नई दिल्ली: यूपी में गठबंधन ‘एक भी वोट बंटे नहीं और एक भी वोट घटे नहीं’ के नारे के साथ चुनाव लड़ने उतरी थी. लेकिन नतीजे ने नारे को ग़लत साबित कर दिया. वोट बंटे भी और घटे भी. मोदी लहर ने अखिलेश यादव और मायावती के गठबंधन की हवा निकाल दी है. समाजवादी पार्टी को 5 सीटें मिली. पिछले लोकसभा चुनाव में भी यही आंकड़ा रहा था. वहीं बीएसपी के खाते में 10 सीटें आईं. पांच साल पहले हुए चुनाव में तो पार्टी का खाता तक नहीं खुल पाया था.
मायावती और अखिलेश यादव ने गठबंधन के फैसले का एलान 12 जनवरी को किया था. लखनऊ में होटल ताज में उस दिन एक प्रेस कनफ़्रेंस हुआ था. मैं ख़ुद मौजूद था. आरएलडी के नेताओं को उस प्रेस कनफ़्रेंस में नहीं बुलाया गया था. गठबंधन के एलान के साथ ही एक माहौल बन गया था. राजनैतिक जानकार कहने लगे थे कि अब तक बीजेपी के लिए यूपी नामुमकिन है. लेकिन बीजेपी का नारा ‘मोदी है तो मुमकिन है’ सच साबित हुआ.
अब सवाल ये है कि एसपी और बीएसपी का गठबंधन क्यों नहीं चला? अखिलेश यादव और मायावती कहां फ़ेल हो गए? इसके लिए हमें पिछले लोकसभा चुनाव की तरफ़ लौटना होगा.
2014 का लोकसभा चुनाव
पार्टी वोटों की संख्या वोट(प्रतिशत में )
बीजेपी 3.43 करोड़ 42.63
एसपी 1.80 करोड़ 22.35
बीएसपी 1.59 करोड़ 19.77
पिछले लोकसभा चुनाव के हिसाब किताब से तो 42 सीटों पर गठबंधन की जीत तय थी. इन जगहों पर बीएसपी और एसपी को मिले वोटों की संख्या बीजेपी के वोट से अधिक थी. यूपी में लोकसभा की 80 सीटें हैं. गठबंधन को तो बस 15 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा. समझौते में बीएसपी 38, एसपी 37 और आरएलडी 3 सीटों पर चुनाव लड़ी थी.
आरएलडी का तो खाता तक नहीं खुला. जाटों की पार्टी से उसकी ही बिरादरी के लोगों ने किनारा कर लिया. बागपत में जयंत चौधरी हारे तो मुज़फ़्फ़रनगर में उनके पिता अजीत सिंह की हार हुई. दोनों के मुक़ाबले में बीजेपी ने भी जाट उम्मीदवार ही दिया था. इसके बावजूद जाट वोटरों में बंटवारा हो गया. इसके साथ ही हरियाणा की तरह जाट के ख़िलाफ़ अन्य पिछड़ी जातियॉं बीजेपी के पक्ष में गोलबंद हो गईं. नतीजा ये रहा कि जाट वोटरों के दबदबे वाले मथुरा में हेमा मालिनी फिर जीत गईं.
यूपी में मुस्लिम आबादी 19 प्रतिशत है. दलित वोटर 21 फ़ीसदी और यादव वोटरों की संख्या 9 प्रतिशत है. इस हिसाब से तो गठबंधन को 47 सीटें मिल सकती थीं. ये वैसी सीटें हैं जहाँ दलित, मुस्लिम और यादवों की आबादी 50 फ़ीसदी या उससे अधिक है. मायावती के बारे में कहा जाता है कि दलित वोटर उनके साथ चट्टान की तरह खड़े रहते हैं. समाजवादी पार्टी को मुसलमान और यादव वोटरों का समर्थन रहा है. लेकिन इस चुनाव ने सारे फ़ार्मूले और समीकरण ध्वस्त कर दिए. यादव वोटरों में बीजेपी ने सेंधमारी कर दी. मायावती के दलित वोटरों में भी बँटवारा हो गया. वे अब जाटव बिरादरी की भी नेता नहीं रहीं. आप इसे इन आंकड़ों से भी समझ सकते हैं. इस बार के लोकसभा चुनाव में गठबंधन की काट के लिए बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने मिशन 50 प्रतिशत का लक्ष्य रखा. वे कामयाब भी रहे.
2019 का लोकसभा चुनाव
पार्टी वोट की संख्या वोट( प्रतिशत में)
बीजेपी 4.28 करोड़ 49.56
एसपी 1.55 करोड़ 17.96
बीएसपी 1.66 करोड़ 19.26
पिछले लोकसभा चुनाव के मुक़ाबले समाजवादी पार्टी को इस बार 4.39 प्रतिशत कम वोट मिले. लेकिन बीएसपी को लगभग उतने ही वोट मिले. इसका मतलब ये है कि समाजवादी पार्टी के वोट बैंक में बीजेपी ने सेंध लगा दी. ये कहा जा रहा है कि यादव बिरादरी के वोटरों ने कुछ जगहों पर बीजेपी के लिए वोट किया. इसके साथ ही अति पिछड़ी जातियों का एक हिस्सा हमेशा एसपी को वोट करता रहा है. लेकिन इस बार तो इस समाज के लोगों ने अखिलेश यादव से मुँह मोड़ कर बीजेपी का साथ दिया.
इस चुनाव के बाद मायावती अब दलितों की नेता नहीं रहीं. ये ग़लतफ़हमी भी दूर हो गई कि उनके एक इशारे पर दलित उनके साथ खड़े हो जायेंगे. वे जहाँ कहेंगी, वहीं वोट करेंगे. अब बहिन जी सिर्फ़ जाटव बिरादरी की नेता भर रह गई हैं. पासी, वाल्मीकि, मुसहर और सोनकर जैसी दलित जातियां पीएम नरेन्द्र मोदी के साथ हो गई हैं. जाटवों के ख़िलाफ़ एक जुट हो कर इस समाज के लोगों ने इस बार बीजेपी के लिए वोट किया. जिसके कारण इटावा और आगरा में बीजेपी की जीत हुई. इटावा तो अखिलेश यादव का गृह ज़िला है.
एक दौर था जब दलितों के साथ साथ कुछ पिछड़ी जातियॉं भी बीएसपी से जुड़ी हुई थीं. ये प्रयोग पार्टी के संस्थापक कांशीराम का था. उनके ज़माने में सोनेलाल पटेल, ओम प्रकाश राजभर और स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे नेता उनके साथ होते थे. दलित को उन्होंने पार्टी का बेस वोट बैंक और पिछड़ी बिरादरी को स्टेपनी वोट बैंक बनाया था. लेकिन मायावती ने एक एक कर इसे बीजेपी के हाथों गँवा दिया. मायावती की ताक़त अब आधी रह गई है, भले ही उनके दस सांसद इस बार चुने गए.
ग़ैर यादव पिछड़ी जातियों का समाजवादी पार्टी से मोह भंग हो गया है. चुनाव से ठीक पहले अखिलेश यादव को छोड़ कर राष्ट्रीय निषाद पार्टी ने बीजेपी में विलय करा लिया. जवाब में अखिलेश ने गोरखपुर से रामभुआल निषाद को टिकट दे दिया. लेकिन ये फ़ार्मूला फ़ेल हो गया. उन्होंने राष्ट्रीय जनवादी पार्टी से गठबंधन किया. पार्टी के अध्यक्ष संजय चौहान को चंदौली से बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष के ख़िलाफ़ चुनाव में उतारा. चौहान नोनिया बिरादरी के हैं. पूर्वांचल में इस पिछड़ी जाति के वोटरों की ठीक ठाक आबादी है. लेकिन इस समाज के लोगों ने मोदी को ही अपना नेता माना.
बीएसपी और समाजवादी पार्टी के अलग अलग लड़ने से मुस्लिम वोटों का बंटवारा हो जाता था. दोनों पार्टियों के गठबंधन होने से इस बार यूपी में ऐसा नहीं हुआ. मुसलमानों ने दिल खोल कर गठबंधन का साथ दिया. सिर्फ़ सहारनपुर में इमरान मसूद और बदॉंयू में सलीम शेरवानी को ही कुछ मुस्लिम वोट मिले. मुस्लिम वोट के बंटवारे के कारण ही अखिलेश यादव के चचेरे भाई धर्मेन्द्र यादव हार गए. चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवारों को मुसलमानों ने वोट नहीं किया. जहाँ मुस्लिम उम्मीदवार थे, वहॉं भी ये हाल रहा. इसीलिए इस बार समाजवादी पार्टी और बीएसपी के कुछ मुस्लिम उम्मीदवार चुनाव जीतने में कामयाब रहे. संभल से शफीकुर रहमान वर्क, मुरादाबाद से एस टी हसन, रामपुर से आज़म खान, अमरोहा से दानिश अली और ग़ाज़ीपुर से अफ़जाल अंसारी सांसद बन गए हैं.
मुस्लिम वोट में बंटवारा न होने के बावजूद गठबंधन का प्रयोग असफल रहा. एसपी और बीएसपी के बड़े नेताओं के दिल तो मिल गए. लेकिन ग्राउंड पर दोनों पार्टियों के कार्यकर्ताओं में दूरी बनी रही. जहां बीएसपी चुनाव लड़ रही थी, वहॉं एसपी के कार्यकर्ता घर बैठ गए. जहाँ समाजवादी पार्टी चुनाव लड़ रही थी, वहां बीएसपी के समर्थकों ने ज़ोर नहीं लगाया. दोनों पार्टियों की पच्चीस सालों की दुश्मनी के कारण कायकर्ताओं के बीच मनमुटाव बना रहा. अखिलेश यादव और मायावती को इसकी भनक तक नहीं लगी. दोनों नेता घूम घूम कर साझा रैलियॉं करते रहे. और ज़मीन पर गठबंधन की गांठें नहीं खुली. मायावती को पीएम बनाने का अखिलेश यादव का बयान रत्ती भर भी यादवों के गले नहीं उतरा. ख़ास तौर से पुरानी पीढ़ी के वोटरों को. मुलायम सिंह यादव के गठबंधन के विरोध की बात भी कई यादव वोटर भुला नहीं पाए. मायावती और अखिलेश यादव ने देवबंद से साझा चुनावी रैलियों की शुरूआत की थी. जहाँ मंच से दिया गया उनका बयान ही उन पर भारी पड़ गया. मायावती ने कहा था कि मुस्लिम वोट न बँटने पाये. इस बात का ये मैसेज गया कि गठबंधन को सिर्फ़ मुसलमानों की चिंता है. इससे वोटरों में ध्रुवीकरण हुआ. नुक़सान गठबंधन का ही हुआ.
कई सीटों पर तो लोकल नेताओं ने एक दूसरे की पार्टी के उम्मीदवार को हराने का काम किया. जैसे सलेमपुर की लोकसभा सीट बीएसपी के खाते में गई. समाजवादी पार्टी के नेता ये सीट अपने लिए चाहते थे. बस इसी बात पर बीएसपी के उम्मीदवार को लँगड़ी मार दी, वे चुनाव हार गए. ऐसा कई सीटों पर हुआ. कुछ ऐसी भी सीटें थीं जहाँ समाजवादी पार्टी मज़बूत थी, लेकिन वो सीट बीएसपी के खाते में चली गई. एसपी के नेताओं ने इस उम्मीद में बीएसपी के उम्मीदवार का साथ नहीं दिया कि अगर वो जीता तो फिर चुनाव लड़ने का मौक़ा नहीं मिलेगा.
बीजेपी के मुक़ाबले बीएसपी और समाजवादी पार्टी का संगठन बेहद कमजोर है. सबसे पहले बात एसपी की. मुख्य धारा से मुलायम सिंह के हट जाने से और शिवपाल यादव के बाहर चले जाने से पार्टी का संगठन ध्वस्त हो गया है. मुलायम और शिवपाल ही सालों से पार्टी चलाते रहे थे. उन्हें यूपी के कोने कोने का हिसाब किताब मालूम था. किस नेता को कहां और कैसे लगाना है ? ये पता था. अखिलेश यादव को कुछ ख़ास लोग घेरे रहते हैं. इस ग्रूप ने उन्हें संगठन की कमज़ोरियों को जानने और समझने ही नही दिया. मुलायम परिवार में मचे घमासान के बाद से पार्टी कमजोर होती गई.
यही हाल मायावती की पार्टी बीएसपी का भी है. नसीमुददीन सिद्दीक़ी, ब्रजेश पाठक, स्वामी प्रसाद मौर्य, बाबू सिंह कुशवाह जैसे नेताओं के चले जाने से पार्टी बेहाल है. पिछले कुछ सालों में संगठन पर कोई काम ही नहीं हुआ. सब कुछ यूँ ही चलता रहा, चलताऊ अंदाज में. न कैडर कैंप लगे न ही कार्यकर्ताओं की ट्रेनिंग हुई. नौजवानों को बीएसपी से जोड़ने पर कोई काम नहीं हुआ. सोशल मीडिया में भी मायावती की एंट्री आधे अधूरे मन से हुई.
उत्तर भारतीय समाज का वोटर एक ताकतवर चेहरे में अपना नेता ढूंढता है. इस कसौटी पर अखिलेश यादव और मायावती फ़िट नहीं बैठे. पीएम नरेन्द्र मोदी के मुक़ाबले दोनों नेता फीके रहे. सब जानते थे कि दूर दूर तक दोनों के पीएम बनने की कोई संभावना नहीं है. मायावती भी जनता के मन की बात जान चुकी थीं. इसीलिए पीएम बनने पर उन्होंने अंबेडकरनगर से चुनाव लड़ने का एलान किया था. लेकिन जनता तो जनार्दन है, वो सब समझती है. अखिलेश और मायावती के मुक़ाबले में मोदी की एक मज़बूत और कड़े फ़ैसले लेने वाले नेता की छवि को लोगों ने पसंद किया.
मायावती ने अगडी जाति के भी कुछ उम्मीदवारों पर दांव लगाया, उन्हें टिकट दिया और कुछ चुनाव भी जीत गए. अंबेडकरनगर से रितेश पांडे और घोषी से अतुल राय सांसद बन गए. राज्य सभा के चुनाव में राजा भैया के साथ छोड़ने के बाद से ही अखिलेश यादव के कैंप में सामान्य जाति के नेताओं की जगह कम हो गई. वे पिछड़ों की राजनीति करने लगे. मुलायम सिंह यादव के ज़माने में ब्राह्मण जाति के जनेश्वर मिश्र, भूमिहार बिरादरी के रेवती रमण सिंह और ठाकुर समाज से मोहन सिंह भी उसी क़द के नेता रहे. लेकिन अखिलेश यादव ये सामाजिक समीकरण नहीं संभाल पाए. अगड़ी जाति के वोटरों के एक हिस्से ने हमेशा एसपी का साथ दिया. लेकिन अब इस समाज के लोग अखिलेश यादव से दूर होते जा रहे हैं.
अब से 24 साल पहले भी बीएसपी और एसपी का गठबंधन हुआ था. वो दौर मुलायम सिंह यादव और कांशीराम का था. अयोध्या के राम मंदिर आंदोलन अपने चरम पर था. मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम के नारे तब लगा करते थे. विधानसभा चुनाव में एसपी बीएसपी गठबंधन हिट रहा. यूपी में दोनों पार्टियों की मिली जुली सरकार बनी. कहते हैं कि इतिहास अपने आप को दुहराता है. लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ. सालों पहले के हिट फ़ार्मूले को यूपी की जनता ने अखिलेश और मायावती के ज़माने में रिजेक्ट कर दिया.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)