NDA की बैठक, चिराग पासवान को बुलावा, बिहार में बीजेपी को 2024 में नुकसान की आशंका, भरपाई पर नज़र
आगामी लोकसभा चुनाव में अलग-अलग राज्यों में सियासी समीकरणों को साधने के लिए लेकर सत्ता और विपक्ष दोनों ही अपनी -अपनी रणनीतियों को अंजाम देने में जुटे हैं. इसी कवायद के तहत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी में 18 जुलाई को दिल्ली में एनडीए (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) की बैठक होने वाली है.
एनडीए की बैठक के लिए चिराग को न्यौता
जैसा कि पहले से ही कयास लगाए जा रहे थे, इस बैठक के लिए लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास पासवान) के अध्यक्ष चिराग पासवान को भी बुलाया गया है. बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने बकायदा चिट्ठी लिखकर चिराग पासवान को इस बैठक में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया है. इस चिट्ठी में चिराग पासवान की पार्टी को एनडीए का अहम साथी बताया गया है. साथ ही चिराग की पार्टी को एनडीए की मजबूती से भी जोड़ा गया है.
बिहार के समीकरणों को साधने पर ज़ोर
बिहार से बीजेपी के नेता और केंद्रीय मंत्री नित्यानंद ने चिराग पासवान से 14 जुलाई को मुलाकात की थी, इससे कुछ दिन पहले भी नित्यानंद ने चिराग से मुलाकात की थी. दरअसल चिराग पासवान को लेकर बीजेपी जिस तरह से उत्साहित दिख रही है, उसके मायने को बिहार के सियासी समीकरणों से समझा जा सकता है. 2024 में लगातार तीसरी बार जीत हासिल कर नरेंद्र मोदी को भी लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बनाने के लिहाज से बीजेपी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहती है. बिहार से आने वाली 40 लोकसभा सीटों की बीजेपी के इस लक्ष्य को हासिल करने में काफी अहमियत है.
2024 में 2019 के मुकाबले बदले हुए समीकरण
2019 के लोकसभा चुनाव में एनडीए को मिली बड़ी जीत में उत्तर प्रदेश और बिहार में शानदार प्रदर्शन की बड़ी भूमिका रही थी. उस चुनाव में एनडीए को यूपी की 80 में से 64 और बिहार की 40 से 39 सीटों पर जीत मिली थी. कुल सीट और जीत के प्रतिशत के हिसाब से एनडीए के लिए बिहार, यूपी से भी ज्यादा महत्वपूर्ण साबित हुआ था.
हालांकि 2019 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले 2024 में बिहार का राजनीतिक समीकरण पूरी तरह से बदला रहेगा और इसके पीछे की बड़ी वजह ये है कि नीतीश कुमार अब पाला बदलकर आरजेडी और कांग्रेस के साथ महागठबंधन का हिस्सा बन चुके हैं.
बिहार में 2024 में नुकसान की आशंका
इस वजह से उत्तर भारत के जितने भी राज्य हैं, उनमें बीजेपी की अगुवाई वाले एनडीए गठबंधन को सबसे ज्यादा नुकसान की आशंका सीटों के लिहाज से बिहार में ही होने की है. 2024 में बिहार में बीजेपी के लिए सियासी समीकरणों को साधने की सबसे बड़ी चुनौती है. नीतीश के पाला बदलने की वजह से एनडीए अब उस तरह से बिहार में मजबूत नहीं नजर आ रही है, जैसा 2019 के लोकसभा चुनाव में थी.
बिहार में जाति आधारित राजनीति हावी
बिहार एक ऐसा राज्य है, जहां अभी भी जाति आधारित राजनीति का बोलबाला सबसे ज्यादा है. बिहार का सियासी समीकरण बहुत हद तक जातीय समीकरणों पर टिका होता है. इस समीकरण को साधे बिना बिहार में 2024 में किसी भी दल या गठबंधन के लिए बड़ी जीत हासिल करना आसान नहीं है. यही वजह है कि चिराग पासवान को अब बीजेपी खुलकर एनडीए का हिस्सा बनाना चाहती है. बिहार में चिराग पासवान की पार्टी को एनडीए गठबंधन के तहत चुनाव लड़वाने की मंशा रखती है.
एलजेपी के परंपरागत वोट बैंक पर नज़र
चिराग पासवान के जरिए बीजेपी की नजर रामविलास पासवान की विरासत से जुड़े उस वोट बैंक पर है, जो एलजेपी के साथ जुड़ा रहा है. ऐसे तो चिराग पासवान कभी बीजेपी के खिलाफ खुलकर नहीं रहे हैं, लेकिन 2020 में बिहार विधानसभा चुनाव से पहले रामविलास पासवान के निधन होने के बाद लोजपा में उथल-पुथल होता है. रामविलास पासवान के भाई पशुपति कुमार पारस के नेतृत्व में पार्टी में बगावत होती है और उसके बाद चिराग पासवान थोड़े कमजोर नजर आते हैं. पशुपति पारस फिलहाल हाजीपुर से सांसद और केंद्रीय मंत्री हैं. वे अक्टूबर 2021 में राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी के नाम से अलग पार्टी बना लेते हैं और रामविलास पासवान की राजनीतिक विरासत का वास्तविक उत्तराधिकारी खुद को बताते हैं.
2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में एलजेपी एनडीए की सहयोगी के तौर पर चुनाव लड़ती है और दोनों ही बार 6-6 सीट जीतने में कामयाब हो जाती है. 2014 में एलजेपी का वोट शेयर 6.4% और 2019 में 7.86% रहता है.
2020 में चिराग पासवान का अलग रुख़
2020 के विधानसभा चुनाव में अपनी राजनीतिक हैसियत की पड़ताल करने के लिए चिराग पासवान अलग ही रुख अपनाते हैं. उस वक्त नीतीश की जेडीयू बीजेपी के साथ ही थी. चिराग पासवान फैसला लेते हैं कि उनकी पार्टी एनडीए का हिस्सा नहीं रहेगी. इससे भी एक कदम आगे जाकर वे ऐलान करते हैं कि उनकी पार्टी जेडीयू के खिलाफ हर सीट पर चुनाव लड़ेगी, लेकिन बीजेपी के खिलाफ नहीं. उस चुनाव में चिराग पासवान एक तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जमकर सराहना करते दिखते हैं, दूसरी तरफ नीतीश पर जमकर सियासी हमला बोलते नजर आते हैं.
2020 में चिराग की पार्टी 135 सीटों पर चुनाव लड़ती है, लेकिन जीत सिर्फ़ एक सीट पर ही होती है. 110 विधानसभा सीटों पर पार्टी उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो जाती है. इन सबके बीच एक महत्वपूर्ण बात ये है कि चिराग पासवान की पार्टी 5.66% वोट हासिल करने में सफल रहती है.
नीतीश को नुकसान पहुंचाने का खेल
राजनीतिक विश्लेषकों के बीच उस वक्त इस तरह की भी चर्चा जोरों पर थी कि चिराग पासवान के इस रुख के पीछे बीजेपी का हाथ था. खुद तो चिराग की पार्टी 2020 के विधानसभा चुनाव में ज्यादा कुछ हासिल नहीं कर पाई, लेकिन नीतीश को जो नुकसान हुआ था, उसमें एक प्रमुख कारण चिराग पासवान के रुख को भी बताया गया था. नीतीश की जेडीयू को इस चुनाव में भारी नुकसान पहुंचा था. 28 सीटों के नुकसान के साथ जेडीयू सिर्फ़ 43 सीटें ही जीत पाई थी. इससे जेडीयू राज्य में आरजेडी और बीजेपी के बाद तीसरे नंबर पर खिसक गई थी.
पहले जैसी नहीं रही अब एलजेपी
हालांकि इस चुनाव के बाद ही एलजेपी में बगावत और पार्टी में टूट का दौर भी शुरू हो गया था और चिराग की अहमियत भी कम होने लगी थी. हालांकि इस दरम्यान जमुई से सांसद चिराग पासवान राजनीतिक तौर से लगातार सक्रिय रहे. इसी का नतीजा है कि पशुपति पारस की बगावत और पार्टी में टूट के बावजूद कहा जा रहा है कि रामविलास पासवान ने एलजेपी के लिए जिस वोट बैंक को बिहार में तैयार किया था, वो वफादार वोट बैंक रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान के साथ ही बना रहेगा. इसकी परीक्षा अभी तक तो नहीं हुई है और रामविलास पासवान के बनाए वोट बैंक के चिराग के साथ होने की सही मायने में परीक्षा 2024 के लोकसभा चुनाव में ही होने वाली है.
एलजेपी का वोट बैंक रहा है कायम
2015 के विधानसभा चुनाव में एनडीए का हिस्सा रहते हुए एलजेपी को 4.8% वोट शेयर के साथ 2 सीटों पर जीत मिलती है. वहीं 2010 के विधानसभा चुनाव में आरजेडी की सहयोगी के तौर पर एलजेपी को 6.74% वोट शेयर के साथ महज़ 3 सीटों पर जीत मिलती है. वहीं अक्टूबर 2005 के विधानसभा चुनाव में किसी भी पाले में नहीं रहने पर एलजेपी को 4.92% वोट शेयर के साथ 10 सीटों पर जीत मिलती है.
उसी तरह से लोकसभा की बात करें तो 2019 में बतौर एनडीए सहयोगी 7.86% वोट शेयर के साथ 6 सीटें जीत जाती है. 2014 में भी एलजेपी 6.40% वोट शेयर के साथ 6 सीटें जीतने में सफल हो जाती है. 2009 के लोकसभा में आरजेडी सहयोगी के तौर पर एलजेपी को किसी भी सीट पर जीत नहीं मिलती है, तो 2004 के लोकसभा चुनाव में आरजेडी और कांग्रेस के सहयोगी के तौर पर एलजेपी को 8.19% वोट शेयर के साथ 4 सीटों पर जीत मिलती है.
5 से 6% का वोट बैंक हमेशा रहा है बरकरार
इन चुनावी विश्लेषणों से एक बात स्पष्ट है कि एलजेपी के पास सीटें कितनी भी रही हों, वो किसी भी गठबंधन का हिस्सा रही हो, बिहार में 5 से 6 प्रतिशत का वोट बैंक हमेशा ही उसके पास रहा है और जब ये वोट बैंक किसी मजबूत गठबंधन का हिस्सा बन जाता है तो इससे एलजेपी की सीटें बढ़ जाती है. ये समीकरण विधानसभा के मुकाबले लोकसभा चुनाव में ज्यादा काम करता है.
एनडीए में रहने पर ज्यादा फायदा
इसकी बानगी हम 2014 और 2019 में हम ये देख चुके हैं. हालांकि इसका एक पहलू ये भी है कि 2019 में एलजेपी एनडीए का हिस्सा थी और तब जेडीयू भी एनडीए का हिस्सा थी. 2014 में एलजेपी एनडीए का हिस्सा थी, लेकिन उस वक्त जेडीयू एनडीए से अलग थी. 2014 में एनडीए के अलावा जेडीयू अलग से चुनाव लड़ रही थी और इनके साथ ही आरजेडी-कांग्रेस का गठबंधन भी अलग से चुनाव मैदान में था. यानी 2014 में त्रिकोणीय मुकाबला था. इसका फायदा एनडीए को खूब मिला था और त्रिकोणीय लड़ाई में एनडीए को 40 में से 31 सीटें जीतने में सफलता मिल गई थी, जिसमें बीजेपी को 22, एलजेपी को 6 और उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी आरएलएसपी को 3 सीटों पर जीत मिली थी. आरजेडी-कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन के खाते में 7 सीटें गई थी. जबकि अकेले चुनाव मैदान में उतरी नीतीश की पार्टी जेडीयू को 18 सीटों के नुकसान के साथ महज़ 2 सीटें मिली थी.
बिहार में दो तरह का गठबंधन बहुत मजबूत
बिहार की राजनीति की एक खासियत है. पिछले कुछ विधानसभा और लोकसभा चुनाव नतीजों के विश्लेषण से पता चलता है कि जातीय समीकरणों पर चुनाव आधारित होने की वजह से यहां पर दो तरह के गठबंधन बनने पर उसे मात देना बेहद मुश्किल हो जाता है. पहला गठबंधन बीजेपी-जेडीयू का है और दूसरा गठबंधन आरजेडी-जेडीयू-कांग्रेस का है. अगर बीजेपी-नीतीश साथ होते हैं, तो आरजेडी-कांग्रेस गठबंधन कमजोर हो जाता है और अगर जेडीयू, आरजेडी और कांग्रेस एक ही पाले में आ जाते हैं तो फिर बीजेपी के लिए मुश्किल हो जाती है.
बीजेपी-नीतीश या नीतीश-आरजेडी गठबंधन
पहली स्थिति या गठबंधन से जुड़े नतीजे को हम 2005 और 2010 के विधानसभा चुनाव, 2019 के लोकसभा चुनाव और फिर 2020 के विधानसभा चुनाव में देख चुके हैं. इन चुनावों में बीजेपी और नीतीश एक साथ थे, जिसकी वजह से आरजेडी कमजोर साबित हुई थी. वहीं 2015 में हमने देखा था कि जब नीतीश, लालू और कांग्रेस एक साथ थे तो इस महागठबंधन को 243 विधानसभा सीटों में से 178 सीटों पर जीत मिली थी. वहीं बीजेपी, एलजेपी, आरएलएसपी और हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा के गठबंधन की गाड़ी महज़ 58 सीटों पर ही रुक गई थी. वहीं 2014 के लोकसभा चुनाव में जब बीजेपी, आरजेडी-कांग्रेस और नीतीश यानी तीन खेमा था, तो उस त्रिकोणीय मुकाबले में उसमें बीजेपी आगे निकल गई थी.
2024 में जेडीयू-आरजेडी-कांग्रेस एक साथ
अब फिर से बिहार में बीजेपी के सामने जेडीयू, आरजेडी, कांग्रेस का महागठबंधन है और इन तीनों पार्टियों के जातिगत वोट बैंक आधार को देखते हुए बीजेपी को बिहार में नुकसान की भरपूर आशंका दिख रही है. ये तो तय है कि 2019 में जिस तरह से बिहार में एक सीट छोड़कर एनडीए के खाते में सभी सीटें गई थी, वैसा नहीं होने वाला. 2014 में बीजेपी को 22 और 2019 में 17 लोकसभा सीटों पर जीत मिली थी. बीजेपी के लिए इन आंकड़ों को बचाने की भी चुनौती है.
2019 के बाद आरजेडी को तेजस्वी ने किया है मजबूत
बिहार में जेडीयू का तो पहले से ही एक परंपरागत वोट बैंक जो तमाम परिस्थितियों में भी नीतीश के साथ बरकरार रहा है. लालू यादव के सक्रिय राजनीति से दूर होने के बाद तेजस्वी यादव की अगुवाई में आरजेडी धीरे-धीरे मजबूत हुई है. तेजस्वी इसकी बानगी 2020 के चुनाव में दिखा भी चुके हैं. 2019 लोकसभा चुनाव में एक भी सीट नहीं जीतने के बाद 2020 विधानसभा चुनाव में उन्होंने आरजेडी को सबसे बड़ी पार्टी बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.
बीजेपी को जातिगत वोट बैंक साधने की चुनौती
मजबूत होती आरजेडी और नीतीश के तेजस्वी के साथ होने के वजह से 2024 में बीजेपी के लिए जातिगत वोट बैंक को साधने की चुनौती है. जातिगत समीकरणों को साधने में पहले से ही एलजेपी, बीजेपी के लिए एक मजबूत सहयोगी बनती रही है. बीजेपी के साथ जब-जब एलजेपी रही है, लोकसभा चुनावों में उसका प्रदर्शन बहुत ही अच्छा रहा है.
2014 में बतौर एनडीए सहयोगी एलजेपी 7 सीटों पर चुनाव लड़ती है और इनमें से 6 सीटों पर जीत जाती है. वहीं 2019 में एलजेपी 6 सीटों पर चुनाव लड़ती है और इन सभी 6 सीटों पर जीत जाती है. 2014 में एलजेपी को वैशाली, हाजीपुर, समस्तीपुर, खगड़िया, मुंगेर और जमुई लोकसभा सीटों पर जीत मिलती है. वहीं 2019 में भी वैशाली, हाजीपुर, समस्तीपुर, खगड़िया, जमुई और नवादा लोकसभा सीटों पर जीत मिलती है. बीजेपी चिराग पासवान को अपने पाले में लाकर इन सीटों पर एनडीए की जीत सुनिश्चित करना चाहती है. इनके अलावा भी कुछ सीटें हैं जहां रामविलास पासवान के परंपरागत वोट बैंक जीत-हार में निर्णायक भूमिका में रहते आए हैं.
वोट बैंक चिराग या पशुपति पारस के साथ ?
अब ये वोट बैंक चिराग के साथ रहेगा या फिर पशुपति पारस का साथ देगा, ये तो चुनाव नतीजों के बाद ही पता चलेगा. लेकिन बीजेपी अगर चिराग को एनडीए में शामिल करती है तो फिर पशुपति पारस का क्या रुख होगा, इसे भी देखना होगा. बीजेपी के पास चिराग के साथ-साथ पशुपति पारस को अपने साथ बनाए रखने दोहरी चुनौती है. फिलहाल पशुपति पारस एनडीए का हिस्सा हैं. वे केंद्रीय मंत्री भी हैं.
अगर चिराग 2024 में एनडीए का हिस्सा बनकर चुनाव लड़ते हैं तो फिर जिन सीटों पर पशुपति पारस गुट का कब्जा है, उनको लेकर चिराग कैसे निपटेंगे, ये भी देखने वाली बात होगी. सबसे बड़ा रोड़ा तो रामविलास पासवान की परंपरागत लोकसभा सीट हाजीपुर को लेकर ही है. फिलहाल यहां से पशुपति पारस सांसद हैं. इस सीट से रामविलास पासवान की पहचान जुड़ी है. इस सीट से रामविलास पासवान 4 बार सांसद रह चुके हैं. उनके जीवित रहते ही 2019 के चुनाव में पशुपति पारस इस सीट से सांसद बने थे.
चिराग और पशुपति को एक साथ रखने की चुनौती
अब जमुई से सांसद चिराग पासवान भी चाहेंगे कि हाजीपुर से वो 2024 में चुनाव लड़ें. वे इसका ऐलान भी कर चुके हैं. ऐसे में बीजेपी के लिए पशुपति पारस को भी मनाना आसान नहीं होगा. पशुपति पारस ने भी हाल ही में स्पष्ट किया था कि वे किसी भी कीमत पर हाजीपुर नहीं छोड़ सकते हैं और वहीं रामविलास पासवान के वास्तविक राजनीतिक उत्तराधिकारी हैं. पशुपति पारस बार-बार कहते आए हैं कि चिराग दो नावों की सवारी कर रहे हैं. उनका कहना है कि चिराग लगातार तेजस्वी के भी संपर्क में हैं.
इसके अलावा पशुपति पारस के पाले में रहने वाले समस्तीपुर के सांसद प्रिंस राज भी चिराग को लेकर लगातार विरोधी रुख अपनाते रहे हैं. प्रिंस राज, रामविलास पासवान के भाई रामचंद्र पासवान के बेटे हैं, जो अपने पिता के निधन के बाद अक्टूबर 2019 में हुए उपचुनाव में जीतकर समस्तीपुर से सांसद बने थे. अब अगर बीजेपी चाहती है कि चिराग भी बने रहें और पशुपति पारस का गुट भी एनडीए का हिस्सा रहे तो उसके लिए चिराग और पशुपति पारस को साथ लाने की जिम्मेदारी भी बीजेपी पर ही है.
अगर ऐसा नहीं हुआ तो रामविलास पासवान के बनाए जिस परंपरागत वोट बैंक की वजह से बीजेपी चिराग को अपने पाले में लाना चाहती है, उस वोट बैंक में सेंध जरूर लगेगी , ये भी तय है. इस पर भी चर्चा हो रही है कि अगर चिराग को खुश करने के लिए बीजेपी उनकी हर बात मान लेती है तो पशुपति पारस 2024 चुनाव से पहले अपना पाला बदल भी सकते हैं. इसलिए ये कहना आसान नहीं है कि सिर्फ चिराग को अपने खेमे में लाने से ही बीजेपी की चुनौती खत्म हो जाएगी. हालांकि ये जरूर है कि जेडीयू, आरजेडी और कांग्रेस के साझा वोट बैंक और जनाधार को देखते हुए बीजेपी हर वो कोशिश कर रही है जिससे बिहार में एनडीए को कम से कम नुकसान हो.
चिराग कभी मन से बीजेपी से दूर नहीं हुए
ऐसा लगता है कि बीजेपी को पूरा एहसास है कि एलजेपी का परंपरागत वोट बैंक चिराग के साथ ही रहेगा. इसलिए बिहार के जातीय समीकरणों के लिए लिहाज से जेडीयू-आरजेडी और कांग्रेस गठबंधन की तोड़ के लिए बीजेपी चिराग को खुलकर अपने साथ लाना चाहती है. रामविलास पासवान के निधन के बाद से चिराग पासवान लगातार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ करते रहे हैं और प्रमुख मुद्दों पर अपने बयानों से बीजेपी का समर्थन भी करते रहे हैं. वे लगातार कानून व्यवस्था समेत तमाम मुद्दों पर नीतीश-तेजस्वी सरकार को भी घेरने की कोशिश करते रहे हैं.
चिराग बेहतर सहयोगी हो सकते हैं साबित
भले ही बीजेपी उपेन्द्र कुशवाहा और जीतन राम मांझी को एनडीए का हिस्सा बना ले, लेकिन ये सच्चाई है कि जिस तरह से एलजेपी के वोट बैंक से एनडीए को फायदा मिल सकता है, वो फायदा उपेंद्र कुशवाहा और जीतन राम मांझी से नहीं मिल सकता है. उपेंद्र कुशवाहा और जीतन राम मांझी की पकड़ अब वैसी नहीं रही , जैसी पहले कुछ सीटों पर हुआ करती थी. ऐसे में बिहार में बीजेपी को एक ऐसा सहयोगी चाहिए जिसका परंपरागत वोट बैंक कुछ सीटों पर एनडीए की जीत की संभावना को सुनिश्चित कर दे और इस लिहाज से उसकी नजर एलजेपी के परंपरागत वोट बैंक पर है. इसके लिए बीजेपी चिराग और पशुपति पारस दोनों को एनडीए में रखने की कोशिश करेगी.
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