लोकसभा चुनाव में अब 10 से 11 महीने का वक्त ही बचा है. 2014 से सत्ता पर काबिज बीजेपी अलग-अलग राज्यों में सियासी समीकरणों को साधने में जुटी है. वहीं कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दल भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी का तोड़ निकालने के लिए रणनीति बनाने में लगातार प्रयासरत हैं.
भले ही बीच-बीच में कुछ राज्यों में बीजेपी को हार का सामना करना पड़ रहा हो, लेकिन लोकसभा चुनाव में बीजेपी के वर्चस्व की काट खोजना विपक्षी दलों के लिए राजनीतिक तिलिस्म से कम नहीं है.
बिखरा विपक्ष बीजेपी के पक्ष में
बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का पिछले दो बार से लोकसभा चुनाव में जिस तरह से बोलबाला रहा है और 2024 में जो संभावना है, इसके लिहाज से बीजेपी को केंद्रीय स्तर पर टक्कर देने के लिए एक ऐसा विपक्ष चाहिए जो बिखरा हुआ नहीं हो. इसके लिए पिछले कुछ महीनों से केसीआर और इधर दो-तीन महीनों से नीतीश कुमार प्रयास में जुटे भी हैं. इस बीच राजनीति के दिग्गज माने जाने वाले शरद पवार ने भी ये जता दिया है कि बिना एकजुट हुए 2024 में बीजेपी को हराना बहुत मुश्किल है.
अब सवाल उठता है कि राष्ट्रीय स्तर पर क्या इस तरह की कोई विपक्षी एकता बन सकती है, जिसके तहत देश की ज्यादा से ज्यादा लोकसभा सीटों पर बीजेपी को वन टू वन फॉर्मूले के तहत चुनौती दी जा सके. कर्नाटक चुनाव से पहले इसको लेकर कोई साफ तस्वीर नहीं बन पा रही थी, लेकिन कर्नाटक में कांग्रेस को बीजेपी पर मिली बड़ी जीत से विपक्षी एकता के मुहिम को फिर से उभारने में मदद मिली है.
बीजेपी विरोधी वोटों का बिखराव कैसे रोकेगी कांग्रेस?
सबसे महत्वपूर्ण सवाल विपक्षी एकता के तहत बने मोर्चे की अगुवाई का है. जब केसीआर ने पिछले साल इस पहल को आगे बढ़ाने की कोशिश की थी तो, उनका ज़ोर गैर-बीजेपी और गैर-कांग्रेस मोर्चा बनाने पर ज्यादा था. हालांकि धीरे-धीरे बाकी पार्टियों को ये समझ आने लगी कि गैर-कांग्रेस विपक्षी मोर्चा एक तरह से बीजेपी के लिए फायदेमंद साबित होगा. धीरे-धीरे ये भी स्पष्ट होने लगा कि बीजेपी अभी केंद्रीय स्तर पर जितनी बड़ी राजनीतिक ताकत है, उसको 2024 में तभी चुनौती दी जा सकती है, जब उसके खिलाफ लोकसभा की ज्यादातर सीटों पर वन टू वन फॉर्मूले के साथ लड़ा जाए. कर्नाटक में कांग्रेस की जीत से इस बात को भी मजबूती मिली कि बीजेपी को हराने का सबसे कारगर तरीका यहीं है कि बीजेपी विरोधी वोटों का बिखराव कम से कम हो.
क्षेत्रीय पार्टियों के लिए निजी हित ज्यादा जरूरी
कर्नाटक की जीत के बाद ये तो संकेत मिल रहा है या दिख भी रहा है कि अलग-अलग राज्यों में मजबूत विपक्षी दल अब कांग्रेस को नेतृत्व देने के मूड में तो दिख रहे हैं, लेकिन वे ये भी चाहते हैं कि राज्य विशेष में उनकी पार्टी के हितों को कोई नुकसान नहीं पहुंचे और कांग्रेस इसके लिए बलिदान देने को भी तैयार रहे. ममता बनर्जी ने तो कांग्रेस को खुलकर ये नसीहत दे भी डाली है.
विपक्षी दलों में से एकमात्र पैन इंडिया पार्टी होने के नाते अब गेंद कांग्रेस के पाले में है. ये देखना महत्वपूर्ण होगा कि आने वाले वक्त में वो कैसे 2024 चुनाव से पहले बीजेपी के सामने मजबूत चुनौती पेश करने के लिए बिखरे विपक्ष को साध पाती है. ऐसे ये कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती है, लेकिन अगर कांग्रेस ने इसे साध लिया तो 2024 से पहले उसकी सबसे बड़ी ताकत भी यही बन सकती है.
कांग्रेस के साथ ही विपक्षी एकता की संभावना तलाशने के बीच जिन नेताओं का जिक्र ज्यादा हो रहा है, उनमें ममता बनर्जी, शरद पवार, उद्धव ठाकरे, अखिलेश यादव, नीतीश कुमार, तेजस्वी यादव, हेमंत सोरेन, अरविंद केजरीवाल, एम के स्टालिन और के चंद्रशेखर के साथ ही लेफ्ट दलों के नेता शामिल है. इनके अलावा मायावती, नवीन पटनायक जैसे नेता भी है जिनको विपक्ष के गठबंधन में शामिल करने की कोशिश होगी.
राज्य विशेष में कुछ पार्टियां हैं बहुत ताकतवर
ये जितने भी नेता हैं, उनकी पार्टी की भले ही राष्ट्रीय स्तर पर कोई बड़ा जनाधार नहीं है, लेकिन राज्य विशेष में इनमें से कुछ पार्टी सबसे बड़ी ताकत हैं तो कुछ दलों का राज्य की सत्ता में नहीं रहने के बावजूद अच्छा-खासा प्रभाव है. इनमें से उत्तर प्रदेश में जिस तरह का रुख बसपा प्रमुख मायावती और ओडिशा में बीजेडी प्रमुख नवीन पटनायक का है, उसको देखते हुए कहा जा सकता है कि इन दोनों के ही 2024 से पहले विपक्षी गठजोड़ में शामिल होने की संभावना बेहद ही क्षीण है. नवीन पटनायक ने तो अपनी बात से ये भी संकेत दे दिया है कि उनकी मंशा है कि 2024 में फिर से नरेंद्र मोदी ही प्रधानमंत्री बने.
केजरीवाल विपक्षी एकता से बना सकते हैं दूरी
इनके अलावा फिलहाल पंजाब और दिल्ली की सत्ता पर काबिज आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल को लेकर भी संशय बना ही रहेगा. इसके पीछे सबसे अहम वजह है कि केजरीवाल की पार्टी का कुनबा दिल्ली और पंजाब के साथ ही जिस तरह से धीरे-धीरे बाकी राज्यों में बढ़ रहा है, उसका आधार ही कांग्रेस के कमजोर होने पर टिका है. ऐसे में केजरीवाल कतई नहीं चाहेंगे कि विपक्षी एकता की मदद से कांग्रेस एक बार फिर अपना खोया हुआ भरोसा हासिल कर ले.
महाराष्ट्र में नहीं आएगी ज्यादा समस्या
जहां तक महाराष्ट्र का सवाल है तो एनसीपी प्रमुख शरद पवार ही विपक्ष में एक ऐसा नेता हैं, जो शुरू से कहते आ रहे हैं कि 2024 में कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्षी मोर्चा बनेगा, तभी सही मायने में उससे बीजेपी को चुनौती मिल सकती है. उद्धव ठाकरे की ओर से भी कांग्रेस के नेतृत्व पर कोई ज्यादा सवाल खड़ा नहीं होने वाला है. लोकसभा सीटों के लिहाज से महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश के बाद दूसरे नंबर पर आने वाला राज्य है. यहां कुल 48 लोकसभा सीटें हैं. शरद पवार और उद्धव ठाकरे के रुख को देखते हुए महाराष्ट्र में कांग्रेस के लिए सीट बंटवारे के गणित को साधने में ज्यादा परेशानी नहीं आने वाली है.
तमिलनाडु में भी कांग्रेस को नहीं आएगी मुश्किल
जहां तक तमिलनाडु की बात है तो यहां कांग्रेस और डीएमके के बीच की जुगलबंदी पुरानी रही है और अभी भी स्टालिन की पार्टी की अगुवाई में जो सरकार है, कांग्रेस उसका हिस्सा है. ऐसे भी यहां डीएमके का 2019 के लोकसभा और 2021 के विधानसभा चुनाव में जिस तरह का प्रदर्शन रहा है, उसको देखते हुए कांग्रेस 2024 में सीट को लेकर डीएमके से उलझने वाली नहीं है. 2019 के लोकसभा चुनाव में यहां की कुल 39 में से 38 सीटों पर डीएमके की अगुवाई वाले गठबंधन को जीत मिली थी, जिसमें डीएमके के खाते में 20 सीटें और कांग्रेस के खाते में 8 सीटें गई थी. वहीं 2021 के विधानसभा चुनाव में कुल 234 में से डीएमके को अकेले 133 सीटों पर और उसके सहयोगी कांग्रेस को 18 सीटों पर जीत मिली थी.
तमिलनाडु में 2019 में कांग्रेस 9 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ी और डीएमके के साथ उसका जिस तरह का तालमेल है, इसकी पूरी संभावना है कि 2024 में भी सीटों को लेकर दोनों के बीच कोई समस्या पैदा नहीं होने वाली है. ये भी तय है कि देशव्यापी स्तर पर विपक्ष का गठबंधन बने या न बने, तमिलनाडु में कांग्रेस और डीएमके मिलकर ही चुनाव लडेंगे.
केसीआर कांग्रेस की अगुवाई को नहीं करेंगे स्वीकार
जहां तक बीआरएस प्रमुख और तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव का सवाल है, वो बार-बार गैर-कांग्रेसी विपक्षी मोर्चा की बात ही करते रहे हैं. कर्नाटक में कांग्रेस की बड़ी जीत पर विपक्ष के तमाम बड़े नेताओं ने इसके लिए कांग्रेस को बधाई दी और उनमें से कुछ नेताओं ने विपक्ष की लामबंदी में कांग्रेस के नेतृत्व को लेकर सकारात्मक रुख दिखाया. लेकिन बड़े नेताओं में एकमात्र केसीआर ही ऐसे नेता हैं, जिन्होंने कर्नाटक में कांग्रेस की जीत को ज्यादा तवज्जो नहीं दी. उन्होंने तो इतना तक कह डाला कि कर्नाटक में कांग्रेस का चुनाव जीतना कोई बड़ा मुद्दा नहीं था. पार्टी नेताओं के साथ बैठक में 17 मई को केसीआर ने कहा कि कांग्रेस ने कई दशकों तक शासन करने के बाद देश को सभी मोर्चों पर विफल कर दिया. उन्होंने कहा कि तेलंगाना में कांग्रेस पर कोई भरोसा नहीं करेगा. साथ केसीआर ने अपने पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं को कर्नाटक के नतीजों को बहुत गंभीरता से नहीं लेने की भी नसीहत दे डाली.
विधानसभा चुनाव के बाद केसीआर का बदल सकता है रुख
फिलहाल केसीआर का जो रुख है, उसके हिसाब से कांग्रेस की अगुवाई वाले किसी भी गठबंधन में उनकी भागीदारी नज़र नहीं आती है. लेकिन आने वाले कुछ महीनों में उनका रुख बदल सकता है. ये इस साल के आखिर में तेलंगाना में होने वाले विधानसभा चुनाव नतीजों पर बहुत हद तक निर्भर करेगा. अगर उसमें केसीआर अपनी सत्ता बरकरार रखने में कामयाब होते हैं, तब तो उनकी सोच में ज्यादा बदलाव की संभावना नहीं है. लेकिन जिस तरह से बीजेपी पिछले कुछ सालों में तेलंगाना में अपना जनाधार धीरे-धीरे बढ़ाने में कामयाब हुई है, उसको देखते हुए अगर विधानसभा चुनाव में बीजेपी केसीआर को सत्ता से हटाने में कामयाब हो जाती है, तो शायद केसीआर का रुख 2024 के चुनाव को लेकर बदल सकता है. ऐसे भी तेलंगाना में लोकसभा की 17 सीट ही है और थोड़ी-सी भी संभावना बनती है तो 2024 में केसीआर वहां कांग्रेस को एक या दो से ज्यादा सीटें नहीं दे सकते हैं.
पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और केरल का कैसे निकलेगा तोड़?
कांग्रेस के लिए बिखरे विपक्ष को साधने के लिहाज से सबसे ज्यादा चुनौती 4 राज्यों पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, बिहार और केरल में आने वाला है. पश्चिम बंगाल में 42, उत्तर प्रदेश में 80, बिहार में 40 और केरल में 20 लोकसभा सीटें हैं. यानी इन चारों राज्यों को मिला दें तो कुल सीटें 182 हो जाती हैं. जिस तरह का रुख ममता और अखिलेश यादव का है, ये दोनों ही 2024 में कांग्रेस के साथ तालमेल करने पर इसी शर्त पर राजी होंगे कि पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस बेहद कम या फिर कहें कि इक्का-दुक्का सीटों पर चुनाव लड़े.
ममता बनर्जी ने तो कर्नाटक नतीजों के बाद साफ ही कर दिया है कि अगर कांग्रेस चाहती है कि बीजेपी के खिलाफ विपक्षी दलों का एक मजबूत गठबंधन बने तो उसके लिए कांग्रेस को कुछ राज्यों में कुर्बानी देनी होगी. जिन राज्यों का जिक्र ममता बनर्जी ने किया था, वे वहीं राज्य हैं, जिनका विवरण ऊपर दिया गया है. ममता बनर्जी के कहने का आशय है कि मौजूदा वक्त में पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के साथ ही लेफ्ट दलों का भी कोई ख़ास जनाधार रह नहीं गया है. 2019 में तो कांग्रेस सिर्फ दो ही लोकसभा सीट जीत पाई थी और सीपीएम का तो खाता भी नहीं खुला था. वहीं इसके बाद मार्च-अप्रैल 2021 में हुए विधानसभा चुनाव में तो कांग्रेस और सीपीएम दोनों ही एक-एक सीट जीतने के लिए तरस गए थे.
ममता बंगाल में सीटों पर नहीं करेंगी समझौता
ममता बनर्जी को ये एहसास हो गया है कि यहां बीजेपी विरोधी वोटों का बंटवारा टीएमसी, कांग्रेस-सीपीएम में होने पर सीधे सीधे नुकसान उनकी पार्टी को है और इसका लाभ उठाकर बीजेपी यहां सबसे ज्यादा सीटें जीतने में कामयाब न हो जाए. इसलिए वो चाहती हैं कि कांग्रेस पश्चिम बंगाल में 2024 में पूरी तरह से टीएमसी का साथ दे और इसके लिए कांग्रेस यहां को लेकर खुद के राजनीतिक मंसूबों के साथ समझौता कर ले.
अब ऐसे में ममता बनर्जी की पार्टी को साधने के लिए कांग्रेस को न सिर्फ़ खुद बलिदान देने के लिए तैयार रहना होगा. साथ ही लेफ्ट दलों को भी मनाना पड़ेगा कि पश्चिम बंगाल की ज्यादातर सीटों पर बीजेपी से सीधा मुकाबला टीएमसी का हो. कांग्रेस के लिए ये इतना आसान नहीं होगा. लेफ्ट दल ख़ासकर सीपीएम के लिए भी ये मानना बेहद मुश्किल है. भले ही सीपीएम पश्चिम बंगाल में 2019 आम चुनाव और 2021 के विधानसभा चुनाव में कोई सीट नहीं जीती हो, लेकिन दोनों ही चुनाव में वोट शेयर के मामले में सीपीएम कांग्रेस से बेहतर स्थिति में थी. इसके साथ ही अब सीपीएम अगर पश्चिम बंगाल से भी मोह-माया त्याग देगी को भविष्य में उसकी राजनीति सिर्फ़ केरल तक ही सिमट कर रह जाएगी.
यूपी में कांग्रेस को देनी होगी बड़ी कुर्बानी
उत्तर प्रदेश एक ऐसा राज्य है, जो केंद्र में सरकार बनाने के लिहाज से सबसे महत्वपूर्ण है. 2014 और 2019 दोनों ही आम चुनावों में बीजेपी की बड़ी जीत में उत्तर प्रदेश का काफी योगदान रहा था. 2014 में जहां बीजेपी ने सहयोगियों के साथ मिलकर यहां की 80 में से 73 सीटों पर कब्जा किया था, वहीं 2019 में बीजेपी और सहयोगियों की सीटें 64 रही थी.
एक समय था जब उत्तर प्रदेश कांग्रेस का गढ़ हुआ करता था. लेकिन पिछले 10 साल में यहां कांग्रेस की पकड़ बिल्कुल खत्म हो गई है. 2019 लोकसभा चुनाव में तो गांधी परिवार के सबसे मजबूत गढ़ अमेठी सीट से राहुल गांधी को हार का सामना करना पड़ गया था. उत्तर प्रदेश में 2014 में कांग्रेस को दो और 2019 में महज़ एक लोकसभा सीट पर जीत मिली थी. वहीं 2017 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ने के बावजूद कांग्रेस को सिर्फ 7 सीटें और 2022 के विधानसभा चुनाव में अकेले चुनाव लड़ने पर महज़ दो सीटें मिली थी. 2022 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का वोट शेयर सिर्फ़ 2.33% रहा था. 2019 के लोकसभा चुनाव में ये आंकड़ा 6.36% था.
उत्तर प्रदेश में पिछले दो लोकसभा और दो विधानसभा चुनाव को देखें तो, यहां के लोगों में कांग्रेस की छवि बेहद ही धूमिल हो चुकी है. यहां समाजवादी पार्टी और मायावती की पार्टी बसपा ही बीजेपी को चुनौती देने के नजरिए से ज्यादा मजबूत विपक्ष है. मायावती का रुख अकेले चुनाव लड़ने को लेकर है.
यूपी में अखिलेश चाहेंगे ज्यादा से ज्यादा सीट
ऐसे में अगर विपक्षी गठबंधन में अखिलेश यादव को साथ लाना है तो कांग्रेस को उत्तर प्रदेश का मोह-माया भी छोड़ना होगा. अखिलेश यादव चाहेंगे कि उनकी पार्टी ज्यादा से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़े. उनके पास कांग्रेस के साथ मिलकर 2017 का विधानसभा चुनाव लड़ने का अनुभव उतना अच्छा नहीं रहा. वहीं 2022 में कांग्रेस के बिना विधानसभा चुनाव लड़ी तो समाजवादी पार्टी का प्रदर्शन पिछली बार के मुकाबले काफी बेहतर रहा. समाजवादी पार्टी 64 सीटों के फायदे के साथ 111 विधानसभा सीटों पर जीतने में सफल रही. अखिलेश चाहेंगे कि 2024 में समाजवादी पार्टी यूपी की ज्यादा से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़े और कांग्रेस की जो हालत है वो चंद सीटों पर अपनी दावेदारी जताए. इस तरह से पश्चिम बंगाल के बाद उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को बिखरे विपक्ष को साधने में सबसे ज्यादा पसीना बहाना होगा.
बिहार में भी करना पड़ सकता है समझौता
जहां तक बात रही बिहार की तो यहां कांग्रेस, नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव के साथ सरकार में शामिल है. इसके बावजूद लोकसभा चुनाव में ज्यादातर सीटों पर महागठबंधन की जीत को सुनिश्चित करने और बीजेपी को ज्यादा नुकसान पहुंचाने के नजरिए से न तो तेजस्वी और न ही नीतीश कांग्रेस को मनमुताबिक सीटें देने को राजी होंगे. पिछले विधानसभा चुनाव में मिले अनुभव को देखते हुए तेजस्वी ख़ासकर वो ग़लती नहीं दोहराना चाहेंगे. बिहार में भी उत्तर प्रदेश की तरह ही कांग्रेस की स्थिति उतनी मजबूत नहीं है. 2014 में यहां कांग्रेस को 2 और 2019 में महज़ एक लोकसभा सीट पर जीत मिली थी.
बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में आरजेडी के साथ गठबंधन के तहत कांग्रेस 70 सीटों पर चुनाव लड़ी थी, जिसमें सिर्फ़ 19 पर उसे जीत मिली थी. वहीं आरजेडी 144 सीटों पर लड़कर 75 सीटों पर जीत दर्ज करने में सफल रही थी. उस वक्त नतीजों के बाद ये भी चर्चा का विषय था कि अगर तेजस्वी यादव ने कांग्रेस को इतनी ज्यादा सीटें चुनाव लड़ने के लिए न दी होती तो शायद वहां बीजेपी-जेडीयू की बजाय महागठबंधन को बहुमत हासिल हो सकता था. इन सब पहलू और नीतीश की पार्टी की सीटों पर हिस्सेदारी को देखते हुए बिहार में 2024 में कांग्रेस को अपने पंजे समेट कर रखना पड़ेगा, अगर वो देशव्यापी विपक्षी गठबंधन चाहती है.
झारखंड में सीट बंटवारे पर नहीं होगी दिक्कत
झारखंड में कांग्रेस को हेमंत सोरेन के साथ तालमेल बनाने में ज्यादा परेशानी नहीं होगी, वहां कांग्रेस और झारखंड मुक्ति मोर्चा पहले से ही गठबंधन के तहत चुनाव लड़ते आए हैं. हालांकि फिलहाल झारखंड में हेमंत सोरेन की सरकार है, जिसमें कांग्रेस भी भागीदार है, लेकिन पिछले तीन लोकसभा चुनाव में साथ रहने के बावजूद कांग्रेस-जेएमएम कुछ ज्यादा हासिल नहीं कर पाए थे. 2009 में इस गठबंधन को झारखंड की 14 लोकसभा सीटों में से सिर्फ़ 3 पर जीत मिली थी. वहीं 2014 और 2019 में ये आंकड़ा और कम होकर सिर्फ 2 ही रहा था.
केरल के गणित का तोड़ निकालना सबसे पेचीदा
बिखरे विपक्ष को साधने के नजरिए से केरल राज्य की भी अहम भूमिका है. केरल में 20 लोकसभा सीटें हैं. सबसे बड़ी समस्या है कि केरल में कांग्रेस और सीपीएम एक-दूसरे के विरोधी हैं और इस राज्य में राजनीति की धुरी कांग्रेस की अगुवाई वाली यूडीएफ और सीपीएम की अगुवाई वाली एलडीएफ के बीच मुकाबले के इर्द-गिर्द घूमती है.
केरल में बीजेपी की राजनीतिक हैसियत फिलहाल लोकसभा चुनाव में जीत के नजरिए से नहीं के बराबर है. ऐसे भी सीपीएम के नजरिए से त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल खोने के बाद केरल एकमात्र राज्य है, जहां उसकी सत्ता है. अगर यहां देशव्यापी गठबंधन के लिए कांग्रेस और सीपीएम 2024 के लोकसभा चुनाव में हाथ मिला लेते हैं, तो ये एक तरह से केरल में बीजेपी को जनाधार बढ़ाने का मौका मिल जाएगा. न तो सीपीएम ऐसा चाहेगी और न ही कांग्रेस. सीपीएम की तो राजनीति ही दांव पर आ जाएगी. यानी केरल में कांग्रेस और सीपीएम पहले की तरह ही 2024 में भी एक दूसरे को चुनौती देंगे, ये करीब-करीब तय है.
क्या सिर्फ़ 200 सीटों पर मान जाएगी कांग्रेस?
कर्नाटक में कांग्रेस की जीत के बाद ममता बनर्जी ने एक और बात का संकेत दिया था. ममता का कहना था कि कांग्रेस को उन राज्यों में क्षेत्रीय दलों का समर्थन करना चाहिए, जहां वे क्षेत्रीय दल काफी मजबूत हैं. ममता बनर्जी ने विपक्षी गठबंधन के तहत कांग्रेस के लिए 200 के आस-पास की सीटें भी बताने की कोशिश की थी.
ऊपर जिन राज्यों का जिक्र किया गया है, उनको छोड़कर विपक्षी गठबंधन के तहत जिन राज्यों में कांग्रेस के पास ज्यादा सीटों की दावेदारी बच जाती है, उनमें मोटे तौर पर बड़े राज्यों में राजस्थान की 25, गुजरात की 26, मध्य प्रदेश की 29, छत्तीसगढ़ की 11, ओडिशा की 21, असम की 14, तेलंगाना की 17, आंध्र प्रदेश की 25, कर्नाटक की 28 लोकसभा सीटें बच जाती हैं. इनके अलावा हिमाचल प्रदेश की 4, उत्तराखंड की 5 और हरियाणा की 10 सीटें भी हैं, जहां विपक्षी गठबंधन के तहत कांग्रेस की दावेदारी ज्यादातर सीटों पर रह सकती है. इन 12 राज्यों में कुल 215 लोकसभा सीटें हैं. देश के अलग-अलग राज्यों में जिस तरह के राजनीतिक हालात हैं, उसको देखते हुए विपक्षी गठबंधन बनने पर सीट बंटवारे के फॉर्मूले के तहत कांग्रेस के लिए सबसे ज्यादा मुफीद राज्य यही होंगे और ममता बनर्जी भी अपने बयानों से यही संकेत देना चाहती होंगी.
कांग्रेस के लिए नुकसान वाली बात ये हैं कि इन 12 राज्यों में से राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, असम, कर्नाटक, उत्तराखंड और हरियाणा में लोकसभा के नजरिए से बीजेपी काफी मजबूत है. वहीं ओडिशा में नवीन पटनायक बेहद मजबूत स्थिति में हैं. उसी तरह से तेलंगाना में केसीआर, आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी के सामने कांग्रेस का उभरना काफी मुश्किल है.
कुल मिलाकर 2024 के चुनाव में कांग्रेस के लिए राह आसान नहीं है. न तो बिखरे विपक्ष को एक साथ लाने के मोर्चे पर और न ही खुद के कई बड़े राज्यों में बेहतर प्रदर्शन करने के लिहाज से. लेकिन फिर भी कांग्रेस के पास विपक्ष को एक मंच पर लाने के अलावा कोई और बेहतर विकल्प नहीं है, जिससे 2024 में बीजेपी को चुनौती दी जा सके. विकास, अर्थव्यवस्था, साम्प्रदायिक आधार पर राजनीतिक गोलबंदी और वोटों का ध्रुवीकरण जैसे बाकी तमाम मुद्दों के साथ बिखरा विपक्ष और विरोधी वोटों का कई खेमों में बंटवारा 2024 में बीजेपी की सबसे बड़ी ताकत रहने वाली है.
(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)