लोकसभा चुनाव में अभी एक साल का वक्त बचा है. 2024 का आम चुनाव कई मायनों में भारतीय लोकतंत्र के लिए ऐतिहासिक साबित होने वाला है. अगर बीजेपी इस चुनाव में सत्ता बरकरार रखने में कामयाब रहती है, तो देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के बाद नरेंद्र मोदी ऐसे पहले शख्स होंगे जिनकी अगुवाई में कोई पार्टी लगातार तीन बार सत्ता हासिल करने में कामयाब होगी. वहीं कांग्रेस समेत कई विपक्षी दलों के लिए 2024 का चुनाव एक तरह से अस्तित्व की लड़ाई सरीखा है.
सारे विपक्षी दल बीजेपी और पीएम मोदी को इस रिकॉर्ड को बनाने से रोकने के लिहाज से चुनावी रणनीति बनाने का दंभ भर रहे हैं. लेकिन जिस तरह के प्रयास विपक्षी दलों के नेताओं की ओर से किए जा रहे हैं, उनसे ऐसा लगता है कि बीजेपी को जीतने के लिए खुद ज्यादा कुछ करने की जरूरत नहीं पड़ेगी, बल्कि विरोधी दलों की कवायद से उसके लिए 2024 की राह बेहद आसान हो जाएगी.
फिलहाल सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस के साथ ही अलग-अलग राज्यों में बड़ी राजनीतिक हैसियत रखने वाली विपक्षी पार्टियां भी गुणा-गणित में जुटी हैं. विपक्ष के सभी बड़े नेताओं की ओर से यही बयान दिया जा रहा है कि बीजेपी को किसी भी तरह से 2024 में जीतने नहीं देना है. इसी मुहिम के तहत 'कांग्रेस के बग़ैर तीसरा मोर्चा बनाने की' एक कोशिश की जा रही है.
अभी जो राजनीतिक स्थिति है, उसमें कांग्रेस के बग़ैर विपक्षी दलों का कोई भी गठजोड़ बनता है, वो एक तरह से बीजेपी के लिए ही फायदेमंद होगा, ये तय है. इसको समझने के लिए हम उन दलों और राज्यों के सियासी समीकरणों का विश्लेषण कर सकते हैं, जो तीसरा मोर्चा बनाने में बढ़-चढ़कर कर हिस्सा ले रहे हैं.
मार्च महीने की शुरुआत में 8 विपक्षी दलों के 9 नेताओं की ओर से हस्ताक्षर की गई एक चिट्ठी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भेजी गई थी. इसमें सीबीआई और ईडी जैसी केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग का मुद्दा उठाया गया था. इस चिट्ठी पर एनसीपी प्रमुख शरद पवार, तेलंगाना के मुख्यमंत्री और बीआरएस प्रमुख के. चंद्रशेखर राव, आम आदमी पार्टी के संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, टीएमसी प्रमुख और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान, आरजेडी नेता और बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव, नेशनल कांफ्रेंस के नेता फारूक अब्दुल्ला, शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) के नेता उद्धव ठाकरे और समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव ने हस्ताक्षर किए थे. दरअसल इस चिट्ठी पर हस्ताक्षर करने वाले नेता ज्यादातर उन्हीं पार्टियों के मुखिया है, जो तीसरे मोर्चे की संभावना को वास्तविक आकार देने के सियासी मंशा के साथ रणनीति बनाने में जुटे हैं. इन दलों के अलावा तृणमूल कांग्रेस और नवीन पटनायक की बीजू जनता दल को भी इस विपक्षी मोर्चे का हिस्सा बनाने की कोशिश हो रही है. मायावती की बीएसपी और नीतीश की जेडीयू का इस तीसरे मोर्चे के प्रति कोई रुचि नहीं दिख रही है. कांग्रेस और लेफ्ट के बिना तो मोटे तौर पर तीसरा मोर्चा के लिए इन्हीं दलों की प्रमुख भूमिका मानी जा सकती है.
ऐसे तो तीसरा मोर्चा को लेकर बीआरएस प्रमुख केसीआर पिछले कई महीनों से सक्रिय हैं, लेकिन ताजा घटनाक्रम के तहत इस दिशा में अखिलेश यादव और ममता बनर्जी की 17 मार्च को कोलकाता में हुई मुलाकात ने तीसरे मोर्चे से जुड़ी बहस को तेज़ कर दिया है.
एक बात स्पष्ट तौर से समझना होगा कि तीसरा मोर्चा के लिए हाथ-पैर मारने वाले सभी दल मौटे तौर से एक राज्य विशेष तक ही सीमित हैं. विपक्ष में अभी भी सिर्फ़ कांग्रेस ही एक ऐसी पार्टी है जिसका जनाधार कमोबेश देश के ज्यादातर राज्यों में दिखता है. ऐसे में 2024 चुनाव से पहले तीसरे मोर्चे ने आकार ले लिया तो ये बीजेपी को थाली में सजाकर ताज देने जैसा ही होगा क्योंकि इससे बीजेपी विरोधी वोट दो खेमे में बटेंगे और हो सकता है कि बीजेपी 2014 और 2019 से भी बड़ी जीत हासिल करने में कामयाब हो जाए.
तीसरे मोर्चे के लिए पहल करने वाले नेताओं से जुड़े राज्यों के सियासी विश्लेषण से ये स्पष्ट हो जाएगा कि कांग्रेस के बग़ैर कोई भी विपक्षी मोर्चा बीजेपी की राहों से कांटा कम करने का ही काम करेगा.
उत्तर प्रदेश में अखिलेश को नहीं मिलेगा फायदा
सीटों के लिहाज से उत्तर प्रदेश सबसे महत्वपूर्ण राज्य है. यहां की 80 लोकसभा सीटों पर बीजेपी को समाजवादी पार्टी, बीएसपी और कांग्रेस से चुनौती मिलने वाली है. जिस तीसरे मोर्चे की कल्पना की जा रही है, उसमें बीएसपी के होने की संभावना न के बराबर है. ये सच्चाई है कि पिछली बार यानी 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा और बसपा के बीच गठजोड़ था, लेकिन इस बार हालात बिल्कुल अलग हैं. जरा सोचिए कि जब पिछली बार सपा और बसपा एक साथ चुनाव लड़ी थी, तब भी बीजेपी अपने सहयोगियों के साथ 64 सीटें जीतने में कामयाब रही थी. इतना ही नहीं बीजेपी को अकेले ही करीब 50 फीसदी वोट हासिल हुए थे. तीसरा मोर्चा की कवायद में जुटे दलों में ऐसा कोई नहीं है, जिसका उत्तर प्रदेश में मामूली सा भी जनाधार हो और जिसके साथ आने से अखिलेश की पार्टी को कहीं फायदा मिल सकता हो. इस समीकरण में हम जयंत चौधरी की आरएलडी को शामिल नहीं कर रहे हैं क्योंकि वे पिछली बार भी सपा-बसपा गठबंधन के हिस्सा थे और उससे सपा-बसपा गठबंधन को नतीजों के लिहाज से कोई ख़ास फायदा नहीं मिला था.
ऐसा भी नहीं है कि अगर तीसरा मोर्चा बनता है तो, अखिलेश की पार्टी दूसरे राज्यों में किसी दल को कोई बड़ा लाभ पहुंचा सकते हैं. पिछली बार के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में एक सीट पर जीत मिली थी, लेकिन वो 6 फीसदी से ज्यादा वोट हासिल करने में कामयाब रही थी. अब अगर 2024 में सपा, बसपा और कांग्रेस अलग-अलग चुनाव लड़ती है, तो बीजेपी के लिए 70 से ज्यादा सीटों पर जीतने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है. उत्तर प्रदेश में भले ही कांग्रेस की हैसियत बहुत ज्यादा नहीं रह गई हो, लेकिन सपा, बसपा और कांग्रेस के गठबंधन के जरिए ही बीजेपी की राह में कुछ कांटों की संभावना बन सकती है. ऐसे में साफ है कि तीसरा मोर्चा बनना सीटों के लिहाज से देश के सबसे बड़े राज्य में बीजेपी की जीत ही सुनिश्चित करेगी.
अखिलेश मजबूत विपक्षी मोर्चा को लेकर नहीं हैं गंभीर
ममता बनर्जी से मुलाकात के बाद अखिलेश यादव ने जिस तरह का बयान दिया है, उससे तो यही जाहिर होता है कि केंद्र में बीजेपी के विजय रथ को रोकने की बजाय उनकी ज्यादा रुचि कांग्रेस से दूरी बनाए रखने में है. उनके बयानों में ही विरोधाभास है. एक तरफ तो वे कहते हैं कि विपक्षी मोर्चा में कौन होगा ये ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि बीजेपी देश को बर्बाद कर रही है और उसे हटाना ज्यादा महत्वपूर्ण है और हम बीजेपी को हराने के लिए ममता बनर्जी के साथ खड़े हैं. वहीं दूसरी तरफ अखिलेश कहते हैं कि समाजवादी पार्टी, बीजेपी और कांग्रेस दोनों से समान दूरी बनाकर चलेगी. शायद वो ये बात भूल रहे हैं कि विपक्षी गठबंधन में कांग्रेस के न होने से बीजेपी को सत्ता वापसी में रोकने के बारे में सोचना..जागकर ख्वाब देखने के समान है क्योंकि इस वक्त बीजेपी जितनी मजबूत है, उसको चुनौती देना फिलहाल बेहद दुरूह कार्य है. हालांकि अतीत के अनुभव की वजह से कांग्रेस से दूर रहना अखिलेश की मजबूरी है क्योंकि जिस तरह की छवि कांग्रेस की बनी हुई है, उससे शायद अखिलेश को ये डर सता रहा है कि उत्तर प्रदेश में उनकी पार्टी को नुकसान न उठाना पड़ जाए. 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से गठजोड़ का खामियाजा अखिलेश यादव की पार्टी को भुगतना पड़ा था और उनके हाथ से यूपी की सत्ता निकल गई थी. जैसे ही 2022 में समाजवादी पार्टी, कांग्रेस से दूरी बनाकर विधानसभा चुनाव लड़ी, उसके प्रदर्शन में सुधार भी दिखा. ये अनुभव ही अखिलेश को कांग्रेस से दूरी बनाने के लिए मजबूर कर रहा है. लेकिन अगर वे सचमुच में चाहते हैं कि विपक्षी दल गठबंधन बनाकर बीजेपी को हराने के बारे में सोचें, तो ये कांग्रेस को शामिल किए बिना मुमकिन नहीं है.
महाराष्ट्र में बीजेपी की राह होगी आसान अगर..
लोकसभा सीटों के लिहाज से यूपी के बाद महाराष्ट्र का नंबर आता है. यहां लोकसभा की 48 सीटें हैं. फिलहाल इसकी संभावना बन रही है कि यहां महाविकास अघाड़ी के तहत एनसीपी, शिवसेना (उद्धव गुट) और कांग्रेस तीनों मिलकर 2024 का चुनाव लड़ेंगे. अगर ऐसा होता है तो राष्ट्रीय स्तर पर जिस तीसरे मोर्चे की कवायद जारी है, उसमें शरद पवार की एनसीपी की भूमिका खत्म हो जाएगी और अगर एनसीपी तीसरा मोर्चा का हिस्सा बनती है, तो फिर महाराष्ट्र में उसे कांग्रेस से दूरी बनानी पड़ेगी. ऐसे भी पिछले 10 महीने में महाराष्ट्र का सियासी समीकरण पूरी तरह से बदल गया है. शिवसेना (एकनाथ शिंदे गुट) के साथ आने से 2024 में महाराष्ट्र में बीजेपी को कितना फायदा मिलेगा ये तो अगले साल ही पता चलेगा, लेकिन इतना तय है कि सूबे में एनसीपी और शिवसेना (उद्धव गुट) बग़ैर कांग्रेस बीजेपी के लिए बहुत बड़ा खतरा साबित नहीं होंगे. किसी तरह से अखिलेश और केसीआर अगर कांग्रेस से दूरी बनाकर शरद पवार और उद्धव ठाकरे को तीसरा मोर्चा में आने को मना लेते हैं तो यहां भी विरोधी वोटों का बंटवारा होगा, जिसका सीधा फायदा बीजेपी को मिलेगा. पिछली बार शिवसेना के साथ मिलकर चुनाव लड़ते हुए बीजेपी ने 23 सीटों पर जीत हासिल की थी. तीसरा मोर्चा और कांग्रेस के अलग चुनाव लड़ने की संभावना से बीजेपी के लिए एकनाथ शिंदे के साथ मिलकर इस आंकड़े को 35 तक ले जाना आसान हो सकता है.
पश्चिम बंगाल में ममता के लिए है नुकसानदायक
पश्चिम बंगाल में भी जिस तरह के सियासी समीकरण हैं, उसमें तीसरा मोर्चा ममता बनर्जी के लिए ही नुकसानदायक है. ये हम सब जानते हैं कि 2019 के लोकसभा चुनाव से ही पश्चिम बंगाल में बीजेपी एक बड़ी राजनीतिक ताकत बन चुकी है. उस वक्त बीजेपी को राज्य की 42 में से 18 लोकसभा सीटों पर जीत मिली थी और उसका वोट शेयर भी 40 फीसदी से पार कर गया था. उसके बाद से बीजेपी बंगाल में मजबूत ही हुई है. 2021 के विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी का वोट शेयर करीब 38 फीसदी रहा. इसकी पूरी संभावना है कि पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और लेफ्ट दल मिलकर चुनाव लड़ेंगे. 2021 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस-लेफ्ट गठबंधन को 10 फीसदी के करीब वोट हासिल हुए थे. वहीं 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और लेफ्ट के वोट शेयर मिला दें तो ये 12 फीसदी से ज्यादा था. 2024 में यहां तीन धड़े होंगे जिसका सीधा फायदा बीजेपी को मिलेगा क्योंकि टीएमसी के साथ ही कांग्रेस-लेफ्ट का राष्ट्रीय एजेंडा यही है कि बीजेपी की जीत पर अंकुश लगाया जाए. लेकिन पश्चिम बंगाल में बीजेपी विरोधी वोटों का बंटवारा टीएमसी और कांग्रेस-लेफ्ट के बीच होगा. ऐसा होने पर पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनाव के नजरिए से बीजेपी का दबदबा और बढ़ सकता है. ये भी तय है कि ममता कभी भी पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और लेफ्ट के साथ तालमेल नहीं करेगी क्योंकि ये बंगाल में उनकी पार्टी की राजनीति के लिए आत्मघाती कदम साबित हो सकता है.
बिहार में तो तीसरे मोर्चे की कोई संभावना नहीं
केंद्र में सत्ता के नजरिए से उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल के बाद बिहार सबसे महत्वपूर्ण राज्य है. ये भी हम सब जानते हैं कि यहां फिलहाल नीतीश की जेडीयू, तेजस्वी यादव की आरजेडी और कांग्रेस की सरकार है. 2014 और 2019 में यहां की जनता का भरपूर साथ बीजेपी को मिला था. लेकिन इस बार हालात बिल्कुल जुदा है. अगर बीजेपी को बड़े राज्यों में से किसी राज्य में सीटों के नुकसान का सबसे बड़ा डर है तो वो है बिहार क्योंकि यहां पहली बार ऐसा हो रहा है कि लोकसभा चुनाव में जेडीयू, आरजेडी और कांग्रेस एक साथ होंगे. इसके पहले हुए दोनों लोकसभा चुनाव में से 2019 में बीजेपी और जेडीयू का गठबंधन था, वहीं 2014 में बीजेपी, आरजेडी और जेडीयू तीनों ही अलग-अलग चुनाव लड़े थे. नीतीश कुमार अपनी बातों से पहले ही संकेत दे चुके हैं कि बीजेपी के खिलाफ बिना कांग्रेस के राष्ट्रीय स्तर पर किसी भी तरह की एकजुटता को कोई ख़ास महत्व नहीं है. ये भी सच है कि सियासी समीकरण और गठबंधन की वजह से भले ही बिहार में बीजेपी का पिछले दोनों लोकसभा चुनाव में बेहतर प्रदर्शन रहा था. जेडीयू, आरजेडी और कांग्रेस के सीट भले ही इधर-उधर होते रहे हैं, लेकिन इनके वोट बैंक में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं होता रहा है. और अगर इन तीनों का वोट एक साथ मिल जाए, तो ये बिहार में बीजेपी के खिलाफ बहुत ही घातक गठजोड़ बन जाता है. 2019 के हिसाब से ये आंकड़ा करीब 45 फीसदी तक पहुंच जाता है. नीतीश के साथ ही तेजस्वी भी नहीं चाहेंगे कि तीसरा मोर्चा की वजह से बीजेपी को यहां लाभ मिल पाए.
तेलंगाना में भी बग़ैर कांग्रेस केसीआर को ही होगा नुकसान
विपक्ष के इन चेहरों के अलावा तीसरा मोर्चा के लिए जिन दो नेताओं की राजनीतिक सक्रियता ज्यादा दिख रही है, उनमें बीआरसी प्रमुख केसीआर और आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल हैं. सबसे पहले तेलंगाना और केसीआर की बात करते हैं. 2024 से पहले इस साल के अंत में तेलंगाना में विधानसभा चुनाव भी होना है. चाहे विधानसभा चुनाव हो या फिर आगामी लोकसभा चुनाव यहां केसीआर की पार्टी को बीजेपी से चुनौती मिलने वाली है, ये भी तय है. विपक्षी मोर्चाबंदी से कांग्रेस को दूर रखने में के. चंद्रशेखर राव वैचारिक स्तर पर सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं. ये नहीं भूलना चाहिए कि तेलंगाना से बाहर किसी और राज्य में उनकी पार्टी का कोई ख़ास राजनीतिक आधार नहीं है. तेलंगाना में भी महज़ 17 लोकसभा सीटें ही हैं. 2019 में बीजेपी को इनमें से 4 सीटों पर जीत मिली थी और 2024 में उसे इससे ज्यादा ही सीटें मिलने की संभावना है. अभी भी तेलंगाना उन चुनिंदा राज्यों में शामिल है, जहां कांग्रेस थोड़ी बहुत मजबूत स्थिति में है. 2019 में कांग्रेस को यहां 3 सीटों पर जीत मिली थी और उसका वोट शेयर भी 29.48% रहा था. 2018 के विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस का वोट शेयर 28 फीसदी से ज्यादा था. ऐसे में केसीआर की कांग्रेस से दूरी तेलंगाना में भी हर नजरिए से बीजेपी के लिए ही फायदेमंद साबित होगा.
केजरीवाल सिर्फ अपना फायदा देख रहे हैं
अब बात करते हैं अरविंद केजरीवाल की. आम आदमी पार्टी अब राष्ट्रीय पार्टी बन चुकी है. दिल्ली के साथ ही पंजाब में भी उसकी सरकार है. अरविंद केजरीवाल को ये अच्छे से पता है कि देशव्यापी स्तर पर कांग्रेस जितना कमजोर होते जाएगी, उनकी पार्टी को उतना ही फायदा होगा और यही वजह है कि वे चाहते हैं कि विपक्षी मोर्चाबंदी में कांग्रेस से दूरी बनाई जाए. इसकी भी पूरी संभावना है कि फिलहाल आम आदमी पार्टी की जो स्थिति है, उसके मुताबिक लोकसभा चुनाव में दिल्ली और पंजाब के बाहर उसे शायद ही किसी सीट पर जीत मिले. पिछले दो बार की तरह दिल्ली की सातों लोकसभा सीटें बीजेपी जीतना चाहेगी. विधानसभा में भले ही बीजेपी और नरेंद्र मोदी का जादू नहीं चलता हो, लेकिन लोकसभा चुनाव में दिल्ली की जनता का भरपूर प्यार बीजेपी को मिलता रहा है. 2024 में इसमें केजरीवाल बाधा बन सकते हैं, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है. लेकिन अगर दिल्ली में केजरीवाल लोकसभा चुनाव में कांग्रेस से दूरी बनाए रखते हैं, तो बीजेपी की राह उतनी मुश्किल नहीं होगी. ये नहीं भूलना चाहिए कि 2019 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को दिल्ली में 22 फीसदी से ज्यादा वोट हासिल हुए थे. ये आम आदमी पार्टी को मिले वोट से 4 फीसदी से ज्यादा था. अगर केजरीवाल और कांग्रेस एक ही पाले में आ जाते हैं, तो दिल्ली में बीजेपी के लिए ज्यादा मुश्किलें पैदा हो सकती है. हालांकि केजरीवाल की भविष्य के नजरिए से राजनीतिक महत्वाकांक्षा को देखते हुए इसकी उम्मीद बहुत कम ही है कि वे कांग्रेस के साथ जाएंगे और यहीं वजह है कि दिल्ली में तीसरा मोर्चा बनने से बीजेपी को ही फायदा मिल सकता है.
लोकसभा चुनाव 2024 के संदर्भ में इन नेताओं और दलों के अलावा बड़े स्तर पर और कोई नहीं बचता है, जो तीसरा मोर्चा के लिहाज से बहुत मायने रखता हो. इन अनुमानों और विश्लेषण के आधार पर तो यही कहा जा सकता है कि 2024 में बीजेपी को राष्ट्रीय स्तर पर किसी भी प्रकार की चुनौती देने के लिए कांग्रेस के साथ ही विपक्षी मोर्चा का विकल्प है, जो कम या ज्यादा कारगर साबित हो सकता है. अगर ऐसा नहीं होता है तो चुनाव पूर्व तीसरा मोर्चा जैसा कोई भी विपक्षी गठबंधन बीजेपी के लिए बूस्टर का ही काम करेगा. वैसे भी तीसरा मोर्चा जैसी अवधारणा भारतीय राजनीति में तभी कारगर हो सकती है, जब उसमें कुछ ऐसे दलों का जुड़ाव हो, जिनका जनाधार एक से ज्यादा राज्यों में हो, जो फिलहाल भारत में नहीं दिखता है.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]