सरयू, गंगा और गोमती ही लगाएंगी भाजपा की नैय्या पार..

ऐसा कहा जाता है कि दिल्ली का रास्ता लखनऊ हो कर के गुजरता है जिसका सीधा सा अर्थ है कि बिना उत्तर प्रदेश की सियासत को साधे कोई भी दल या गठबंधन केंद्र में अपनी सरकार नहीं बना सकता है. भारत के संविधान में निहित संसदीय प्रणाली में सर्वाधिक जनसंख्या वाले प्रदेश, यानी उत्तर प्रदेश, जहां भारत की सर्वाधिक (अस्सी) लोक सभा सीटें भी है, का विशेष स्थान है. अटल बिहारी वाजपेई से लेकर नरेंद्र मोदी तक, भारत को नौ प्रधानमंत्री देने वाले प्रदेश की राजनीति में हुई हर छोटी-बड़ी घटना को भारत का ही नहीं, बल्कि वैश्विक मीडिया भी बड़ी बारीकी से देखता है. 2014 और 2019 में केंद्र में सत्ता प्राप्त करने वाली भाजपा का बेड़ा पार लगाने में उत्तर प्रदेश का तो निर्णायक योगदान रहा है, जिसने भाजपा और उसके सहयोगी दल को क्रमश 73 और 64 सांसद चुन कर दिए.
इसी संख्या बल पर प्रधानमंत्री मोदी केंद्र की सत्ता पर काबिज़ हो सके. गुजरात के मुख्यमंत्री होने के बावजूद अगर मोदी ने वाराणसी से लोकसभा सदस्य बनना चुना तो इसके पीछे विशुद्ध गणित यह था कि बिना उत्तर प्रदेश में कदम रखे संसद में बहुमत के लिए आवश्यक 272 के मायावी आंकड़े को छूना लगभग असम्भव है. मौजूदा परिस्थितियों में भी यह लगभग तय माना जा रहा है की प्रधानमंत्री मोदी 2024 के लोकसभा चुनाव में भी कम से कम वाराणसी से तो पर्चा दाखिल करेंगे ही, भले ही पार्टी उनकी लोकप्रियता का लाभ उठाने के लिए उनको देश के किसी अन्य राज्य से भी चुनाव लड़ा दे.
2014 के लोकसभा चुनाव में शानदार प्रदर्शन
जब 2014 में मोदी ने गुजरात से वाराणसी कूच किया तब यूपी भाजपा के हालात बहुत अच्छे नहीं थे. पार्टी में न तो कोई उत्साह था और न ही कोई ऐसा नेतृत्व जो सभी नेताओं और कार्यकर्ताओं को साथ ले कर चल सके. ऐसे में लोकसभा चुनाव के कुछ समय पहले एंट्री होती है मोदी के सबसे विश्वसनीय माने जाने वाले और उनकी तरह ही संघ की पृष्ठभूमि से आने वाले अमित शाह की, जिनको यूपी के प्रभारी के रूप में भेजा जाता है. शाह अपने साथ आरएसएस के छात्र संगठन एबीवीपी (अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद) के संगठन मंत्री रहे सुनील बंसल को पार्टी के प्रदेश संगठन महामंत्री के रूप में लेकर आते है. यहां से पार्टी का कायाकल्प होना शुरू हो जाता है. शाह और बंसल पार्टी के सभी वरिष्ठ नेताओं के आपसी मतभेद को समाप्त कर के एक साथ लाते है, संघ से समन्वय स्थापित करते हैं और संगठन में व्यापक बदलाव करते हैं. इसके इतर वो सपा, बसपा और कांग्रेस के मजबूत जनाधार वाले नेताओं को भी भाजपा में शामिल करवाते हैं जिससे पार्टी की पैठ प्रदेश के उन क्षेत्रों और सामाजिक वर्गों तक भी हो जाती है, जहां पर पहले भाजपा नही पहुंच पाई थी. इन सब प्रयासों का नतीजा यह निकलता है कि जो पार्टी 2009 के लोकसभा और 2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अपने निम्न स्तर पर थी, वो 2014 के लोकसभा चुनाव में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए 73 सीटें जीतने में सफल हो जाती है.
कल्याणकारी योजनाओं से हुआ भाजपा को फायदा
हालांकि, भाजपा और अमित शाह इस ऐतिहासिक जीत से संतुष्ट नहीं होते हैं, बल्कि और अधिक मेहनत से 2017 के यूपी विधानसभा चुनावों पर लग जाते हैं. पार्टी का प्रमुख मुकाबला यूपी में सत्तारूढ़ दल समाजवादी पार्टी से था, जो अखिलेश यादव के नेतृत्व में दोबारा सत्ता हासिल करने के प्रयास कर रही थी. अपने पिता के साथ चल रहे घरेलू क्लेश और सपा सरकार के खिलाफ लग रहे भ्रष्टाचार और तुष्टीकरण के आरोपों के बीच सपा राहुल गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस के साथ 2017 के यूपी चुनावों के लिए गठबंधन कर लेती है. हालांकि इसका कोई लाभ पार्टी को नहीं होता है और भाजपा प्रचंड बहुमत के साथ उत्तर प्रदेश में लंबे समय बाद सरकार बनाने में सफल रहती है. जीत के बाद प्रदेश की कमान गोरखपुर के सांसद और भाजपा के फायरब्रांड नेता माने जाने वाले गोरक्षपीठ के महंत योगी आदित्यनाथ को दे दी जाती है.
2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को मोदी सरकार की कल्याणकारी योजनाओं, विचारधारा से जुड़े मुद्दों और योगी द्वारा राज्य की कानून व्यवस्था और संरचनात्मक ढांचे को सुधारने का फायदा मिलता है जिसके दम पर पार्टी न सिर्फ यूपी में दोबारा अपना जादू चलाने में कामयाब होती है, बल्कि सपा-बसपा के साथ आकर लड़ने और भाजपा को हराने की योजना को भी चकनाचूर कर देती है. 2022 का यूपी विधानसभा चुनाव भाजपा मोदी योगी की जुगलबंदी के माध्यम से लड़ती है जिसमे केंद्र और राज्य सरकार की कल्याणकारी योजनाओं, महिला सुरक्षा, आर्थिक विकास जैसे मुद्दों को मतदाताओं के बीच रखा जाता है. जनता भी इन विषयों को हाथों हाथ लेती है और योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली भाजपा को पुनः अपनी सरकार बनाने का अवसर मिलता है. इस बार भी भाजपा का प्रमुख मुकाबला अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली सपा से ही होता है और एक समय यूपी में अपना अच्छा खासा वर्चस्व रखने वाली बसपा और कांग्रेस कहीं भी मुकाबले में नज़र नहीं आती.
भाजपा अपने अच्छे दौर से गुजर रही है
साल 2024 का लोकसभा चुनाव ऐसे समय पर हो रहा है जब भाजपा अपने सबसे अच्छे दौर में है. एक ओर अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के कारण पार्टी के प्रति जनता में समर्थन बढ़ा है, वहीं योगी सरकार ने सात सालों से जिस तरह से प्रदेश की अर्थव्यवस्था को सुधारा है, उसकी चर्चा आज पूरे विश्व में की जा रही है. अपराध और गुंडागर्दी के लिए कुख्यात प्रदेश आज सर्वाधिक एक्सप्रेसवे और मेट्रो होने पर ख्याति प्राप्त कर रहा है. उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था भारत की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में उभरी है, जिसका श्रेय केंद्र की मोदी सरकार के प्रोत्साहन और प्रदेश की योगी सरकार की 'प्रो इन्वेस्टमेंट' नीतियों को दिया जा रहा है. सबसे खास बात यह है कि आर्थिक रूप से पिछड़े क्षेत्र पूर्वांचल और बुंदेलखंड पर भी सरकार द्वारा उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए विशेष ध्यान दिया जा रहा है.
वहीं दूसरी ओर प्रमुख विपक्षी दल सपा में सब कुछ ठीक तो नही चल रहा है. सपा प्रमुख अखिलेश यादव भले ही भाजपा को हराने के लिए इंडी गठबंधन को मजबूत करने की वकालत कर रहे हों, लेकिन उनकी अपनी ही पार्टी में बगावती सुर थमने का नाम नहीं ले रहे हैं, जिसकी एक बानगी हमने हालिया राज्यसभा चुनावों में देखी जहां सपा के ही 8 विधायकों ने पार्टी के प्रत्याशी को वोट न देकर निर्दलीय को जीतने में सहयोग दे दिया.
क्या कमाल करेंगे अखिलेश यादव
इसके अतिरिक्त अखिलेश के दो पुराने सहयोगी सुभासपा के ओम प्रकाश राजभर और आरएलडी के जयंत चौधरी भी उनका साथ छोड़ एनडीए में शामिल हो चुके हैं, जिनके विधायकों को कैबिनेट विस्तार में मंत्री बनाया जा चुका है. दोनो ने ही सपा के साथ अपने गठबंधन को टूटने के लिए अखिलेश यादव को ही जिम्मेदार ठहराया है. वहीं दूसरी ओर अपने विवादित बयानों से चर्चा में रहने वाले स्वामी प्रसाद मौर्य भी सपा छोड़ कर अपनी अलग पार्टी बनाने का ऐलान कर चुके हैं. ऐसे में यह देखना दिलचस्प रहेगा कि क्या कांग्रेस के साथ गठबंधन कर के अखिलेश वो कमाल कर पाएंगे जिसका प्रयास वो 2017 से करते चले आए हैं.
लोकसभा चुनाव के तत्काल पहले किए जा रहे अंतिम कैबिनेट विस्तार के माध्यम से भाजपा न केवल क्षेत्रीय एवं जातिगत समीकरणों को साधने की कोशिश करेगी, बल्कि अपने गठबंधन के साथियों को भी एक पॉजिटिव संदेश देना चाहेगी, जिससे उनकी पार्टी के नेता भी पूर्ण रूप से भाजपा को प्रचंड जीत की ओर ले जाने में अपना सहयोग दें. ऐसे में यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भारतीय जनता पार्टी के अच्छे प्रदर्शन को लेकर जो निश्चिंतता जताई जा रही है उसके पीछे तीन प्रमुख फैक्टर सरयू (हिंदुत्व), वाराणसी (पीएम मोदी) और गोमती (सीएम योगी) हैं. यही तीन फैक्टर 2024 में यूपी में भाजपा की नैय्या पार लगाएंगी.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]
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