लोकसभा चुनावों से ऐन पहले नवीन पटनायक ने एक जबरदस्त दांव चला है. उन्होंने ऐलान किया है कि उनकी पार्टी बीजू जनता दल आने वाले चुनावों में 33% टिकट महिला उम्मीदवारों को देगी. मतलब टिकट बंटवारे में आरक्षण देने की बात कह दी गई है. बाकी की पार्टियां इसे चुनावी स्टंट बता रही हैं लेकिन नवीन पटनायक ने बाजी लूट ली है. महिला आरक्षण का मुद्दा फिर गरमा रहा है. पिछले साल उनकी सरकार ओडिशा विधानसभा में महिला आरक्षण से संबंधित एक प्रस्ताव पारित करवा चुकी है. इस प्रस्ताव में संसद और विधानसभाओं में महिलाओं को 33% आरक्षण देने का प्रावधान है. फिलहाल ओडिशा की विधानसभा में 147 में से सिर्फ 12 महिलाएं हैं. तो, लकीऱ खींची जा चुकी है. अब इसे और लंबा कौन करता है, यह देखना है.
यूं देखा यह भी जाना चाहिए कि किस पार्टी ने पिछले लोकसभा चुनावों में औरतों पर भरोसा जताया था. लोकसभा में इस समय सिर्फ 66 महिला सांसद हैं जोकि कुल सांसदों का लगभग 11% है. इसका कारण है कि 2014 में कुल 8251 उम्मीदवारों में महिला उम्मीदवार सिर्फ 668 थीं. इनमें से भी 206 स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ रही थीं. इसके असली दोषी राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय राजनैतिक दल थे. जैसे सत्तारूढ़ भाजपा ने जिन 428 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए थे, उनमें महिलाओं की संख्या सिर्फ 38 थीं. पार्टी ने सिर्फ 8.8% औरतों को टिकट दिया था. कांग्रेस भी इस मामले में कम नहीं थी. उसनें 464 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे, लेकिन इनमें महिला उम्मीदवार 60 थीं. मतलब सिर्फ 12.9% औरतों पर विश्वास किया गया था.
2014 में अन्नाद्रमुक की कमान जयललिता के हाथों में थी लेकिन उनकी पार्टी ने भी 40 में से सिर्फ 4 सीटों पर औरतों को चुनावी मैदान में उतारा था. मायावती का हाल तो और भी बुरा था. उनकी बसपा ने भले ही 503 सीटों पर अपनी किस्मत आजमाई थी लेकिन कुल 27 महिलाओं को ही टिकट दिया था. सिर्फ ममता बैनर्जी की तृणमूल कांग्रेस इस मामले में अव्वल थी. उसने 45 सीटों पर चुनाव लड़ा था और 15 महिलाओं को टिकट दिए थे. कुल मिलाकर टिकट बंटवारे में 33% आरक्षण हो ही गया था. हालांकि यह कोई रूल नहीं था. अब नवीन पटनायक ने इसे एक नियम की तरफ फॉलो करने की बात कही है.
मतलब पहले चुनावी टिकट दो, तब न कहीं जाकर औरतें संसद और विधानसभाओं में पहुंचेंगी. जिन्हें डिसिजन मेकिंग पद कहते हैं, उन पर काबिज होंगी. शुरुआत कहीं से तो हो. वरना हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और. पांच साल में भाजपा बहुमत में होने के बावजूद जिस महिला आरक्षण विधेयक को पास नहीं करवा पाई, कांग्रेस उसी को सालों लटकाए रही. अब राहुल गांधी के यह कहने से काम चलने वाला नहीं है कि सरकार में आएंगे तो महिलाओं को 33% आरक्षण दिलाएंगे. जब नौ मन तेल होगा, तभी तो राधा नाच-नाच कर सबको रिझाएगी.
वैसे यह सिर्फ हमारे देश का नहीं, दुनिया भर का सच है कि औरतों को प्रभावशाली पदों पर पहुंचते मर्द देखना नहीं चाहते. उनकी कमांडिंग पोजीशन मर्दों को खतरे की घंटी लगती है. वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की ग्लोबल जेंडर पे रिपोर्ट में एक राजनैतिक सशक्तीकरण का सब इंडेक्स भी है. यह बताता है कि पश्चिमी देशों में राजनैतिक पदों पर महिलाओ और पुरुषों के बीच अंतर सबसे ज्यादा है. यानी हम आगे की तरफ नहीं बढ़ रहे, पीछे जा रहे हैं. फिर औरतें अगर संसद में पहुंच भी जाती हैं तो भी मंत्री नहीं बनाई जातीं. औसत पांच पुरुष मंत्रियों पर सिर्फ एक महिला मंत्री होती है. फ्रांस, स्पेन और कनाडा में जितने पुरुष मंत्री हैं, लगभग उतनी ही महिला मंत्री भी. लेकिन यह अपवाद ही है. अधिकतर महिला मंत्रियों को हल्के-फुल्के, या जिसे यूएन विमेन सॉफ्ट इश्यू पोर्टफोलियो कहता है, मंत्रालय दिए जाते हैं. जैसे सामाजिक मामले और परिवार कल्याण. हां, यह बात भी है कि सिर्फ टॉप पर पहुंचने से इस बात की कोई गारंटी नहीं हो जाती कि औरतों को ज्यादा से ज्यादा प्रतिनिधित्व मिलेगा. प्रधानमंत्री के तौर पर इंदिरा गांधी और फिलहाल सुषमा स्वराज जैसी विदेश मंत्री और निर्मला सीतारमण जैसी रक्षा मंत्री के बावजूद हमारी संसद में कुल 66 महिलाएं ही हैं.
फिर भी फर्क तो पड़ता ही है. 2005 से जर्मनी के चांसलर पद पर काबिज एंजेला मार्केल ने अपने उत्तराधिकारी के रूप में एक दूसरी महिला एनग्रेट क्रैम्प कैरेनबार को चुन लिया है. नैंसी पेलोसी अमेरिकी राजनीति की सबसे ताकतवर महिला बनकर उभरी हैं. वह दूसरी बार अमेरिकी संसद की प्रतिनिधि सभा की अध्यक्ष बनी हैं और राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को बराबरी की टक्कर दे रही हैं. न्यूजीलैंड में जैसिंडा अर्डर्न ने तो प्रधानमंत्री पद पर रहने के दौरान पिछले वर्ष बिटिया को जन्म दिया और इस बात को साबित किया कि मातृत्व औरतों के लिए फुलस्टॉप नहीं होता. यह फुलस्टॉप हम खुद ही लगा देते हैं. नवीन पटनायक ने एक पहल की है. संसद-विधानसभा में महिला आरक्षण की वकालत करने वालों को टिकट बंटवारे से श्रीगणेश करना चाहिए. कम से कम रवांडा जैसे देश से सीखना चाहिए, जहां की संसद में 61.3% औरतें हैं. दो और देश हैं जहां की संसद में औरतें ज्यादा हैं, मर्द कम. ये हैं क्यूबा (53.2%) और बोलीविया (53.1%). इसीलिए तसल्ली करनी चाहिए कि आधी आबादी ज्यादा नही मांग रही, सिर्फ 33% की ही इच्छुक है. इससे भला क्यों इनकार?
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)