मध्य प्रदेश में भाजपा की दो सूची अब तक आयी है- उम्मीदवारों की. कुल 78 उम्मीदवारों की सूची जारी की है भाजपा ने और इसमें तीन दिग्गज केंद्रीय मंत्री भी शामिल हैं. नरेंद्र सिंह तोमर, फग्गन सिंह कुलस्ते ऐसे मंत्री हैं तो पांच सांसदों को भी भाजपा चुनाव लड़वा रही है. इसे उसके विरोधी जहां उसकी घबराहट बता रहे हैं, वहीं भाजपा के समर्थक इसे कोई खास बात नहीं कहकर पल्ला झाड़ ले रहे हैं. कांग्रेस के कमलनाथ सॉफ्ट हिंदुत्व की पिच पर खेल रहे हैं और उन्हीं संतों से कथा करवा रहे हैं, जिनको भाजपा आज तक बुलाती रही है, तो इंडिया गठबंधन की पहली रैली भोपाल में नहीं होने देकर भी वह अपना स्टैंड साफ कर दे रहे हैं. भाजपा की सूची यह संकेत भी दे रही है कि मुख्यमंत्री पद का निर्णय चुनाव के बाद भी किया जा सकता है. 


भाजपा है घबराहट में


पहली बार चुनाव के इतना पहले इतना अधिक परेशान है, पैनिक हो रही है. यह मध्य प्रदेश के इतिहास में पहली बार हो रहा है, जब तीन कद्दावर केंद्रीय मंत्री विधायक का चुनाव लड़ेंगे. इसके अलावा पांच सांसद हैं, जिनको विधायक का चुनाव लड़ाया जाएगा. यह समझ में आता है कि भाजपा इन छह-सात लोगों को लोकसभा चुनाव नहीं लड़वाना चाहती. लोकसभा चुनाव इसलिए नहीं लड़वाना चाहती कि ये जो छह-सात लोग हैं, जिनमें तीन केंद्रीय मंत्री भी हैं, इनके खिलाफ जमीन पर वातावरण बहुत खिलाफ है. एक पक्ष तो लोकसभा का है. दूसरे अगर हम स्थानीय स्तर पर देखें, तो भाजपा शायद मानकर चल रही है कि ऐसा करके वह स्थानीय स्तर की एंटी-इनकम्बेन्सी से निबट लेगी.


हालांकि, कॉमन सेंस तो यही कहता है कि भाजपा के नरेंद्र सिंह तोमर मध्यप्रदेश के नेता हैं. वह विधानसभा में बैठते हैं या संसद में बैठते हैं, यह ठीक है कि दोनों जगहों पर अंतर है, लेकिन वह भी तो 18-20 साल से सत्ता में बैठे हुए हैं, तो उनके खिलाफ भी तो एंटी-इनकम्बेन्सी होगी ही. ये देखने की बात है कि जिस तरह की घबराहट भाजपा ने दिखाई हैं, उसमें यह समझने में थोड़ी परेशानी है कि यह सियासी लाभ कैसे दिलवाएगी. 



शिवराज सिंह को साधने की कोशिश


ये जो भी फैसला है, वह व्यक्त संदेश तो यही देता है कि शिवराज सिंह अगले मुख्यमंत्री होंगे या नहीं, यह भाजपा के लिए मायने नहीं रखता है. भाजपा संदेश देना चाहती है कि यह मसल उसके लिए खुला हुआ है. हालांकि, अभी जो भी कैंपेन हो रहा है, उसमें केवल दो लोगों की फोटो लग रही है- नरेंद्र मोदी की और शिवराज सिंह चौहान की. शिवराज सिंह अगर इतने ही नुकसानदायक थे, तो भाजपा ने उनको पहले क्यों नहीं बदल दिया? दूसरी बात, यदि शिवराज सिंह चौहान को सीएम नहीं बनाना है, तो भाजपा जो अक्सर विपक्षी दलों से उनके मुख्यमंत्री प्रत्याशी के बारे में सवाल पूछती है, वह तो खुद उन पर लागू हो जाएगा. भाजपा खुद चक्रव्यूह में फंसती नजर आ रही है. एक और बात महत्वपूर्ण है, जिस कारण शिवराज सिंह को भाजपा आज तक निकाल नहीं पायी है. शिवराज उन गिने-चुने भाजपा नेताओं में से हैं, जिन्होंने ब्राह्मणों-बनियों की पार्टी की छवि से भाजपा को निजात दिलायी और इसे गरीब-गुरबों की पार्टी दिलायी.



शिवराज सिंह ने गरीबों की एक बड़ी कान्स्टीच्युएन्सी तैयार की. शिवराज ने महिलाओं की एक बड़ी कॉन्स्टिच्युएंसी तैयार की, जो उनको अपना नेता मानती है. यही वजह है कि भाजपा कभी शिवराज सिंह को कभी हटाने की नहीं सोच पाती. उनका अपना वोट बैंक है. उन्होंने ओबीसी नेता के तौर पर प्रदेश की कमान भले संभाली हो, लेकिन गरीबों के नेता के तौर पर अपनी पहचान बनायी है. अगर उन गरीबों को पता चल जाए कि शिवराज अगले मुख्यमंत्री नहीं बन पाएं, तो जो लाखों करोड़ों की ताबड़तोड़ घोषणाएं शिवराज ने की हैं, उसका पैसा भी शायद उन्हें नहीं मिल पाए. तो, यह एक कैलकुलेटेड रिस्क है, जो भाजपा ने लिया है. एक तरफ भाजपा शिवराज से दूरी के संकेत दे रही है, दूसरी तरफ उनकी फोटो लगाकर चुनाव भी लड़ रहे हैं. तो, भ्रम की जो स्थिति है, वह तो भाजपा के काडर्स में ज्यादा होगी. 


कांग्रेस ने जगाए रखे मुद्दे


मध्यप्रदेश में जो चुनावी मुद्दे आज हैं, कांग्रेस जो इतने साल से विपक्ष में रही औऱ अभी पिछले तीन साल से हैं, उसको उन्होंने हटने नहीं दिया. मुद्दे क्या हैं? भ्रष्टाचार का मुद्दा, बेरोजगारी का मुद्दा, किसान कर्जमाफी का मुद्दा और कर्मचारियों का मुद्दा. कांग्रेस ने बहुत सफलतापूर्वक इन मुद्दों को चुनाव से हटने नहीं दिया. अब भाजपा को लग रहा है कि उनका जो मुख्य मुद्दा होता था, हिंदुत्व का, उसमें कांग्रेस ने आक्रामक नहीं, बल्कि डिफेंसिव बना दिया है. कांग्रेस के रुख के कारण इस बार मध्यप्रदेश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण होता दिख नहीं रहा है.


चूंकि मध्यप्रदेश में अल्पसंख्यकों की जो संख्या है, वह बहुत कम है यानी 6-7 प्रतिशत है, इसलिए वैसा ध्रुवीकरण यहां कभी हो नहीं पात है. 1961 में पहली बार भाजपा ने यह प्रयोग किया और अच्छी सीटें पायीं. हालांकि, उसकी सरकार तब भी नहीं बन पायी थी. आज ओबीसी तो शिवराज सिंह खुद ही हैं. हालांकि, भाजपा कुछ ऐसा कह नहीं पा रही है. वैसे, पिछले 20 वर्षों के इतिहास को देखें तो भाजपा के जितने भी सीएम हुए हैं, वे ओबीसी ही हैं, लेकिन भाजपा पूरे दम से कुछ कह नहीं पा रहे हैं, क्योंकि ओबीसी सेंसस की बात सामने आ जाती है. तो, मध्यप्रदेश का चुनाव इस लिहाज से बहुत जटिल हो गया है. 


जहां तक कांग्रेस का सवाल है, वह सॉफ्ट हिंदुत्व की पिच पर खेलती ही है. मध्यप्रदेश में इंडिया गठबंधन की रैली होना कुछ वैसा ही है कि तमिलनाडु में जाकर हम हिंदी के बारे में रैली करें. इंडिया गठबंधन की तरफ से यहां कोई दल नहीं है. यहां दो दलों की ही व्यवस्था है. अब इंडिया गठबंधन की रैली मध्यप्रदेश में कराने का कोई लाभ नहीं था. हां, महाराष्ट्र में हो सकता है, यूपी में कुछ लाभ हो सकता है, लेकिन मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में तो उसका कोई लाभ होने वाला था ही नहीं, तो शायद उन लोगों को बाद में सद्बुद्धि आयी और उन्होंने वह रैली कैंसिल कर दी. अगर हम कांग्रेस को 1930 के बाद से देखें, तो कांग्रेस में जितने भी महत्वपूर्ण नेता थे, वह हिंदुत्ववादी तो थे ही.


द्वारका प्रसाद मिश्र ने तो कृष्णायन ही लिखी. रविशंकर शुक्ल जो पहले मुख्यमंत्री थे, उन्होंने विद्या मंदिर योजना चलाई, योगी कमीशन बनाया, धर्मांतरण को लेकर पहला बिल जो कांग्रेस लायी, उनके ही समय में लायी. कांग्रेस का यह इतिहास रहा है, लेकिन राममंदिर आंदोलन के बाद भाजपा ने सफलतापूर्वक कांग्रेस को अल्पसंख्यक-परस्त पार्टी प्रोजेक्ट करने की कोशिश की और काफी हद तक सफल भी हुई. इस बार कमलनाथ ने पहले ही दिन से यह बात बिल्कुल स्पष्ट रखी. कांग्रेस पार्टी तो 2015 से यह कर ही रही है. कांग्रेस के प्रदेश कार्यालय में तब से गणेश प्रतिमा रखी जा रही है. भाजपा कोशिश कर रही है, लेकिन कांग्रेस फिलहाल खुद को सॉफ्ट हिंदुत्व के पैरोकार के तौर पर पेश तो कर ही ले रही है. 



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