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अनशन के बाद भी लद्दाख की आवाज़ क्यों नहीं पहुँच रही है दिल्ली

पिछले कई महीनों से केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख में लोग आंदोलन कर रहे हैं. लद्दाख के दोनों जिलों लेह और कारगिल में लोग सड़कों पर उतर रहे हैं. लद्दाख को संविधान की छठी अनुसूची में शामिल करने और राज्य का दर्जा देने समेत की कई मांगों को लेकर स्थानीय लोग अनशन से लेकर प्रदर्शन करने में जुटे हैं. लद्दाख की संस्कृति और पर्यावरण को बचाने की इस लड़ाई में लोकतंत्र की बहाली का मुद्दा भी शामिल है. "सेव लद्दाख, सेव हिमालय, सेव ग्लेशियर" के तहत पूरा आंदोलन चल रहा है.

देश के जाने-माने चेहरे सोनम वांगचुक 21 दिन के अनशन पर हैं. सोनम वागंचुक का अनशन 6 मार्च को शुरू हुआ था. उन्होंने इस अनशन को "क्लाइमेट फास्ट" का नाम दिया है. मैग्सेसे अवार्ड विनर, पर्यावरणविद, शिक्षा सुधारक और सामाजिक कार्यकर्ता सोनम वांगचुक के साथ बड़ी संख्या में स्थानीय लोग भी अनशन में हिस्सा ले रहे हैं.

सोनम वांगचुक की सेहत पर पड़ रहा है असर

इतने लंबे अनशन से सोनम वांगचुक की सेहत लगातार बिगड़ रही है. सोनम वांगचुक सुबह-शाम एक वीडियो के माध्यम से आंदोलन से जुड़ी जानकारी सोशल मीडिया मंच 'एक्स' पर साझा करते हैं. लगातार अनशन से उनकी हालत कितनी बिगड़ गयी है कि यह उनके शरीर की स्थिति, उनकी आवाज़, चेहरे की भाव-भंगिमा से समझा जा सकता है. सोनम वांगचुक अपने वीडियो में बार-बार कह भी रहे हैं कि वे लगातार थका हुआ और ऊर्जा में कमी महसूस कर रहे हैं. अनशन शुरू हुए 23 मार्च को 18 दिन हो चुका है. ऐसे में सेहत पर असर पड़ना स्वाभाविक है.

खुले आसमान में माइनस 10 डिग्री में अनशन

लद्दाख में रात का तापमान शून्य डिग्री सेल्सियस से नीचे रहता है. न्यूनतम तापमान माइनस 10 डिग्री से लेकर 12 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच जा रहा है. सोनम वांगचुक ने 23 मार्च को सोशल मीडिया पर जो वीडियो साझा किया है, उसके मुताबिक़ सोनम वांगचुक के साथ दो हज़ार लोग क्लाइमेट अनशन पर हैं. इसके अलावा लद्दाख के अलग-अलग हिस्सों में भी लोग अनशन में हिस्सा ले रहे हैं. लद्दाख के सैकड़ों लोग 6 मार्च से समुद्र तल से 3,500 मीटर की ऊंचाई पर शून्य से नीचे तापमान में खुले आसमान में अनशन कर रहे हैं. इस परिस्थिति में अनशन करना आसान नहीं है.

लेह के साथ कारगिल में भी आंदोलन तेज़

लद्दाख में वर्तमान में दो जिले लेह और कारगिल हैं. मांगों को लेकर लेह से शुरू हुआ विरोध प्रदर्शन कारगिल में भी व्यापक रूप ले चुका है. कारगिल शहर में 20 मार्च को आधे दिन के बंद का आयोजन किया गया था. यहाँ सैकड़ों स्थानीय लोग सोनम वांगचुक के समर्थन में सामने आए. इस बंद का आह्वान कारगिल डेमोक्रेटिक अलायंस की ओर से किया गया था. केडीए कारगिल में  राजनीतिक-धार्मिक समूहों का एक समूह है. 

बीजेपी अपने वादे से पीछे क्यों हट रही है?

धीरे-धीरे लद्दाख के हर हिस्से में आंदोलन फैल रहा है. ऐसा नहीं है कि लद्दाख के लोग अचानक से आंदोलन और विरोध प्रदर्शन का रास्ता अपना रहे हैं. जम्मू-कश्मीर से अलग होकर बने केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख से भारतीय जनता पार्टी ने संविधान की छठी अनुसूची में शामिल करने का वादा किया था. बीजेपी ने वादा किया था. पिछले लोक सभा चुनाव में भी बीजेपी की घोषणापत्र में लद्दाख को संविधान की छठी सूची में शामिल करने का वादा किया गया था. उसके बाद अक्टूबर 2020 में हुए लद्दाख ऑटोनॉमस हिल डेवलपमेंट काउंसिल, लेह के चुनाव में भी बीजेपी ने इस वादा को अपने घोषणापत्र में शामिल किया था.

चार साल के लंबे इंतिज़ार के बाद आंदोलन

चार साल के लंबे इंतिज़ार के बाद भी लद्दाख के लोगों को उनकी मांग पर केंद्र सरकार से ठोस आश्वासन नहीं मिला. हालांकि,  बीजेपी 2019 में लद्दाख लोक सभा सीट पर जीत दर्ज करने में सफल रही थी. इसके साथ ही अक्टूबर 2020 में  हुए लेह के काउंसिल चुनाव में बीजेपी बहुमत हासिल करने में कामयाब हुई थी.

स्थानीय लोगों ने पहले केंद्र सरकार से बातचीत का रास्ता अपनाया. सरकार से ठोस पहल नहीं होने के बाद ही लद्दाख के लोगों ने विरोध प्रदर्शन और अनशन का फ़ैसला लिया. सोनम वांगचुक ने 6 मार्च से 21 दिनों का अनशन शुरू किया. उन्होंने उस दिन स्पष्ट कर दिया था कि सरकार लद्दाख के लोगों की मांग नहीं मानती है, तो यह 'क्लाइमेट फास्ट' आमरण अनशन में तब्दील हो जाएगा.

लद्दाख के सामरिक महत्व को समझने की दरकार

लद्दाख पर्यावरण के नज़रिये से भी और सामरिक नज़रिये से भी भारत के लिए काफ़ी महत्व रखता है. लद्दाख में भारत-चीन के बीच की सीमा पड़ती है. वर्षों से लद्दाख के कई इलाकों पर चीन की नज़र रही है. पिछले सात दशक में सीमा पर दोनों पक्षों के सैनिकों के बीच कई बार झड़प भी हुई है. चीनी घुसपैठ को रोकने की कोशिश में भारतीय सैनिकों की जान भी गयी है. पिछले एक दशक में चीनी अतिक्रमण की ख़बरें भी बार-बार आती रहती हैं.

हम जानते हैं कि भारत और चीन 3,488 किलोमीटर लंबी सीमा साझा करते हैं. भारत-चीन सीमा के लिए वास्तविक नियंत्रण लाइन (LAC) टर्म का इस्तेमाल करते हैं. भारत की चीन के साथ सीमा केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख के साथ ही हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम और अरुणालच प्रदेश से लगी है. भारत-चीन सीमा को तीन सेक्टर पश्चिम, मध्य या मिडिल और पूर्वी सेक्टर में बाँट सकते हैं. पश्चिमी सेक्टर लद्दाख का इलाक़ा है. इस इलाक़े में भारत का चीन के सात 1,597 किलोमीटर की सीमा लगती है. तीनों सेक्टर में से इसी सेक्टर में चीन के साथ सबसे अधिक सीमा है.

दुनिया की सबसे खू़बसूरत झीलों में से एक पैंगोंग झील लद्दाख में ही है. ये हिमालय क्षेत्र में क़रीब 14 हजार फीट से अधिक की ऊंचाई पर है. आपको जानकर हैरानी होगी कि लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल इस झील के बीच से गुजरती है. यह झील एक 135 किलोमीटर लंबी भूमि से घिरी है, जो 700 वर्ग किलोमीटर से अधिक के क्षेत्रफल में फैली है. इस झील का 45 किमी लंबा पश्चिमी हिसा भारतीय नियंत्रण में है. वहीं 90 किलोमीटर का हिस्सा चीन के नियंत्रण में है. पश्चिम सेक्टर में चीन सैनिकों की ओर से घुसपैठ की कोशिशों का एक तिहाई मामला पैंगोंग झील से लगे इलाक़ो में ही होता रहा है.

गलवान घाटी का इलाक़ा चीन के दक्षिणी शिनजियांग और भारत के लद्दाख तक फैला है. भारत-चीन के बीच 1962 के युद्ध में यही क्षेत्र प्रमुख केंद्र था. भारत और चीन के सैनिकों के बीच 15 जून 2020 को पूर्वी लद्दाख की इसी गलवान घाटी में हिंसक झड़प हुई थी. यह घटना पिछले 6 दशक में भारत-चीन के बीच सीमा पर सैन्य संघर्ष की सबसे बड़ी घटनाओं में से एक थी.

इन सभी सीमावर्ती इलाकों में शुरू से चीनी घुसपैठ की कोशिशों की जानकारी देने से लेकर हर तरह की हलचल पर नज़र रखने में लद्दाख के स्थानीय लोगों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. लद्दाखी लोकाचार में पैंगोंग झील का बहुत महत्व है. इस कारण से स्थानीय लोग ज़रूरत पड़ने पर चीनी सेना की घुसपैठ के प्रयासों के ख़िलाफ़ जवाबी कार्रवाई से भी पीछे नहीं हटते हैं.

हिमालयी क्षेत्र में पड़ने वाला संवेदनशील इलाक़ा

लद्दाख हिमालयी क्षेत्र में पड़ने वाले संवेदनशील इलाक़ों में एक है. कुछ इलाके़ तो इतने संवेदनशील हैं कि उन क्षेत्रों को लद्दाख के बाक़ी लोगों से भी बचाने की ज़रूरत है. आंदोलन से संबंधित पूरी मुहिम लद्दाख की भूमि, पर्यावरण और जनजातीय स्वदेशी संस्कृति को संरक्षित करने से जुड़ी है. सोनम वांगचुक भी बार-बार इस पहलू को दोहरा रहे हैं. उनका कहना है कि लद्दाख के खानाबदोश लोग दक्षिणी हिस्से में विशाल औद्योगिक संयंत्रों और उत्तर में चीनी अतिक्रमण के कारण अपनी प्रमुख चारागाह भूमि खो रहे हैं.

सामाजिक संरचना और सांस्कृतिक विशिष्टता

पूरे प्रकरण को लद्दाख की सामाजिक संरचना और सांस्कृतिक विशिष्टता के लिहाज़ से भी समझने की ज़रूरत है. लद्दाख के पास अनोखी संस्कृति है. लद्दाख जनजातीय बहुल क्षेत्र है. राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के मुताबिक़ लद्दाख की कुल आबादी में जनजातीय जनसंख्या 97% से अधिक है. क्षेत्रवार समझें, तो लेह में 66.8%, खलस्ती में 97.05%,  सांकू में 89.96%, कारगिल में 83.49%, नुब्रा में 73.35% और ज़ांस्कर क्षेत्रों में 99.16 % जनजातीय आबादी है. इन सभी क्षेत्रों में अभी सुन्नी मुसलमानों समेत कई समुदाय हैं, जो जनजाति दर्जा का दावा कर रहे हैं.

जनजातीय और सांस्कृतिक विशिष्टता को देखते हुए राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग सितंबर 2019 में ही केंद्र सरकार से लद्दाख को छठी अनुसूची में शामिल करने की सिफ़ारिश कर चुका था. उस वक़्त तक भारत के राजनीतिक नक़्शे पर लद्दाख अलग केंद्र शासित प्रदेश के तौर पर आया भी नहीं था. उस वक़्त नंद कुमार साय राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष थे.

स्थानीय ज़रूरतों के लिहाज़ से मांग पर हो मंथन

केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर से अलग लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाने का फ़ैसला अगस्त 2019 में किया था. उसके बाद आधिकारिक तौर से लद्दाख 31 अक्टूबर, 2019 को केंद्र शासित प्रदेश बन जाता है. जम्मू-कश्मीर से भी पूर्ण राज्य का दर्जा छीन लिया जाता है, लेकिन उसे विधान सभा के साथ केंद्र शासित प्रदेश बनाया जाता है. इसके विपरीत लद्दाख को बिना विधान सभा के केंद्र शासित प्रदेश बनाया जाता है. ऐसे में लद्दाख के लोगों के लिए लोकतांत्रिक ढाँचे के तहत अपने प्रदेश के लिए स्थानीय ज़रूरतों के लिहाज़ से क़ा'इदा-क़ानून बनाने का अधिकार नहीं रह जाता है. लद्दाख के लिए सारे फ़ैसले केंद्र सरकार लेने लगती है और लेफ्टिनेंट गवर्नर वहाँ के प्रशासन को संभालने लगते हैं.

छठी अनुसूची में से जुड़ी मांग पर है मुख्य ज़ोर

संविधान की छठी अनुसूची में शामिल करना ही लद्दाख के लोगों की प्रमुख मांग है. इसके अलावा पूर्ण राज्य का दर्जा, अलग से लोक सेवा आयोग का गठन और लद्दाख के लिए दो लोक सभा संसदीय क्षेत्र बनाना भी इनकी मांगों में शामिल है. फ़िलहाल केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख के लिए एक ही लोक सभा सीट 'लद्दाख' है. 
हालाँकि सोनम वांगचुक से लेकर तमाम सामाजिक-धार्मिक संगठनों का मुख्य ज़ोर छठी अनुसूची पर ही है. अगर केंद्र सरकार इस मांग को मान लेती है, तो पूरी संभावना है कि फ़िलहाल लद्दाख के लोग अपने आंदोलन को वापस ले ले.

संविधान की छठी अनुसूची में शामिल होने से विकास परियोजनाओं में बहुत हद तक स्थानीय लोगों को निर्णय लेने का अधिकार मिल जाएगा. इतना ज़रूर सुनिश्चित हो जाएगा कि इस तरह की परियोजनाओं में स्थानीय लोगों की सहमति के बिना आगे बढ़ना केंद्र सरकार के लिए आसान नहीं रह जाएगा. संविधान की छठी अनुसूची में शामिल होने से विकास प्रोजेक्ट के नाम पर लद्दाख को बाहरी भीड़ और हस्तक्षेप से बचाने में बहुत हद तक मदद मिल सकती है. यहाँ के पर्यावरण, ग्लेशियर, ख़ानाबदोश जनजातीय समुदायों के साथ ही विशिष्ट संस्कृति को बचाने के लिहाज़ से छठी अनुसूची से जुड़ी मांग बेहद प्रासंगिक है.

आगे लद्दाख में और व्यापक हो सकता है आंदोलन

अनशन के बाद अब लद्दाख के स्थानीय संगठनों ने आंदोलन को और तेज़ करने का फ़ैसला किया है. सोनम वांगचुक ने भी जानकारी दी है कि लद्दाख से लगभग दस हज़ार लोग चीन से लगी सीमा की ओर मार्च करेंगे. स्थानीय लोगो का यह प्रदर्शन पैंगोंग झील, डेमचोक, चुशुल के उत्तरी और दक्षिणी तटों पर निकाला जाएगा. पूरा इलाक़ा एलएसी के दाइरे में आता है. इस प्रदर्शन के लिए 27 मार्च और 7 अप्रैल की दो तारीख़ तय की गयी है. मुस्लिम बहुल कारगिल शहर में भी बड़े पैमाने पर लोग 24 मार्च से 27 मार्च के बीच अनशन करने वाले हैं.

वांगचुक प्रधानमंत्री मोदी से बार-बार कर रहे हैं अपील

बिगड़ी सेहत के बावजूद सोनम वांगचुक अनशन जारी रखने के अपने इरादे पर अटल दिख रहे हैं. सोनम वांगचुक का कहना है कि लद्दाख के पर्यावरण, ग्लेशियर और संस्कृति का संरक्षण बेहद ज़रूरी मसला है. यहाँ के लिए संवैधानिक सुरक्षा उपाय किए जाने चाहिए और यह सिर्फ़ लद्दाख को संविधान की छठी अनुसूची में शामिल करने से ही सुनिश्चित हो पाएगा. लद्दाख के लोगों के साथ अनुचित व्यवहार नहीं हो, पूरा मसला इससे जुड़ा हुआ है.

लद्दाख में आंदोलन का स्वरूप बड़ा हो रहा है. स्थानीय लोगों का केंद्र सरकार के प्रति रोष बढ़ रहा है. यह मसला लद्दाख के लोगों का भारत सरकार पर भरोसे से जुड़ चुका है. लद्दाख के लोगों के संवैधानिक अधिकारों से जुड़ा मसला बन चुका है. इस नज़रिये से पूरे प्रकरण पर मंथन की ज़रूरत है. सामरिक, पर्यावरण, स्थानीय लोगों के नागरिक अधिकार, भारत सरकार पर भरोसा समेत तमाम पहलुओं के मद्द-ए-नज़र प्रधानमंत्री मोदी को ख़ुद पहल करनी चाहिए.

बौद्ध बहुल लेह से लेकर मुस्लिम बहुल कारगिल दोनों ही जिलों में आंदोलन व्यापक होते जा रहा है. लद्दाख के लोगों में भारत सरकार को लेकर नाराज़गी बढ़ सकती है. यह परिस्थिति किसी भी तरह से लद्दाख की शांति-समृद्धि के साथ ही देश हित के लिए सही नहीं हो सकती है.

लद्दाख विपक्षी दलों को भी खुलकर देना चाहिए साथ

लद्दाख के मामले में सत्ताधारी दल बीजेपी के रवैये के साथ ही कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों की ख़ामोशी भी हैरान करने वाला है. कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व से लेकर बाक़ी विपक्षी दलों के बड़े-बड़े नेताओं की ओर से ऐसी कोई कोशिश नहीं दिख रही है, जिनसे कहा जाए कि विपक्षी दल इस मुद्दे पर संवेदनशील हैं. लद्दाख के लोग पिछले कई महीनों से आंदोलन की राह पर है. इस साल फरवरी से व्यापक स्तर पर विरोध प्रदर्शन का सिलसिला भी जारी है. 6 मार्च से अनशन का दौर भी चल रहा है. इसके बावजूद विपक्षी दलों के किसी भी बड़े नेता ने लद्दाख जाकर इस आंदोलन में शिरकत नहीं की है.

गाहे-ब-गाहे दिल्ली में बैठे-बैठे बयान या सोशल मीडिया पोस्ट से लद्दाख की मांग का समर्थन करते हुए कुछ विपक्षी नेता ज़रूर नज़र आए हैं. हालाँकि इसे महज़ खानापूर्ति की कहा जा सकता है. 

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ़ लेखक ही ज़िम्मेदार हैं.]

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