केरल हाईकोर्ट ने लिव-इन रिलेशनशिप को लेकर एक अहम टिप्पणी की है. हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि लिव-इन को शादी के रूप में मान्यता नहीं दी जा सकती और जब दो व्यक्ति समझौते के आधार पर एक साथ रहने का फैसला करते हैं, तो उसे कानून शादी की मान्यता नहीं देता. इस फैसले के बाद लिव-इन संबंधों और उसके आयामों पर एक नयी बहस शुरू हो गयी है. 


लिव-इन गैर-कानूनी नहीं


आज जो हमारे देश में कानून है, उस कानून के तहत विभिन्न रिलेशनशिप को मान्यता नहीं दी जा सकती है. कोई ऐसा स्पेसिफिक (विशिष्ट) लॉ नहीं है, जिसके तहत लिव-इन रिलेशन को मान्यता दी जा सके. हां, उनके कुछ अधिकार है, कुछ राइट्स हैं, जिनको विभिन्न कानूनों के तहत मान्यता मिली हुई है. उन लॉ के आधार पर उनका कुछ अधिकार है, लेकिन अगर संपूर्णता में देखें तो ये रिश्ते हमारे समाज के मूल्यों, मर्यादाओं के विरुद्ध संबंध हैं, हालांकि कांस्टिट्यूशन का आर्टिकल 21 'राइट टू लाइफ' देता है, और आर्टिकल 19 (ए) फ्रीडम ऑफ स्पीच.


इन्हीं राइट्स के तहत सुप्रीम कोर्ट पहले ही यह साफ कर चुका है कि लिव-इन रिलेशनशिप अनैतिक तो हो सकता है, गैर-कानूनी नहीं. सुप्रीम कोर्ट ने 2006 में 'लता सिंह विरुद्ध उत्तर प्रदेश' राज्य मामले के फैसले में कहा था कि जब दो बालिग अपोजिट सेक्स के लोग साथ रह रहे हैं, तो उसमें कुछ भी गैर-कानूनी नहीं है. फिर, 2010 में 'एस खुशबू विरुद्ध कनिमल विरुद्ध अन्य' मामले में भी वही बात दोहराई गई. 2013 में भी इंदिरा शर्मा विरुद्ध वीके वर्मा मामले मेंं भी सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि लिव-इन मामले में फीमेल पार्टनर को सुरक्षा हासिल होनी चाहिए. तो, सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार अपने फैसले में कहा है कि लिव-इन रिलेशनशिप किसी भी तरह गैर-कानूनी नहीं है, सजा के लायक नहीं है, हां यह अनैतिक और सामाजिक मूल्यों के विपरीत भले माना जाए. 



लिव-इन का मतलब शादी नहीं


अगर हम हिंदू मैरिज एक्ट 1955 की बात करें, तो सेक्शन 5 में उसकी शर्तें दी गयी हैं. वे शर्तें क्या हैं? अगर वो माइनर है, पागल है, मानसिक हालत ठीक नहीं तो सहमति नहीं दे सकता, इसी तरह  वर 21 साल का हो, वधू 18 की हो, सपिंडा नहीं हो यानी चाचा-भतीजा के यहां आपस में शादी नहीं कर सकते. लिव-इन रिलेशनशिप में ऐसी कोई शर्त नहीं है, बस एक बाधा है कि कोई भी एक पक्ष विवाहित न हो. तो, विवाहित व्यक्ति नहीं कर सकता लिव-इन, बाकी कहीं कोई बाधा नहीं है. यह बाधा इसलिए नहीं है क्योंकि कोई कानून ही नहीं है, जो गवर्न कर सके, लिव-इन रिलेशनशिप को.


2013 का जो फैसला सुप्रीम कोर्ट ने दिया था,  एडल्टरी को जो जोजेफ साहने विरुद्ध यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में डि-क्रिमिनलाइज किया गया, उसमें बताया गया कि अगर दो अपोजिट सेक्स के लोग बहुत समय से साथ रह रहे हैं, तो उन्हें डोमेस्टिक माना जा सकता है, उसमें टाइम-फ्रेम नहीं दिया है, 6 महीने भी हो सकता है, 6 साल भी हो सकता है और सीआरपीसी की धारा 125 के तहत गुजारा भत्ता दिया जा सकता है. जब डोमेस्टिक रिलेशन स्थापित हो गया, तो लिव-इन रिलेशन का कोई टाइम-फ्रेम निर्धारित नहीं है, कोई नियम ही नहीं है. 


अगर कोई व्यक्ति किसी के साथ रहता है, फिर छोड़कर चला जाता है, तो उसको देना पड़ेगा गुजारा-भत्ता. आप चूंकि एक सेक्सुअल संबंध में रहे हैं, भले ही सहमति से, लेकिन वह अगर कमा नहीं रहा है, या उसको कोई बीमारी हो गयी तो आपको देना पडेगा. शादीशुदा आदमी अगर लिव-इन रिलेशनशिप में रहता है, तो बायगैमी (इंडियन पीनल कोड 494) का मामला बनता है और उसमें 7 साल तक की सजा हो सकती है. अगर दो विवाहित हैं और दोनों ने तलाक ले लिया है, तो वे लिव-इन में रह सकते हैं, दोनों कुंआरे हैं तो भी रह सकते हैं, लेकिन कोई शादीशुदा व्यक्ति नहीं रह सकता. 


लिव-इन में पैदा बच्चों का क्या होगा


अगर इस तरह के संबंधों से बच्चे पैदा हो सकते हैं, तो उनका क्या होगा? हिंदू मैरिज एक्ट 1955 के सेक्शन 16 (सब सेक्शन 3) के तहत अवैध (इललेजिटिमेट) बच्चों के संपत्ति संबंधी अधिकारों की व्याख्या करता है. इसके मुताबिक इन बच्चों का अधिकार केवल पैरेंट्स की संपत्ति पर होता है. उनको इनहेरिटेंस दिया जाएगा, क्योंकि दो बड़े गलती कर सकते हैं, लेकिन बच्चों की कोई गलती नहीं है. हमारे कानून में पहले से ही अगर अवैध शब्द का इस्तेमाल है, तो वह लिव-इन की ओर तो इंगित कर ही रहा है. केरल हाईकोर्ट का जो भी निर्णय है, वह निर्णय कानूनसम्मत है. आज के फैसलों में जो भी सुप्रीम कोर्ट ने दिया है, वह इसलिए कि खास तौर पर कोई ऐसा कानून नहीं है, जो लिव-इन रिलेशनशिप को व्याख्यायित कर सके. सुप्रीम कोर्ट ने लिव-इन को लेकर कानून का दायरा बढ़ाया है. वैसे तो, सबसे पहले 1978 में ही लिव-इन का मामला उठा था. 


जहां तक सबूतों की बात है, तो काफी कुछ होगा. फोन-रिकॉर्ड्स होंगे, जहां रहते होंगे, वहां का रेंट अग्रीमेंट होगा. दो आदमी साथ में रहेंगे, तो बहुतेरे सबूत होते हैं. यह तो अलग-अलग मामलों पर निर्भर करता है. बच्चों के मामले में तो डीएनए का भी उपयोग किया जा सकता है. बात, बस इतनी सी है कि लिव-इन रिलेशनशिप में शादी के लक्षण दिख सकते हैं, लेकिन वह कहीं से भी शादी नहीं है. 


[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]