हमारी नई पीढ़ी को अब तक आधा-अधूरा ही इतिहास पढ़ाया गया है, जिसके आधार पर वो ये मानती आई है कि भारत को अंग्रेजों से आजादी दिलाने में सिर्फ महात्मा गांधी ही सर्वोपरि थे. लेकिन इसे सही इसलिये नहीं कह सकते है कि गांधी के मोर्चा संभालने से पहले ही बाल-लाल-पाल-की तिकड़ी ने विद्रोह का बिगुल बजाते हुए आजादी का बिगुल बजा दिया था. उनमें से ही एक थे, लाला लाजपत राय जिनकी आज 158 वीं जयंती है. उन्हें 'पंजाब केसरी' के नाम से भी जाना जाता है. इतिहास के तथ्यों पर आधार पर कह सकते हैं कि उस वक़्त अंग्रेजों की लाठियों ने लाला लाजपतराय को मारा न होता, तो भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव जैसे नौजवानों को शायद क्रांति का रास्ता अपनाने पर मजबूर न होना पड़ता.
लेकिन भारत को आजादी दिलाने वाले इन तीनों क्रांति के नायकों ने लाला लाजपत राय की शहादत को बेकार नहीं जाने दिया. उन्होंने लाजपतराय की मौत के महज डेढ़ महीने बाद यानी 17 दिसम्बर 1928 को ब्रिटिश पुलिस अफसर जेपी सांडर्स को गोली मारकर लालाजी की मौत का बदला ले लिया. इतिहास के तथ्यों के मुताबिक उससे पहले 30 अक्टूबर को लाहौर में ब्रिटिश हुकूमत के मनमाने फैसले के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन की अगुवाई कर रहे लाला लाजपत राय अंग्रेजों के आंख की सबसे बड़ी किरकिरी बन चुके थे और वे उन्हें निपटाने के तरीका ढूंढ रहे थे.
इसीलिये सांडर्स के आदेश से ही उस प्रदर्शन में शामिल लोगों पर लाठीचार्ज किया गया था, जिस कारण लाजपत राय की मृत्यु हुई. उसके बाद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को असेंबली यानी मौजूदा संसद भवन में बम फेंकने के आरोप में जेल भेज दिया गया. लेकिन देश को आजादी दिलाने के वे तीनों दीवाने न तो कायर थे और न ही कोई अपराधी. इसीलिये बम फेंकने के बाद वे असेंबली से भागे नहीं बल्कि वहीं मौजूद रहे, ताकि ब्रिटिश पुलिस उन्हें अपनी हिरासत में ले ले.
लेकिन साथ ही उन्होंने ये संदेश दिया था कि "बहरे कानों को सुनाने के लिए धमाका करना जरूरी था, इसलिए हमने ये किया क्योंकि हमारा मकसद किसी को चोट पहुंचाना नहीं था. " ऐसा ही हुआ भी क्योंकि उनके बम से किसी को चोट भी नहीं लगी थी. हालांकि उन तीनों पर सांडर्स की हत्या का आरोप भी लगाया गया. बताया जाता है कि सांडर्स हत्याकांड में उस वक़्त उर्दू में लिखी गई FIR में भगत सिंह नाम शामिल नहीं था, लेकिन इसके बावजूद उनके साथ सुखदेव और राजगुरु को भी 23 मार्च 1931 को फांसी दे दी गई.
दरअसल, साल 1928 में अंग्रेजों ने भारत में राजनीतिक स्थिति की रिपोर्ट तैयार करने के लिए साइमन कमीशन की स्थापना की थी, जिसमें किसी भी भारतीय को शामिल नहीं किया गया था. उसी दौरान लाजपत राय ने साइमन कमीशन के बहिष्कार के लिए विधानसभा में प्रस्ताव पेश करवाने के साथ ही उसका जमकर विरोध करते हुए एक अहिंसक मार्च का नेतृत्व भी किया था. अपने समर्थकों के हुजूम के साथ अंग्रेजों को काले झंडे दिखाते हुए 'साइमन वापस जाओ' का उन्होंने जो नारा दिया था, उसका पूरे देश में खासा असर हुआ. नतीजा ये हुआ कि साइमन कमीशन के खिलाफ देशभर में आग भड़क उठी और हर जगह विरोध प्रदर्शन हो रहे थे.
30 अक्टूबर 1928 को लाहौर में लाजपत के नेतृत्व में किए जा रहे विरोध प्रदर्शन के दौरान अंग्रेजों ने प्रदर्शनकारियों पर लाठीचार्ज किया. बताया जाता है कि उस दिन लाजपत राय पर अनायास लाठीचार्ज नहीं हुआ था बल्कि सोची-समझी रणनीति के तहत ब्रिटिश पुलिस ने उन पर व्यक्तिगत रूप से हमला किया था. इसलिये की वे ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ बग़ावत करने वालों के सबसे बड़े नायक बन चुके थे. उस हमले में वे बेहद बुरी तरह से जख्मी हो चुके थे और लाठीचार्ज के ठीक 18 दिन बाद यानी 17 नवंबर 1928 को उन्होंने अंतिम सांस ली.
यही वो समय था, जब भगत सिंह और उनके साथियों ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ शुरु हुए आंदोलन की कमान अपने हाथों में ले ली. गाँधी को ये पसंद नहीं था क्योंकि उन्हें ये अहसास होने लगा था कि स्वतंत्रता का ये आंदोलन अगर कुछ नौजवानों के हाथों में चला गया, तो फिर उन्हें कोई पूछने वाला कोई नहीं होगा. इसीलिए गांधी ने भगत सिंह एंड कंपनी को भटके हुए नौजवानों का समूह बताते हुए कह दिया था कि हिंसा के रास्ते से कभी आजादी नहीं मिल सकती.
उसका जवाब देते हुए तब भगत सिंह ने उनका पूरा सम्मान करते हुए कहा था कि आपकी तरह से हमारा विश्वास भी अहिंसा पर ही है लेकिन हम जिस रास्ते पर आगे बढ़ रहे हैं, वो भी उचित और जरुरी है क्योंकि क्रांति महज़ दो शब्दों का नाम नहीं है, बल्कि वह विचारों की सान पर तेज होती है. लिहाज़ा हमें किसी भी तरह से नहीं लगता कि हम अपने देश को ब्रिटिश हुकूमत की बेड़ियों से मुक्त कराने के लिए कोई अनुचित तरीका इस्तेमाल कर रहे हैं.
ये भी सच है कि बाल-लाल और पाल यानी बाल गंगाधर तिलक, लाला लजपतराय और विपिन चंद्र पाल को आजादी की लड़ाई में गरम दल वाले नेताओं का अगुआ माना जाता है और उनके विदा होने के बाद भगत सिंह एवं उनके साथियों ने भी उसी रास्ते को अपनाया. ये रास्ता महात्मा गांधी को कभी मंजूर नहीं हुआ. इसलिए कुछ इतिहासकार दावा करते हैं कि अगर गांधी चाहते तो वे भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी के फंदे पर लटकने से बचा सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. हालांकि ये दावा भी विवाद का विषय है, इसलिये हम इस हैसियत में नहीं हैं कि इसे सौ फीसदी सच मान लिया जाये.
ये भी बता दें कि की साल 1905 में जब अंग्रेजों ने बंगाल का विभाजन किया, तब लाला लाजपतराय 'पूर्ण स्वराज' के लिए अरबिंदो घोष, बिपिन चंद्र पाल और बाल गंगाधर तिलक के साथ मिले थे, जो सभी गरम दल के नेता थे. साल 1917 में वे अमेरिका गए और 1920 में भारत लौटने के बाद 1921 में कांग्रेस पार्टी के विशेष सत्र का नेतृत्व किया और वहीं से असहयोग आंदोलन की शुरुआत की थी. वह आंदोलन पंजाब में पूर्ण रूप से सफल रहा. इसी कारण उन्हें 'पंजाब का शेर' कहा जाने लगा और 'पंजाब केसरी' की उपाधि दी गई. उसी इस आंदोलन के चलते लाजपत राय 1921 से 1923 तक जेल में भी रहे.
लेकिन लाला लाजपत राय ने देश को आर्थिक तौर पर मजबूती देने में भी अहम भूमिका निभाई थी. उनका योगदान आज भी आधुनिक भारत की अर्थव्यवस्था में अपनी भूमिका निभा रहा है. बता दें कि दूसरे सबसे बड़े बैंक यानी पंजाब नेशनल बैंक की बुनियाद लाला लाजपत राय ने ही रखी थी. पीएनबी की परिकल्पना एक स्वदेशी बैंक के तौर पर हुई थी. ये भारत का पहला बैंक था जिसमें पूरी तरह से भारतीयों की पूंजी लगी थी और उसका सारा दारोमदार भारतीयों के हाथ में था. पंजाब नेशनल बैंक को 19 मई 1894 को केवल 14 शेयरधारकों और 7 निदेशकों के साथ शुरू किया गया था.
उन्होंने लाहौर के अनारकली बाजार में पोस्ट ऑफिस के सामने और प्रसिद्ध रामा ब्रदर्स स्टोर्स के पास एक घर किराए पर लेने का फ़ैसला किया. और 12 अप्रैल 1895 को पंजाब के त्योहार बैसाखी से ठीक एक दिन पहले बैंक को कारोबार के लिए खोल दिया गया. तब उन 14 शेयरधारकों और 7 निदेशकों ने फैसला किया था कि वो बहुत कम शेयर अपने हाथ में रखेंगे और बैंक पर असल हक़ सामान्य शेयरधारकों के हाथ में ही रहेगा.
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