा शामिल था. आम चुनाव, 2019 के साथ ही 2020 में हुए लेह हिल काउंसिल चुनाव के दौरान भी बीजेपी ने लद्दाख को छठी अनुसूची में शामिल करने का वादा किया था. उस वक़्त बीजेपी के घोषणापत्र में इस वादे को प्राथमिकता में रखा गया था.


मोदी सरकार अपने वादे से पीछे हट रही है


बीजेपी लद्दाख के लोगों से छठी अनुसूची का वादा कर 2019 का लोक सभा चुनाव जीत जाती है. उसी तरह से इसी वादे को आधार बनाकर अक्टूबर, 2020 में लेह जिले के काउंसिल के चुनाव में बीजेपी बहुमत हासिल करने में कामयाब हो जाती है. हालाँकि इस चुनाव के बाद छठी अनुसूची की मांग को लेकर केंद्र में विराजमान मोदी सरकार की ख़ामोशी से स्थानीय लोगों का धैर्य जवाब देने लगता है. अपनी मांगों को लेकर लद्दाख के लोग तक़रीबन एक साल से आंदोलन को तेज़ करने में जुटे हैं.



केंद्र सरकार के रवैये से नाराज़ स्थानीय लोग


केंद्र सरकार के सुस्त रवैये को देखते हुए इस वर्ष फरवरी से इनका आंदोलन व्यापक रूप ले लेता है. नवंबर, 2023 में केंद्र सरकार की ओर से नए सिरे से बातचीत की पहल होती है. केंद्र सरकार 30 नवंबर, 2023 को केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय की अध्यक्षता में उच्च स्तरीय समिति का पुनर्गठन करती है. लद्दाख के लोगों की मांग को आगे बढ़ाने वाले  संगठनों के साथ इस समिति की पहली बैठक 4 दिसंबर, 2023 को होती है. इस वर्ष 19 फरवरी से लेकर 4 मार्च तक लद्दाख से जुड़े संगठनों की इस समिति के साथ कई बैठक होती है.


लद्दाख के लोगों की मांग को आगे बढ़ाने में अपेक्स बॉडी, लेह (ABL) और कारगिल डेमोक्रेटिक अलायंस (KDA) की भूमिका सबसे अधिक है. इन दोनों के छह सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल की मुलाकात 4 मार्च को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से भी हुई थी. इस दौरान अमित शाह ने प्रतिनिधिमंडल को आश्वस्त किया था कि उच्च स्तरीय समिति लद्दाख को संवैधानिक सुरक्षा उपाय प्रदान करने के अलग-अलग पहलुओं पर विचार विमर्श कर रही है. उन्होंने यह भी भरोसा दिया था कि मोदी सरकार लद्दाख को ज़रूरी संवैधानिक सुरक्षा उपाय प्रदान करने के लिए कटिबद्ध है.


सोनम वांगचुक का 21 दिन का अनशन जारी


हालाँकि गृह मंत्रालय की ओर कोई ठोस आश्वासन नहीं मिलने से लद्दाख के लोगों को समझ आ गया कि मोदी सरकार छठी अनुसूची और राज्य का दर्जा देने की मांग पर फ़िलहाल  समिति के माध्यम से महज़ खानापूर्ति कर रही है. शुरू से ही लद्दाख की इस लड़ाई में मैग्सेसे अवार्ड विनर, इंजीनियर, सामाजिक कार्यकर्ता और शिक्षा सुधारक सोनम वांगचुक बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं.


लद्दाख के लोगों के साथ ही सोनम वांगचुक को भी भरोसा था कि मोदी सरकार अपने वादे को पूरा करेगी. हालाँकि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से चार मार्च की मुलाक़ात के बाद लद्दाख के लिए आंदोलन कर रहे संगठनों और सोनम वांगचुक को समझ आ गया कि अब आंदोलन को अगले दौर में ले जाने का वक़्त आ गया है. मोदी सरकार के आनाकानी वाले रवैये को देखते हुए सोनम वांगचुक लेह में 6 मार्च से 21 दिन का अनशन शुरू कर देते हैं. अभी भी उनका अनशन जारी है.


सोनम वांगचुक के साथ अनशन में साथ देने के लिए हर दिन लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है. लद्दाख के अलग-अलग इलाकों से भी धीरे-धीरे अनशन की ख़बर आ रही है. जानकार हैरानी होगी कि अनशन खुले आसमान में हो रहा है. रात में भी अनशन करने वाले लोग बाहर ही सो रहे हैं. लद्दाख में इस समय रात में तापमान शून्य से 10 डिग्री सेल्सियस नीचे तक पहुँच जा रहा है. इसके बावजूद अनशन करने वाले लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है. इससे पहले हमने देखा था कि इस वर्ष 3 फरवरी को लद्दाख के अलग-अलग इलाकों में व्यापक प्रदर्शन हुआ था. उस दिन राजधानी लेह की सड़कों पर एक साथ तीस हज़ार लोग उतर आए थे.


लद्दाख के लोग मोदी सरकार से पूछ रहे हैं...


लद्दाख के लोग मोदी सरकार से सिर्फ़ यही मांग कर रहे हैं कि वो अपने ही वादे को पूरा कर दे. सोनम वांगचुक भी बार-बार इस बात को दोहरा रहे हैं कि लद्दाख के लोग कोई नयी मांग नहीं कर रहे हैं. इसे पूरा करने का वादा बीजेपी अपने चुनावी घोषणापत्र में करती आयी है.


आम चुनाव, 2019 के चुनाव में लद्दाख संसदीय क्षेत्र के लिए अपने घोषणापत्र में बीजेपी ने कई वादे किए थे. पहले नंबर पर लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाने का वादा था. इसी घोषणापत्र में तीसरे नंबर पर लद्दाख को भारतीय संविधान की छठी अनुसूची में शामिल करने का वादा किया गया था. इस घोषणापत्र में बीजेपी ने लद्दाख में ज़ांस्कर, द्रास, नुब्रा, चांगथांग और शाम (Sham) को नये जिले बनाने का भी वादा किया गया था. नए जिले बनाने के वादे को भी अभी तक मोदी सरकार ने पूरा नहीं किया है.


केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख में दो ऑटोनॉमस हिल डेवलपमेंट काउंसिल है. एक काउंसिल लेह के लिए और एक कारगिल के लिए है. लद्दाख ऑटोनॉमस हिल डेवलपमेंट काउंसिल, लेह का चुनाव अक्टूबर 2020 में हुआ था. इस चुनाव के लिए बीजेपी ने 13 अक्टूबर, 2020 को लेह में घोषणापत्र जारी किया था.  इसे जारी करते समय बीजेपी लद्दाख के अध्यक्ष और सांसद जामयांग त्सेरिंग नामग्याल भी मौजूद थे. इस घोषणापत्र में लद्दाख को छठी अनुसूची में शामिल करने का वादा सबसे प्रमुख था.


पहले वोट के लिए वादा, अब वादाख़िलाफ़ी क्यों?


लद्दाख ऑटोनॉमस हिल डेवलपमेंट काउंसिल, लेह के चुनाव के समय भारतीय जनता पार्टी ने माना था कि लद्दाख की अद्वितीय भाषाई और जातीय पहचान के लिए यह ज़रूरी है. इसके मद्द-ए-नज़र ही बीजेपी ने भूमि, नौकरियों और पर्यावरण की रक्षा के लिए संविधान की छठी अनुसूची के तहत लद्दाख को संवैधानिक सुरक्षा उपायों से युक्त करने का वादा किया था. इसके साथ ही बीजेपी ने वादा किया था कि वह एलएएचडीसी और केंद्र शासित प्रशासन की कार्य संस्कृति में सुधार के लिए लद्दाख ऑटोनॉमस हिल डेवलपमेंट काउंसिल एक्ट में जल्द संशोधन के लिए काम करेगी. उस वक़्त कहा गया था कि पार्टी ने इस संबंध में क़ानून में संशोधन के लिए पहले ही ज्ञापन सौंप दिया है.


बीजेपी 2019 से लगातार कर रही है वादा


इसका साफ मतलब है कि बीजेपी स्थानीय लोगों से लद्दाख के लिए संवैधानिक सुरक्षा उपाय करने का वादा पिछले कई वर्ष से करती आ रही है और लद्दाख में चुनाव भी जीतते आ रही है. इस वादे की मदद से ही बीजेपी को 2019 में लद्दाख लोक सभा सीट पर जीत मिली थी. लोक सभा चुनाव, 2014 में भी यह सीट बीजेपी के खाते में गयी थी. उसके बाद अक्टूबर, 2020 में हुए लद्दाख ऑटोनोमस हिल डेवलपमेंट काउंसिल, लेह के चुनाव में भी बीजेपी को आसानी से बहुमत हासिल हुआ था. वहीं लद्दाख ऑटोनोमस हिल डेवलेपमेंट काउंसिल, कारगिल के लिए अक्टूबर, 2023 में हुए चुनाव में बीजेपी को बुरी तरह से हार का सामना करना पड़ा था. ऐसे भी बीजेपी का प्रभाव मुस्लिम बहुल जिला कारगिल की तुलना में बौद्ध बहुल जिला लेह में अधिक है.


बिना विधान सभा वाला केंद्र शासित प्रदेश


लोक सभा चुनाव, 2019 तक लद्दाख अलग केंद्र शासित प्रदेश नहीं बना था. मोदी सरकार अगस्त 2019 में जम्मू-कश्मीर से अलग कर लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाने का फ़ैसला करती है. अनुच्छेद 370 में जम्मू-कश्मीर के लिए विशेष स्थिति के प्रावधान को निरस्त करते हुए यह फ़ैसला लिया जाता है. साथ ही जम्मू और कश्मीर को भी पूर्ण राज्य से केंद्र शासित प्रदेश बना दिया जाता है. हालाँकि जम्मू-कश्मीर के लिए विधान सभा का प्रावधान किया जाता है, जबकि लद्दाख को बिना विधान सभा वाला केंद्र शासित प्रदेश बनाया जाता है. विधान सभा नहीं होने के कारण लद्दाख के लिए राज्य सभा में कोई सीट नहीं है.


मोदी सरकार क्यों नहीं मान रही है मांग?


लद्दाख के लिए प्रशासनिक प्रमुख के तौर पर उपराज्यपाल या'नी लेफ्टिनेंट गवर्नर हैं. उपराज्यपाल की सहायता के लिए केंद्र सरकार सलाहकार नियुक्त करती है. इस तरह से लद्दाख की प्रशासनिक व्यवस्था व्यावहारिक तौर से केंद्र सरकार के अधीन आ जाती है. लद्दाख बतौर केंद्र शासित प्रदेश 31 अक्टूबर, 2019 को भारत के भौगोलिक और राजनीतिक नक़्शे पर अलग अस्तित्व पा जाता है. अलग केंद्र शासित प्रदेश बने चार साल से अधिक समय बीत चुका है. 2019 के लोक सभा चुनाव के बाद अब 2024 का लोक सभा चुनाव दहलीज़ पर है. लेह काउंसिल के चुनाव को भी तक़रीबन साढ़े तीन साल होने जा रहा है. उसके बावजूद छठी अनुसूची से जुड़ी मांग पर मोदी सरकार एक क़दम भी आगे बढ़ती हुई नहीं दिख रही है.


लद्दाख से वादा किया था, इसमें संदेह नहीं


इसमें किसी तरह के शक-ओ-शुब्हा के लिए रत्ती-भर भी गुंजाइश नहीं है कि बीजेपी ने लद्दाख के लोगों से संविधान की छठी अनुसूची को लेकर वादा किया था. जब बीजेपी ने वादा किया था, तो, यह स्पष्ट है कि वादा को पूरा करने की ज़िम्मेदारी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार की है. मोदी सरकार का जिस तरह का रवैया है, उससे यह स्पष्ट है कि फ़िलहाल बीजेपी अपने वादे से पीछे हट रही है. लद्दाख के लोगों से किए गए वादे को पूरा नहीं करने की जवाबदेही भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ही बनती है.


लद्दाख की अलग सांस्कृतिक पहचान है. हिमालयी क्षेत्र में आने वाला लद्दाख पर्यावरण के नज़रिये से भी बेहद संवेदनशील है. चीन के साथ अंतरराष्ट्रीय सीमा की वज्ह से लद्दाख का भारत के लिए सामरिक महत्व भी काफ़ी है. इन सभी संदर्भ पर ग़ौर करने से लद्दाख के लोगों की मांग से जुड़े सभी पहलुओं को बेहतर तरीक़े से समझा जा सकता है.


लद्दाख की ख़ास संस्कृति, जनजातीय बहुल क्षेत्र


लद्दाख के लिए अलग से विधान सभा नहीं है. विधायी और प्रशासनिक लिहाज़ से लद्दाख में स्थानीय लोगों के पास फ़िलहाल देश के बाक़ी हिस्सों की तरह अधिकार और शक्तियाँ नहीं है. पूर्ण राज्य बनाना फ़िलहाल व्यावहारिक नहीं है, लेकिन लद्दाख को संविधान की छठी अनुसूची में शामिल करने से काफ़ी मदद मिलेगी. शक्तियों का लोकतांत्रिक हस्तांतरण सुनिश्चित हो पाएगा. सबसे महत्वपूर्ण है कि लद्दाख की अनोखी और विशिष्ट संस्कृति के संरक्षण और प्रोत्साहन में मदद मिलेगी. स्थानीय लोगों के भूमि अधिकार के साथ ही कृषि अधिकारों का संरक्षण हो पाएगा. छठी अनुसूची में होने से लद्दाख में तेज़ विकास के लिए धनराशि की उपलब्धता बढ़ेगी.


राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग की सिफ़ारिश


आपको जानकार हैरानी होगी कि मोदी सरकार के केंद्र शासित प्रदेश बनाने के फ़ैसले के कुछ दिनों बाद ही सितंबर 2019 में नंद कुमार साई की अध्यक्षता में राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग ने लद्दाख को छठी अनुसूची में शामिल करने की सिफ़ारिश केंद्र सरकार से की थी. इसके लिए आयोग ने केंद्रीय गृह मंत्रालय के साथ ही जनजातीय मंत्रालय को भी चिट्ठी लिखी थी.


इस आयोग का कहना था कि देश में लद्दाख पहले से ही जनजाति की अधिकता वाला क्षेत्र रहा है. आयोग के मुताबिक़ लद्दाख क्षेत्र में कुल जनजातीय जनसंख्या 97 फ़ीसदी से ज़ियादा है. लद्दाख में बाल्टी, बेडा, बॉट, बोटो, ब्रोकपा, ड्रोकपा, डार्ड, शिन,चांगपा, गर्रा, सोम, पुरीगपा जैसी अनुसूचित जनजातियाँ हैं. इलाकों के आधार पर देखें, तो अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या लेह में 66.8%, नुब्रा में 73.35%, खलस्ती में 97.05%, कारगिल में 83.49%, सांकू में 89.96% और ज़ांस्कर क्षेत्रों में 99.16 फ़ीसदी है. इन इलाकों में सुन्नी मुसलमानों समेत की ऐसे समुदाय हैं, जो अनुसूचित जनजाति के दर्जे के लिए दावा कर रहे हैं.


जनजातीय लोगों की आकांक्षाओं से है संबंध


संविधान की छठी अनुसूची में शामिल करने से जुड़ी मांग का सीधा संबंध लद्दाख क्षेत्र के जनजातीय लोगों की आकांक्षाओं से है. राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग का भी मानना था कि लद्दाख के केंद्र शासित प्रदेश बनने से पहले ही यहाँ के लोगों को कुछ अधिकार थे. इनमें भूमि का अधिकार शामिल था. इसके तहत देश के बाक़ी हिस्से के लोगों को लद्दाख में भूमि ख़रीदने या अधिग्रहण करने की इजाज़त नहीं थी. आयोग ने यह भी कहा था कि लद्दाख क्षेत्र में ड्रोकपा, बलती और चांगपा आदि जैसे समुदायों में कई विशिष्ट सांस्कृतिक विरासत मौजूद है और छठी अनुसूची में शामिल कर इन्हें संरक्षित करने और बढ़ावा देने की ज़रूरत है.


लद्दाख के मसले पर देशव्यापी चर्चा नहीं


सोशल मीडिया के अलग-अलग मंचों से देश के बाक़ी हिस्सों में लद्दाख के लोगों की आवाज़ धीरे-धीरे गूँज रही है. हालाँकि गंभीर और संवेदनशील मसला होने के बावजूद मीडिया की मुख्यधारा या कहें मेनस्ट्रीम मीडिया में लद्दाख के लोगों का आंदोलन पर्याप्त जगह पाने में नाकाम रहा है.


लद्दाख से जुड़ी मांग का सीधा संबंध स्थानीय लोगों के नागरिक, राजनीतिक और संवैधानिक अधिकारों से है. इसके बावजूद देशव्यापी स्तर पर लद्दाख के आंदोलन को लेकर मीडिया और राजनीतिक गलियारों में उस तरह की सुगबुगाहट नहीं दिख रही है, जितनी दिखनी चाहिए थी. इसके कारण देश के बाक़ी हिस्सों में आम लोगों के बीच भी लद्दाख से जुड़ी मांग को लेकर सामान्य समझ का विकास नहीं हो पा रहा है. ऐसा नहीं होने के कारण ही  इस आंदोलन को लेकर देशव्यापी चर्चा भी नहीं हो पा रही है.


मुख्यधारा की मीडिया और लद्दाख का विमर्श


भारत के अलग-अलग हिस्सों में लोक सभा चुनाव का शोर है. चुनावी हलचल, राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप, उम्मीदवारी के लिए एक दल से दूसरे दल में नेताओं की उछल-कूद, जीत-हार से संबंधित अनुमान और अटकलों के इर्द-गिर्द ही कमोबेश पूरा मीडिया विमर्श सिमट गया है. कम से कम मीडिया की मुख्यधारा को लेकर यह कहा जा सकता है. इस राजनीतिक आपा-धापी में नागरिक अधिकारों और नागरिकों की बुनियादी ज़रूरतों का मसला कहीं पीछे चला गया है. लद्दाख के मामले में भी यही हो रहा है.


अवैध प्रवासियों की चिंता, नागरिकों की नहीं!


सीएए या'नी नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 की मीडिया में ख़ूब चर्चा हो रही है. राजनीतिक गलियारों में भी यह मुद्दा हावी है. आगामी लोक सभा चुनाव में भी यह मुद्दा छाया रहेगा, इसकी भी पूरी संभावना है क्योंकि राजनीतिक और मीडिया विमर्श में इसे वोटों के ध्रुवीकरण का मसला बना दिया गया है. इसके विपरीत लद्दाख के लोगों की पीड़ा को दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में जगह नहीं मिल रही है. दिल्ली एनसीआर से संचालित मीडिया में भी महज़ खानापूर्ति कर ज़िम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लिया जा रहा है.


अजीब विडंबना और विरोधाभास देखने को मिल रहा है. लद्दाख देश के नागरिकों के अधिकारों से जुड़ा मुद्दा है. वहीं सीएए अवैध प्रवासियों को धार्मिक आधार पर नागरिक अधिकार देने से जुड़ा मसला है. जो पहले से देश के नागरिक हैं, उनके अधिकारों से जुड़े मसलों को पर्याप्त महत्व नहीं मिल रहा है. इसके विपरीत मोदी सरकार से लेकर तमाम राजनीतिक दलों और मीडिया का सारा ध्यान अवैध प्रवासियों के मसले पर केंद्रित है. देश के नागरिकों के अधिकार से जुड़े आंदोलन के लिए किसी के पास समय नहीं है.


लद्दाख पर विपक्षी दलों का रवैया भी चिंताजनक


लद्दाख के मसले पर मोदी सरकार अपने वादे से पीछे हट रही है. यह चिंतनीय पहलू है. इसके साथ ही लद्दाख के मुद्दे पर कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों का रवैया उससे भी अधिक चिंतनीय है. सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस भी इस मसले को प्रमुखता से नहीं उठा रही है. लद्दाख के लोगों की ओर से कई महीनों की गहमागहमी के बाद कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा को इस बारे में सोशल मीडिया पर लिखने की सुध आयी. सोशल मीडिया मंच 'X'(पहले ट्विटर) पर 13 मार्च को प्रियंका गांधी लिखती है कि बीजेपी सरकार की चुप्पी, वादाख़िलाफ़ी और धोखा से लद्दाख की जनता का विश्वास टूट रहा है. इसी पोस्ट में वे  सरकार से अपील करती हैं कि सरकार को हठधर्मिता छोड़कर लद्दाख की जनता की आवाज़ सुननी चाहिए.


इससे पहले राहुल गांधी ने अगस्त, 2023 में लद्दाख का दौरा किया था. उस वक्त़ उन्होंने कहा था कि लद्दाख में सारे फ़ैसले आम लोगों के बजाए नौकरशाह ले रहे हैं और नौकरशाही की मनमर्ज़ी से यहाँ के लोगों को मुक्ति मिलनी चाहिए. लद्दाख का मुद्दा जितना संवेदनशील और महत्वपूर्ण है, बतौर मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस को इसे मुखरता के साथ उठाने की ज़रूरत है. राहुल गांधी समेत कांग्रेस के तमाम वरिष्ठ नेता और साथ ही बाक़ी विपक्षी दलों के तमाम बड़े नेता ऐसा करते हैं, तो लद्दाख के लोगों की मांगों पर देशव्यापी चर्चा की संभावना को बल मिल सकता है. इससे मोदी सरकार पर अपने पुराने वादे को पूरा करने को लेकर दबाव बनाने में मदद मिलेगी.


'फ्रेंड्स ऑफ लद्दाख फ्रेंड्स ऑफ नेचर'


लद्दाख के लोगों की मांगों के समर्थन में 'फ्रेंड्स ऑफ लद्दाख फ्रेंड्स ऑफ नेचर' नाम से सोशल मीडिया पर अभियान चलाया जा रहा है. सोनम वांगचुक देशवासियों से बार-बार अपील कर रहे हैं कि इस अभियान के तहत लद्दाख के लोगों के समर्थन में देश के हर शहर में आम लोग 17 मार्च को एक दिन के लिए अनशन या प्रदर्शन करें. इस मुहिम के ज़रिये सोनम वांगचुक चाहते हैं कि देश के बाक़ी हिस्सों के लोग भी लद्दाख की समस्याओं के प्रति संवेदनशील और जागरूक हों.


पूर्ण राज्य का दर्जा और राजनीतिक इच्छाशक्ति


पूर्ण राज्य के मसले पर बात करें, तो, लद्दाख की जनसंख्या तीन लाख के आस-पास है. पूर्ण राज्य के दर्जा में कम जनसंख्या एक बड़ा रोड़ा है. हालाँकि सोनम वांगचुक का कहना है कि राजनीतिक इच्छाशक्ति हो तो कम जनसंख्या बाधा नहीं रह जाएगी. सोनम वांगचुक इसके लिए सिक्किम का उदाहरण देते हैं. वे कहते हैं कि 1975 जब सिक्किम भारत का पूर्ण राज्य बना, उस समय वहाँ की आबादी ढाई लाख से भी कम थी. क्षेत्रफल में भी लद्दाख सिक्किम से कई गुणा बड़ा है. जिस तरह से बीजेपी पिछले कई सालों से छठी अनुसूची के नाम पर लद्दाख के हज़ारों मतदाताओं का समर्थन हासिल करती आयी है, उसके मद्द-ए-नज़र अब यहाँ के लोग खु़द को ठगा हुआ सा महसूस कर रहे हैं.


कारगिल और लेह दोनों जिलों में आंदोलन


लद्दाख के इस आंदोलन की एक अनोखी ख़ासियत है. पुराने जम्मू-कश्मीर राज्य के कारगिल और लेह जिले को शामिल कर लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाया जाता है. लद्दाख में क़रीब 47% मुस्लिम और तक़रीबन 40% बौद्ध हैं. यहाँ हिन्दू आबादी 12% के आस-पास है. लद्दाख का लेह जिला बौद्ध बहुल है. कारगिल जिला मुस्लिम बहुल है. पहले कई मसलों पर इन जिलों के लोगों में धार्मिक आधार पर मतभेद का इतिहास रहा है. इस बार राज्य का दर्जा देने और छठी अनुसूची में शामिल करने की मांग से जुड़े आंदोलन को लेकर दोनों ही जिलों में हर समुदाय के लोगों में एकजुटता दिख रही है. हर समुदाय के लोग एकजुट होकर अधिक राजनीतिक प्रतिनिधित्व, राज्य का दर्जा और शासन में अधिक स्वायत्तता की मांग कर रहे हैं.


छठी अनुसूची से लद्दाख को क्या हासिल होगा?


भारतीय संविधान में कुल 12 अनुसूची है. इसमें छठी अनुसूची का संबंध असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिज़ोरम के जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन से है. छठी अनुसूची में शामिल होने से ख़ास इलाके को स्थानीय प्रशासन के नज़रिये से विशेष प्रकार का जनजातीय दर्जा मिल जाता है. फ़िलहाल इन चारों राज्यों के दस जिले छठी अनुसूची में शामिल हैं. इन जिलों में से असम, मेघालय और मिज़ोरम में तीन-तीन और एक त्रिपुरा में है. इन जिलों को विशेषाधिकार हासिल है. यह विशेष प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 244 और अनुच्छेद 275 के तहत किया गया है. लेह और कारगिल के लिए अलग-अलग स्वायत्त पहाड़ी विकास परिषद हैं, लेकिन इन दोनों ही परिषदों को उस तरह से शक्तियाँ प्राप्त नहीं है, जिस तरह से छठी अनुसूची में शामिल ऑटोनॉमस डिस्ट्रिक्ट काउंसिल के पास होता है.


निर्णयों में स्थानीय लोगों की सहभागिता बढ़ेगी


छठी अनुसूची में शामिल होने से स्थानीय विकास से जुड़ी परियोजनाओं पर फ़ैसले के साथ ही प्रशासनिक निर्णयों में भी लद्दाख के लोगों की सहभागिता बढ़ जाएगी. ऑटोनॉमस डिस्ट्रिक्ट काउंसिल के पास काफ़ी विधायी, प्रशासनिक और न्यायिक अधिकार भी होगा. भौगोलिक स्थिति को देखते हुए लद्दाख के लोगों के लिए पर्यावरण संरक्षण की चिंता काफ़ी महत्वपूर्ण है. बाहरी अतिक्रमण को लेकर स्थानीय लोग चिंतित हैं. क्षेत्र में विकास से जुड़ी परियोजनाओं में भी स्थानीय मूल के लोगों की असहमति का फ़िलहाल महत्व नहीं है. स्थानीय लोग इसे सुनिश्चित करना चाहते हैं.


सामरिक, भौगोलिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक लिहाज़ से लद्दाख की विशिष्टता बरक़रार रहे, यह पूरे देश के लिए महत्वपूर्ण है. इसके लिए शासन-प्रशासन के हर स्तर पर स्थानीय लोगों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिले. निर्णय प्रक्रियाओं में स्थानीय लोगों की सहभागिता बढ़ना चाहिए. लद्दाख के लोगों में केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ रोष को बढ़ावा नहीं मिलना चाहिए. लद्दाख का सामाजिक और सांस्कृतिक ताना-बाना बनाए रखने के लिए भी ज़रूरी है कि केंद्र सरकार इस दिशा में किसी प्रकार की कोताही नहीं बरते. इस नज़रिये से भी ठोस क़दम उठाते हुए मोदी सरकार को अपने पुराने वादों को पूरा करने की दिशा में ठोस पहल करनी चाहिए.


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