सूरत में सभी कैंडिडेट पीछे हटे और इंदौर में कांग्रेस उम्मीदवार, ये है चुनाव जीतने का नया मॉडल?
देश में लोकसभा चुनाव के लिए वोटिंग चल रही है और अब तक दो दौर के बाद अब 7 मई को तीसरे फेज के लिए लोग वोट डालेंगे. इस बीच, सूरत के बाद अब इंदौर से हैरान कर देने वाली खबर आयी, जहां पर कांग्रेस उम्मीदवार अक्षय कांति बम ने अपना नामांकन वापस ले लिया और बीजेपी में जाकर शामिल हो गए.
नामांकन के समय ही मोती लाल नाम के डमी उम्मीदवार ने फार्म आधा-अधूरा भर कर रखा था. नामांकन पत्र तो शुरूआती दौर में ही कैंसल हो गया था. उसके बाद कोई जरूर रणनीति रही होगी, और उन्होंने अंतिम दिन अपना नामांकन पत्र वापस ले लिया है. इसकी वजह बहुत सारी हो सकती है. उसके बाद वे बीजेपी में चले गए हैं.
इसके पीछे कोई विचार धारानहीं है बल्कि उनके कई काले कारनामे हो सकते हैं, जिन पर पर्दा ढ़ंका रहे, इसके चलते बीजेपी का दामन थामना वजह हो सकती है. उनके कई कॉलेज चलते हैं, उनके पिता के नाम से गौशाला है और जमीन के भी कई मामलों शामिल है. उन पर कार्रवाई आदि के डर से ही उन्होंने बीजेपी का दामन थामा है.
ये लोकतंत्र के लिए अच्छे संकेत तो फिलहाल नहीं लग रहे हैं. आज की राजनीति लोकतंत्र के लिए घातक बनते जा रही है. चुनाव जीतने का ये एक दांव भी हो सकता है. हालांकि इससे पहले तो वहां पर बीजेपी के सांसद ही वहां से जीते थे. वर्तमान के समय में या तो कांग्रेस के प्रत्याशी से खतरा लग रहा होगा या कांग्रेस के प्रत्याशी को अपने कारनामों को लेकर खतरा लग रहा होगा तो ऐसे मामले घटित हुए है.
अंतिम क्षण में जो किसी के पार्टी के टिकट से चुनाव लड़ रहा व्यक्ति नामांकन वापस ले लेता है तो फिर वो किसी दूसरे पार्टी और उसके विचार धारा का कैसे हो सकता है. सूरत में भी नीलेश कुमार ने भी अपना नामांकन पत्र वापस ले लिया था. इसके अलावा कई जगहों से ऐसे खबर सुनने को मिल रही है, लेकिन ये लोकतंत्र के लिए बिल्कुल ही सही नहीं है.
लोकतंत्र के लिए एक मजबूत विपक्ष जरूरी
जब तक देश में एक मजबूत विपक्ष ही नहीं रहेगा तो एक स्वच्छ लोकतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती है. देश में क्या ऐसे चुनाव होते हैं. ये पूरी तरह से पब्लिक और मतदाताओं के साथ एक धोखा है. कभी कोई जीत कर किसी पार्टी में चला जाता है तो कभी कोई नामांकन पत्र वापस ले लेता है, उसके बाद दूसरे पार्टी में शामिल हो जाता है. देश के लोकतंत्र को नेताओं ने मजाक बना कर रख दिया है. इससे तो बेहतर है की देश में चुनाव की प्रक्रिया ही ना हो. देश में ये गलत मैसेज जा रहा है कि देश में लोकतंत्र नहीं बचा है. देश के नेताओं ने इसे पूरी तरह से मजाक बना कर रख दिया है.
नेताओं की वैल्यू अब पहले की तरह मतदाता की नजर में नहीं रही है. नेता सिर्फ अपने लाभ और हानि का देखते हैं, उनको जहां फायदा दिखता है वो वहां सरक लेते हैं. कैंडिडेट किसी एक भरोसे पर आए थे और अब क्या कर रहे हैं. कांग्रेस के कार्यकर्ता और जमीनी नेता इस समय नाराज है. चुनाव से पहले तक पार्टी का झंडा और दर्री तक कार्यकर्ता उठाते रहे हैं, लेकिन जब चुनाव आता है तो दूसरे को बाहर से लाकर टिकट दे दी जाती है. उसको लेकर कांग्रेस के जमीनी नेताओं की गुस्सा फूट रहा है. ऐसा सिर्फ कांग्रेस के लिए ही नहीं, बल्कि सभी पार्टियों के लिए है. आज इन्ही कारणों के चलते देश में मतदाताओं की सहभागिता कम होती जा रही है. जिसके कारण दो चरणों के चुनाव में वोटिंग का प्रतिशत काफी कम रही है.
इंदौर में भी हो सकता है सूरत जैसा हाल
कांग्रेस के अक्षय कांति बम बीजेपी उम्मीदवार के सामने कुछ भी नहीं थे. जब अक्षय कांति के नाम की घोषणा हुई, तभी कैलाश विजयवर्गीय ने कहा था कि करीब आठ लाख वोट से इंदौर की सीट को जीतेंगे. आम जनता भी यही कह रही थी की शंकर लालवाणी की जीत तय है. हालांकि चुनाव के हलफनामा में कांगेस के प्रत्याशी ने अपनी प्रापर्टी काफी बताया था और 14 लाख की घड़ी पहनने की बात कही थी.
क्या देश इसी तर्ज पर चुनाव में हार जीत होगा. देखा जाए तो ये चुनाव रह ही नहीं गया है. ये समय की बर्बादी की तरह है. आज के समय में अब मतदाताओं को नेताओं पर भरोसा नहीं हो रहा है कि वो आखिरकार किसको वोट दें. अगर किसी को वोट देते हैं तो कल वो दूसरे पार्टी में शामिल हो जाएगा.
इसी वजह से मतदाता आज पोलिंग बूथ तक नहीं पहुंच पा रहे हैं. अब सबकी चुनाव से दिलचस्पी खत्म से हो गई है. आज के समय में जो नेता चाहता है, प्रशासन वहीं करता है. इस बीच दोहन सिर्फ जनता का हो रहा है. सूरत में कांग्रेस के उम्मीदवार का नामांकन रद्द होने के बाद बाकी आठ उम्मीदवारों ने अपना नामांकन पत्र वापस ले लिया. उसके बाद वहां बीजेपी के मुकेश दलाल को निर्विरोध जीत गया.
देखा जाए तो किसी तरह का दबाव होगा. एक के नामांकन पत्र रद्द होने से अन्य को अपनी वापसी क्यों लेनी पड़ी ये सवाल उठता है. इंदौर में भी ये दुहराया जा सकता है, इससे ताजुब्ब नहीं कहा जा सकता. इससे बेहतर है कि सत्ता में शामिल लोग किसी को नामांकन पत्र ही ना भरने दें, तो नामांकन पत्र रद्द और नामांकन वापसी जैसे की नौबत ही नहीं आएगी. अगर ऐसा रहा तो आने वाले समय में ये भी देखने को मिल सकता है.
विपक्ष मुक्त भारत चाहती है सत्ता पक्ष
सभी पार्टी को ये भी देखने की जरूरत है कि अगर कोई कार्यकर्ता उसके प्रति समर्पित है, लेकिन दूसरे को जो बाहर से आया है या फिर जो पैसे वाला है उसको टिकट देते हैं, इन सब से भी पार्टियों को भूल करने से बचने की जरूरत है. सिर्फ ऐसा कांग्रेस में ही नहीं है बल्कि बीजेपी में भी है. बीजेपी के जो पुराने कार्यकर्ता है उनके जगह कांग्रेस से आए कार्यकर्ताओं को टिकट दिया जा रहा है तो उनके कार्यकर्ताओं के मन को भी तो ठेस पहुंच रहा है. उनके साथ भी तो गलत हो रहा है. निष्क्रियता कार्यकर्ताओं में भाजपा और कांग्रेस दोनों में है.
कैंडिडेट चुनाव मैदान छोड़ने लगे तो इसका मतलब साफ है कि वो अपना फायदा देख रहा है. राजनीति अब सेवा नहीं बल्कि एक धंधा बन चुका है. पावर के साथ इंसान अब सम्राज्य बढ़ाता चल जा रहा है. नेता भ्रष्टाचार करते हैं और बाद में वो पार्टी बदलकर सत्ता पक्ष में चले जाते हैं. पद और पावर और पॉलिटिक्स जो तीनों अभी के समय में लहर चल रहा है. ये निश्चित तौर पर लोकतंत्र को जहर का काम कर रहा है.
कैंडिडेट के चुनाव में भागने की बात में दबाव, हार और कई ऐसे फैक्टर हो सकते हैं. सत्ताधारी पार्टी विपक्ष मुक्त भारत चाहती है और अगर ऐसी स्थिति रही तो कोई भी चुनाव में उतरने से पहले कई बार सोचेगा. आज के समय में अगर किसी के पास में पैसा नहीं है तो वो राजनीति में कभी नहीं आ पाएगा. आम आदमी के लिए इस समय चुनाव नहीं है. आज के समय में सत्ता से किसी को हटाने के लिए उससे बड़ा घोषणा करने वाला और एक बड़ा चेहरा के साथ दांवबाज की जरुरत होगी. ऐसे चुनाव में जाना संभव नहीं है.
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