नीतीश कुमार अब अपनी पार्टी के अध्यक्ष होंगे. सबके मन में यही सवाल है कि आखिर खुद उन्हें कमान संभालने की जरूरत क्यों पडी? वैसे भी जद(यू) में तो वही होता आया है जो नीतीश कुमार चाहते थे/हैं. तो असल बात यह है कि इस वक्त नीतीश कुमार के सामने अपने संपूर्ण राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी कुछ चुनौतियां मुंह उठाए खड़ी हैं. और इस सब के बीच सबसे बड़ा सवाल यही है कि 2025 के बाद जद(यू) का क्या होगा?


भाजपा और राजद के बीच बिहार में अगर कोई सबसे बड़ी रूकावट है, बफर स्टेट के तौर पर कोई चीज है, तो वह नीतीश कुमार और उनकी पार्टी है. मान लीजिए जिस दिन जद(यू) का अस्तित्व नहीं बचेगा, उस दिन भाजपा या राजद के लिए अकेले सत्ता में आना कितना सहज बन जाएगा? लेकिन, वह नीतीश कुमार ही है, जिनके इर्द-गिर्द कभी भाजपा तो कभी राजद घूमती रहती है. तो इस वक्त जद (यू) के अस्तित्व को बचाना, उस पर अपना नियंत्रण रखना और फिर इस सब के बाद 2024 या 2025 की लड़ाई के बारे में सोचना, यही नीतीश कुमार की प्राथमिकता है. 


पीएम पद की दावेदारी! 
जिस देश ने देवेगौडा और गुजराल जैसे नेताओं को पीएम बनाया हो, उस देश में नीतीश कुमार जैसे काबिल नेता अगर पीएम पद की लालसा भी रखते हो तो इसमें क्या बुराई हो सकती है? राजनीतिक अनुभव से लैस (खरगे से भी अधिक क्योंकि 18 साल से वे मुख्यमंत्री है) नीतीश कुमार इस वक्त इंडिया गठबंधन के एक ऐसे चहरे है जिस पर अभी तक भाजपा वाली ईडी/सीबीआई का आरोप नहीं लगा सके हैं. लेकिन जिस तरह से राहुल गांधी ने नीतीश कुमार के कास्ट सेन्सस के मुद्दे को हाइजैक किया है और लगातार 4 बैठकों के बाद भी उनका नाम संयोजक पद तक ले लिए लिया नहीं गया है, उससे नीतीश कुमार का निराश होना स्वाभाविक है.



तो क्या नीतीश कुमार अध्यक्ष पद खुद अपने हाथों में ले कर इंडिया गठबंधन को यह संकेत देना चाहते है कि वे बिहार में इस वक्त अकेले लड़ सकने की स्थिति में भी है और ऐसा निर्णय लेने के जरूरत पड़ेगी तो वे पीछे नहीं हटेंगे. आखिरकार, नीतीश कुमार ने  भाजपा को दिल्ली की गद्दी से हटाने की “भीष्म प्रतिज्ञा” तो नहीं ली है. फिर जिस गति से पिछले 1 साल में नीतीश कुमार ने लाखों युवाओं/महिलाओं को रोजगार दिया हैं, उनका हौसला इस वक्त काफी बुलंद है. उन्हें आधी आबादी के अपने वोट बैंक पर भी पूरा भरोसा होगा. ऐसे में पार्टी की कमान खुद अपने हाथों में ले कर नीतीश कुमार यह साफ़ कर देना चाहते हैं कि बिहार में और उनकी पार्टी के भीतर वहीं होगा जो वो चाहेंगे. 



खतरा: भाजपा या राजद! 
जैसाकि मैंने पहले भी कहा कि राजनीतिक रूप से भाजपा और राजद दोनों के लिए बिहार में अगर कोई दुश्मन नंबर एक है तो वह नीतीश कुमार ही है. जिस दिन वे राजनीति से हटेंगे उस दिन से बिहार दो-ध्रुवीय राजनीतिक घटनाओं का केंद्र बन जाएगा. फिर चाहे कभी भाजपा सत्ता में आए या फिर कभी तेजस्वी यादव सत्ता में आए. चुनाव इन्हीं दोनों में से होना है. पिछले ही विधानसभा चुनाव में भाजपा ने चिराग पासवान के जरिये नीतीश कुमार को जितना नुकसान पहुंचाना था, पहुंचा चुकी है. भाजपा शायद इससे ज्यादा नुकसान न पहुंचा सके. या संभव है कि आरसीपी सिंह, उपेन्द्र कुशवाहा की तर्ज पर जद(यू) के कुछ और नेता पाला बदल ले लेकिन खुद नीतीश कुमार के हाथों एक बड़ी गलती हो चुकी है. वो गलती थी, सार्वजनिक रूप से यह कहना कि 2025 का विधानसभा चुनाव तेजस्वी यादव के नेतृत्व में लड़ा जाएगा.


ऐसा बोल कर वे खुद को फंसा चुके हैं. लेकिन, वो राजनेता ही क्या जो अपने ही बनाए जाल से बाहर न निकल सके. इस वक्त लालू यादव की एकमात्र ख्वाहिश है कि किसी भी तरह तेजस्वी यादव को बिहार की सत्ता पर पूर्ण नियंत्रण के साथ काबिज करा दिया जाए. और लालू यादव की राजनीतिक चतुराई को नीतीश कुमार से बेहतर कौन जान सकता है? तो 25 तक का इंतज़ार या 24 के नतीजे के हिसाब से फिर 25 के लिए नई रणनीति बनाने की योजना, यह सब इस वक्त नीतीश कुमार के मन में चल रहा होगा. वह यही सोच रहे होंगे कि दुविधा में दोनों गए...वाला हाल न हो जाए. इसलिए वे कम से कम अपने लिए 24 न सही तो 25 को सुरक्षित कर के रखना तो चाहेंगे ही. कम से कम किंग नही तो किंगमेकर के तौर पर ही सही. और इसके लिए बहुत जरूरी है कि उनकी पार्टी इंटेकट रहे. पार्टी पर उनका पूरा नियंत्रण हो औए वह ये सुनिश्चित कर सके कि किसी भी सूरत में पार्टी बिखरे नहीं. 


बंधनमुक्त नीतीश! 
और अंत में सिर्फ इतना कि नीतीश कुमार उस आत्मा की तरह बंधनमुक्त है, जिसे न कोइ पकड़ा सकता है, न जिसे कोई ब्लैकमेल कर सकता है, न जिसे कोई टेकें फॉर ग्रांटेड ले कर उनसे जबरदस्ती कर सकता है. वे उन्मुक्त पंछी जैसे है. खुली हवा के मानिंद है, जब जहां जिस दाल पर चाहे, बैठ सकते है और हर बार के लिए उनके पास बचाव के अचूक तर्क है. कहने वाले पलटू कहते रहे, लेकिन राजनीति में पलटने को ही स्ट्रेटजी और मास्टरस्ट्रोक कहा जाता है.


पार्टी की कमान खुद संभाल कर उन्हें सबको संकेत और सन्देश दे दिया है. राहुल गांधी के लिए यही सन्देश है कि आप चाहे जितना जोर लगा ले, अभी भी अनुभव में काफी पीछे है और जहा अनुभव की जरूरत  होगी वहाँ नीतीश कुमार की भीगीदारी और दावेदारी निश्चित ही होगी. लालू यादव भी इस भूल में न रहे कि सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई के नाम पर वे नीतीश कुमार को झुका सकते है और भाजपा के लिए यह सन्देश साफ़ है कि ना काहू से दोस्ती, न काहू से बैर.....


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