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सियासत के आकाश में एक और सितारा 'सनी देओल', गुरदासपुर सीट से चुनावी मैदान में

नामांकन के दौरान सनी का जो रूप देखने को मिला वह भी कुछ हैरान करता है. नामांकन से पहले सनी ने अपने सिर पर पगड़ी बाँध कर अपने पुराने पारिवारिक सिख रूप को जिस प्रकार अपनाया, उससे लगता है कि उन्होंने राजनीति के गुण सीख लिए हैं.

नई दिल्लीः सनी देओल को फिल्मों में काम करते हुए 35 बरस से भी अधिक हो गए हैं. उन्होंने इतने बरसों में बेताब, सोहनी महिवाल, अर्जुन, सल्तनत, त्रिदेव, चालबाज़, निगाहें, लुटेरे, डर, घातक,अर्जुन पंडित, अपने, हीरोज, भैयाजी सुपरहिट और मोहल्ला अस्सी जैसी बहुत सी फ़िल्में दीं. वहां ‘घायल’ और ‘दामिनी’ फिल्म में किये गए शानदार अभिनय के लिए तो सनी देओल को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार के साथ फिल्मफेयर पुरस्कार भी मिले. इन फिल्मों के साथ ‘बॉर्डर’ और ‘ग़दर’ दो फ़िल्में तो सनी देओल के करियर की ‘माइल्स स्टोन’ फ़िल्में हैं, जिनके कारण सनी की लोकप्रियता भी बढ़ी और अपने अभिनय का दमखम भी उन्होंने इन फिल्मों में खूब दिखाया.

सनी देओल से मेरी पहली मुलाकात साल 1983 में उनकी पहली फिल्म ‘बेताब’ के रिलीज़ से कुछ दिन पहले नई दिल्ली में उनकी नायिका अमृता सिंह के घर पर हुई थी. उसके बाद भी सनी से कई मुलाकातें हुईं लेकिन सनी की बातों में इस बात के संकेत कभी नहीं मिले कि वह राजनीति में आ सकते हैं. सनी बहुत नपा तुला बोलते हैं, अपने पिता धर्मेन्द्र के लिए उनका विशेष सम्मान उनकी हर बात में साफ़ झलकता है.

पिता धर्मेन्द्र से उनका चेहरा मोहरा ही नहीं उनकी चाल-ढाल भी बहुत मिलती है. लेकिन, अपनी पिता की रोमांटिक, मस्त और खुलकर बोलने वालने वाली छवि से सनी की छवि बिलकुल विपरीत है. सनी कुछ शर्मीले से हैं तो रोमांस के साथ व्यक्तिगत बातें तो सार्वजनिक जीवन में करने से वह काफी परहेज करते हैं. हो सकता है इसलिए उन्होंने राजनीति में आने की अपने मन की बात जग जाहिर नहीं की या फिर ये भी हो सकता है कि राजनीति में आने का फैसला उन्होंने अचानक लिया हो.

हेमा मालिनी लाईं हैं सनी देओल को राजनीति में !

इस बार मुंबई फिल्म उद्योग से जिन तीन बड़े चेहरों की राजनीति में आकर प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी और बीजेपी से जुड़ने की बात थी, उनमें पहला नाम था माधुरी दीक्षित का, दूसरा अक्षय कुमार का और तीसरा जया प्रदा का. माधुरी दीक्षित को पूना से बीजेपी का टिकट देने और अक्षय कुमार को दिल्ली की चांदनी चौक सीट से चुनाव लड़वाने की चर्चा भी चली. लेकिन ये दोनों ही बाद में पीछे हट गए. लेकिन उद्योगपति और नेता अमर सिंह के प्रयासों से जया प्रदा बीजेपी में शामिल हो गयीं और उन्हें उत्तर प्रदेश की रामपुर सीट से चुनाव भी लड़ लिया. लेकिन जब गत 23 अप्रैल को सनी देओल अचानक बीजेपी में शामिल हुए तो सभी को हैरानी हुई.

सनी देओल का नाम अचानक अंतिम समय पर आया हैरानी यह तो थी ही. साथ ही यह भी कि देओल परिवार से हेमामालिनी पहले ही मथुरा की सांसद हैं और इस बार भी हेमा ने मथुरा से चुनाव लड़ा है. साथ ही धर्मेन्द्र भी साल 2004 में बीजेपी के टिकट पर बीकानेर से चुनाव लड़कर एक बार सांसद बन चुके हैं.

हालांकि, उसके बाद धर्मेन्द्र ने फिर कभी चुनाव नहीं लड़ा. यहां तक वह राजनीति से दूर ही रहे. साल 2014 में जब बीजेपी ने हेमामालिनी को पहली बार मथुरा से चुनाव में उतारा तब भी धर्मेन्द्र अपनी पत्नी के चुनाव प्रचार तक में भी उनके साथ नहीं आए. लेकिन इस बार जहां धर्मेन्द्र प्रचार के लिए हेमामालिनी के साथ मथुरा गए वहां चंद दिन बाद सनी देओल ने भी दिल्ली में बीजेपी की सदस्यता ग्रहण कर ली और अब उन्होंने गुरदासपुर से नामांकन भर कर लोकसभा चुनाव जीतने के लिए पूरी तरह ताल ठोक दी है. उधर धर्मेन्द्र ने अपने बेटे सनी को गुरदासपुर से विजय दिलाने की सभी से अपील भी की है.

सूत्र बताते हैं कि सनी देओल को बीजेपी में लाने का काम हेमा मालिनी ने ही किया है. धर्मेन्द्र को भी बीजेपी में हेमा ही लायीं थीं. यूँ एक समय में सनी और उनका परिवार धर्मेन्द्र-हेमा मालिनी की शादी से काफी खफा था. लेकिन समय के साथ यह कड़वाहट तो ख़त्म हुई ही. साथ ही सनी और हेमा के बीच मधुर रिश्ते भी कायम हुए. यूं हेमा मालिनी रिश्ते में सनी की सौतेली मां हैं लेकिन सनी, हेमा से सिर्फ 8 साल छोटे हैं. फिर भी सनी जैसे अपने पिता का ख्याल रखते हैं वैसे ही हेमा मालिनी का भी. इसकी मिसाल इस बात से भी मिलती है कि हेमा मालिनी जब कुछ समय पहले जयपुर जाते हुए रास्ते में एक सड़क दुर्घटना का शिकार हो गयीं थीं. तब सबसे पहले सनी ही हेमा के पास उनकी सहायता के लिए पहुंचे थे.

चुनाव में उतरते ही सनी ने दिखाए अपने रंग

गुरदासपुर से नामांकन भरते ही सनी का जो रूप देखने को मिल रहा है वह भी कुछ हैरान करता है. अपने नामांकन से पहले सनी ने अपने सिर पर पगड़ी बाँध कर अपने पुराने पारिवारिक सिख रूप को जिस प्रकार अपनाया, उससे लगता है कि दो दिन में ही सनी ने राजनीति के गुण सीख लिए हैं. वह चुनाव प्रचार में अपने पंजाबी जट सिख अवतार में ही उतरे हैं. जिसमें लोगों से उनकी बातचीत, उनका भाषण तो ठेट पंजाबी में हैं ही. यहां तक अपनी फिल्मों के संवाद भी वह पंजाबी में ही सुना रहे हैं. जिनमें उनका ‘ढाई किलो का हाथ’ वाले संवाद का पंजाबी संस्करण तो बहुत लोकप्रिय हो रहा है.

सनी देओल हाज़िर जवाब भी अच्छे खासे हो गए हैं. उनसे एक पत्रकार ने पूछा कि अपनी जीत को लेकर आपको कितना भरोसा है? तो इस पर सनी ने तपाक से जवाब दिया, ''मैंने जीत फिल्म में काम किया है मैं हमेशा जीतता ही रहा हूं.''

फिल्मों में भी पसंद किया गया है सनी का सिख रूप

यूं अपने व्यक्तिगत जीवन में सनी कभी सिर पर पगड़ी नहीं बांधते. लेकिन फिल्मों में वह कई बार सरदार बने हैं. साथ ही इन दिनों भी वह पगड़ी पहनकर ही निकल रहे हैं. अमृतसर स्वर्ण मंदिर में मत्था टेकते समय पहली बार वह अपनी पीली पगड़ी और नीली कमीज में नज़र आए. और उसके बाद भी वह लगातार अपने इसी रूप में नज़र आ रहे हैं. जिससे उनके मतदाता काफी प्रभावित लग रहे हैं. यूं तो धर्मेन्द्र भी कुछ फिल्मों में सिख के रूप में आए लेकिन सनी ने सिख की भूमिका में बहुत सी फ़िल्में कीं और उनमें सनी सफल भी हुए.

सिख भूमिका में सनी को सबसे ज्यादा सफलता सन 1997 में आई ‘बॉर्डर’ और 2001 में आई ‘ग़दर’ फिल्म से मिली. ’बॉर्डर’ में सनी की मेजर कुलदीप सिंह की भूमिका थी और ‘ग़दर’ में तारा सिंह की. इसके अलावा सन 2005 में आई फिल्म ‘जो बोले सो निहाल’ में भी सनी सिख निहाल सिंह की अपनी भूमिका में सराहे गए. साथ ही अपनी होम प्रोडक्शन की फिल्म ‘यमला पगला दीवाना’ (2011) और ‘यमला पगला दीवाना-2’ में भी सनी सिख परमवीर जीत सिंह की भूमिका में काफी पसंद किये गए. सिख के रूप में सनी की जो एक और फिल्म याद आ रही है वह है 2013 में आई ‘सिंह साहब द ग्रेट’, इस फिल्म में सनी, सरनजीत सिंह तलवार उर्फ़ सनी की भूमिका में ही थे.

बड़ी चुनौती है गुरदासपुर

सनी देओल फिल्म संसार के लोकप्रिय अभिनेता हैं इसमें कोई शक नहीं. अपने करियर में वह करीब 100 फिल्मों में काम कर चुके हैं. एक पंजाबी फिल्म भी उन्होंने की है ‘पंजाब गोल्ड’. उनके पिता धर्मेन्द्र भी मुंबई में रहते हुए अक्सर पंजाब आकर अपने लुधियाना जिले के उन गाँवों में कई कई दिन तक रहते हैं, जहाँ उनका जन्म हुआ, जहां वह पले-पढ़े. वह कहते हैं मेरे गांव की सोंधी मिट्टी मेरी आत्मा में बस्ती है. लेकिन इस सबके बावजूद सनी देओल के लिए गुरदासपुर एक बड़ी चुनौती है.

विनोद खन्ना का बरसों जादू चला है गुरदासपुर में

सनी देओल के लिए गुरदासपुर एक बड़ी चुनौती इसलिए भी है कि इस लोकसभा क्षेत्र पर बरसों फिल्म अभिनेता विनोद खन्ना का जादू चलता रहा है. विनोद खन्ना यहां 4 बार सांसद रहे हैं. पहली बार वह बीजेपी के टिकट पर ही गुरदासपुर से चुनाव लड़कर 1998 में सांसद बने थे. उसके बाद वह दो बार और चुनाव लड़कर यानी लगातार तीन चुनाव जीतकर यहां से लोकसभा पहुंचते रहे. इससे 1998 से 2009 तक वह करीब 11 साल यहां के लगातार सांसद रहे. हालांकि सन 2009 का चुनाव वह यहां से हार गए. पर सन 2014 के लोकसभा के पिछले आम चुनावों में जीतकर विनोद खन्ना चौथी बार फिर यहाँ के सांसद बने. लेकिन 27 अप्रैल 2017 को विनोद खन्ना के निधन के बाद यह सीट खाली हो गई. तब यहां हुए उपचुनाव में कांग्रेस के सुनील जाखड विजयी हुए. वही यहां के मौजूदा सांसद हैं. सनी देओल का भी मुख्य मुकाबला सुनील जाखड से ही है.

विनोद खन्ना का यहां कुल 14 बरस तक सांसद रहना एक तरफ सनी देओल के लिए प्लस पॉइंट है तो दूसरी तरफ माइनस पॉइंट भी. यह भी संयोग है कि विनोद खन्ना की दूसरी पुण्य तिथि 27 अप्रैल को ही सनी ने उन्हें याद करते हुए गुरदासपुर में अपनी पहली दस्तक दी है. असल में विनोद खन्ना ने गुरदासपुर का सांसद रहते हुए अपने क्षेत्र में कई बड़े और अच्छे काम किए. यही कारण था कि वह 4 बार यहां का चुनाव जीते. उन्होंने इससे यह तो साबित किया ही कि फिल्म सितारे बेहतर सांसद भी हो सकते हैं. साथ ही किसी फिल्म सितारे द्वारा 4 बार एक ही संसदीय सीट से चुनाव जीतने का भी उन्होंने एक नया रिकॉर्ड कायम किया.

विनोद खन्ना यहां से सांसद रहते हुए केंद्र में मंत्री भी बने और वहां भी उन्होंने अच्छे काम किये. जबकि उन्हीं के दौर में केंद्र में मंत्री बने शत्रुघन सिन्हा बतौर सांसद और बतौर मंत्री दोनों रूप में ही असफल रहे. विनोद खन्ना कितने शालीन और पार्टी के कितने वफादार सिपाही थे कि उन्हें जब मोदी सरकार में मंत्री नहीं बनाया गया तो उन्होंने इसकी कभी भी कहीं भी कोई शिकायत नहीं की. न ही पार्टी या प्रधानमंत्री मोदी की कोई आलोचना की. लेकिन शत्रुघ्न सिन्हा ने मंत्री न बनाये जाने पर पिछले पूरे 5 साल प्रधानमंत्री मोदी की जमकर आलोचना की और इस बार फिर से पटना साहीब का टिकट न मिलने पर वह बीजेपी छोड़ कांग्रेस में आ गए.

इसलिए गुरदासपुर के लोग आज भी अपने सांसद विनोद खन्ना पर बहुत गर्व करते हैं और उनका दिल से सम्मान करते हैं. ऐसे में सनी क्या विनोद खन्ना जैसे अच्छे सांसद बन पायेंगे, यह सवाल गुरदासपुर के लोगों के बीच है. क्योंकि विनोद खन्ना और सुनील दत्त जैसे कुछ चुनिन्दा सितारे ही राजनीति में भी सफल रहे हैं. अन्यथा राजेश खन्ना, गोविंदा, शत्रुघ्न सिन्हा ही नहीं धर्मेन्द्र भी सफल सांसद नहीं बन सके. अमिताभ बच्चन ने तो हेमवती नंदन बहुगुणा जैसे दिग्गज को हराने के बाद भी अपनी इलाहबाद सीट से बीच में ही इस्तीफ़ा दे राजनीति से तौबा कर ली थी.

धर्मेन्द्र ने चाहे बीच में इस्तीफ़ा नहीं दिया लेकिन उन्होंने राजनीति के आरोपों आदि को देखते हुए अपने संसदीय क्षेत्र बीकानेर जाना ही बंद कर दिया था. जिससे बीकानेर के लोग धर्मेन्द्र से बहुत खफा हो गए थे.

सनी धर्मेन्द्र के बेटे हैं इसलिए गुरदासपुर के लोग जहां इस बात पर भी शंकित हो सकते हैं कि सनी कहीं धर्मेन्द्र की तरह राजनीति से जल्द बोर न हो जाएं. क्योंकि किसी पार्टी की लहर में छोटे बड़े सितारे अक्सर जीतते रहे हैं लेकिन सांसद बनने के बाद वे अपने फ़र्ज़ नहीं निभाते. ऐश ओ आराम की ज़िन्दगी में जीने वाले बहुत से सितारों के लिए भीषण गर्मी या सर्दी या तेज बरसात, बाढ़ या सूखे की स्थिति में अपने क्षेत्र के लोगों के बीच जाकर रहना, उनके दुःख तकलीफों को दूर करना लोहे के चने चबाने जैसा हो जाता है. इसलिए अब जनता फिल्म सितारों को सांसद चुनने से पहले सितारे का व्यक्तित्व और विचारों को अच्छे से परखती है.

सनी देओल यूं अपने कमिटमेंट के पक्के और बातें कम और काम ज्यादा वाले सितारे के रूप में जाने जाते हैं. रिश्ते निभाने और रिश्तों की कद्र और सम्मान के मामले में भी सनी देओल का रिकॉर्ड अच्छा है. धर्मेन्द्र लाख चाहते हैं कि उनका बेटा सनी उनके दोस्त की तरह उनके साथ गप शप करे, खाए-पिए. लेकिन सनी कहते हैं कि दोस्त तो बहुत हो सकते हैं लेकिन पिता एक ही होते हैं. इसलिए उनके साथ मैं दोस्त बनकर नहीं रह सकता. बड़ों का आदर सम्मान मेरा फर्ज है, मैं उससे पीछे नहीं हट सकता.

अपनी फिल्मों में देश भक्ति, वीरता और सैनिक अफसर के निभाए किरदार भी सनी देओल की अच्छी छवि को और भी मजबूत करते हैं. फिर सनी की एक और विशेषता उनका धैर्य भी है. अपनी पिछली कई फिल्मों की लगातार असफलता के बावजूद कभी भी सनी ने अपना धैर्य नहीं खोया. अपनी असफलताओं को भी वह हँसते मुस्कुराते स्वीकारते रहे हैं. राजनीति में सफल होने का भी यह बड़ा मन्त्र है. अब यह देखना निश्चय ही दिलचस्प रहेगा कि सनी देओल की यह राजनीति पारी कैसी रहेगी.

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(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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