रामपुर और आज़मगढ़ की लोकसभा सीट पर कब्ज़ा करके बीजेपी ने तो यूपी की सियासत में ऐतिहासिक इबारत लिख दी. लेकिन बड़ा सवाल ये है कि अपने सबसे मजबूत गढ़ में ही समाजवादी पार्टी की ये दुर्दशा आखिर क्यों हुई? क्या इसे अखिलेश यादव का अति आत्मविश्वास समझा जाये या फिर ये माना जाये कि अब सपा से मुसलमानों का 'मोहभंग' होने लगा है?


आज़मगढ़ में बीजेपी की जीत की एक वजह मायावती के बीएसपी फैक्टर को माना जा सकता है लेकिन रामपुर में तो सपा और बीजेपी के बीच सीधा मुकाबला था, जहाँ मुस्लिम आबादी भी ज्यादा है लेकिन वहां का वोट प्रतिशत कम रहा. सौ दिन पहले हुए विधानसभा चुनावों में सपा को एकतरफा वोट देने वाला मुसलमान रामपुर के उप चुनाव में सपा को सबक सिखाने और अपनी नाराजगी ज़ाहिर करने के लिए ही क्या वोट देने के लिए अपने घरों से बाहर नहीं निकला? इसलिए कि बीजेपी को तो उसे वोट देना नहीं था और सपा के सिवा उसके सामने कोई और विकल्प ही नहीं था.


इन दोनों सीटों को लेकर सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव इस कदर आश्वस्त थे कि उन्होंने वहां प्रचार के लिए जाने की ज़हमत तक नहीं उठाई. वे इसी गलतफहमी में ही रहे कि ये दोनों सीटें भला उनसे कौन छीन सकता है. लेकिन राजनीति में यही मुगालता पालना कितना भारी पड़ जाता है, इसका कड़वा स्वाद अब सपा ने चख लिया है.


सपा नेताओं ने इसका अहसास ही नहीं किया कि उनके सबसे मजबूत किले को ढहाने के लिए बीजेपी ने बूथ स्तर तक कितनी मजबूत तैयारी कर रखी थी. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ समेत उनकी सरकार के डेढ़ दर्जन मंत्रियों ने पूरी आक्रमकता के साथ प्रचार किया. कह सकते हैं कि रामपुर में बीएसपी उम्मीदवार के मैदान में न होने से बीजेपी को फायदा मिला है लेकिन सपा नेता इसी समीकरण को न समझ पाने की गलती करते हुए ये मान बैठे थे कि एमवाई यानी मुस्लिम-यादव वोटों के दम पर वे एकतरफा जीत जाएंगे. 


रामपुर में तकरीबन एक लाख जाटव वोटर की संख्या है और बीजेपी ने हिन्दू वोट बैंक के अलावा अपना सारा जोर इन जाटवों को साधने पर लगा रखा था. रामपुर की राजनीति के जानकार मानते हैं कि बीजेपी को तकरीबन 80 फीसदी जाटवों का वोट मिलने का अनुमान है और यही उसकी जीत का सबसे अहम फैक्टर भी है.


रामपुर सपा के मुस्लिम नेता आज़म खान का पुराना गढ़ है और राजनीतिक विश्लेषक भी यही मान रहे थे कि यहां सपा को हरा पाना बीजेपी के लिए उतना आसान नहीं होगा. लेकिन बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व से लेकर स्थानीय इकाई की रणनीति काम आई. साल 2019 के लोकसभा चुनाव में जब आज़म खान यहां से चुने गए थे, तब सपा का वोट प्रतिशत 52.69 था, जो अब घटकर घटकर 46 प्रतिशत रह गया है. जबकि तब यहाँ बीजेपी को 42.33 प्रतिशत वोट मिले थे लेकिन पार्टी के कार्यकर्ताओं ने इस बार जिस तरह से अधिक से अधिक वोटर्स को घर से पोलिंग बूथ तक पहुंचाने की रणनीति को अंजाम दिया, उसके चलते बीजेपी ने 51.96 प्रतिशत वोट हासिल करके बाजी पलटकर रख दी.


उधर, आज़मगढ़ में बीजेपी की जीत के लिए बीएसपी को बड़ी वजह माना जा रहा है और विश्लेषक कहते हैं कि मायावती यहां से शाह आलम उर्फ़ गुड्डू जमाली को अगर उम्मीदवार नहीं बनाती, तो उस सूरत में बीजेपी की जीत मुश्किल थी क्योंकि तब मुस्लिम वोट सपा के पक्ष में ही जाता. लेकिन जमाली को मिले दो लाख 66 हज़ार वोट इसका संकेत हैं कि उनको मुस्लिमों ने ठीक ठाक वोट दिया है. शायद इसीलिये मायावती ने गुड्डू जमाली की हार के बावजूद ट्विटर पर उनकी तारीफ़ की है. तो क्या ये समझा जाये कि सपा से नाराज मुसलमान फिर से मायावती के हाथी की सवारी करने के मूड में है?


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