सिनेमा समाज का प्रतिबिंब है, क्योंकि वह हमारे मनोभावों को व्यष्टि व समष्टि रूप में प्रस्तुत करता है. एक ओर मसाला फिल्में मनोरंजन प्रधान होती हैं, वहीं दूसरी ओर यथार्थवादी फिल्में मानव जीवन के कड़वे सच को खुरदुरेपन के साथ पर्दे पर उतारती हैं. कड़वे का भी एक रस होता है. प्रतीक शर्मा की मैथिली फिल्म लोटस ब्लूम्स यथार्थ के कड़वे रस में ममता की मिठास समेटे हुए है. शाब्दिक भाषा की दृष्टि से देखें तो लोटस ब्लूम्स भले ही एक क्षेत्रिय फिल्म लगे, लेकिन कथानक की मौलिकता की कसौटी पर कसने पर यह एक वैश्विक अपील वाली फिल्म के रूप में सामने आती है. कैसे? इसको ऐसे समझिए.


शांताराम, रे, फेलिनी, डि सिका, बेनेगल, माजिदी की फिल्मों में एक समानता है कि इनकी फिल्में सामाजिक-भौगोलिक सीमा से परे जाकर मानवीय संवेदनाओं को रेखांकित करती हैं और एक कथानक के होते हुए भी संदेश की कसौटी पर बहुस्तरीय होती हैं. प्रतीक शर्मा निर्देशित लोटस ब्लूम्स में ये दोनों समानताएं दिखती हैं. इसलिए लोटस ब्लूम्स जिस शिद्दत से बिहार में देखी जाएगी, उतनी ही शिद्दत से इसे मध्य-पूर्व एशिया, अफ्रीका अथवा लैटिन अमेरिका के देशों में वहां के मूल निवासी देखेंगे और इसके मर्म को उतनी ही गर्माहट के साथ महसूस करेंगे जितना कि कोई मैथिली भाषी. प्रतीक शर्मा ऊर्जावान निर्देशक हैं. सात साल पहले आई 'गुटरूं-गुटरगूं' के बाद 'लोटस ब्लूम्स' तक की यात्रा में उन्होंने सिनेमाई शिल्प को साधने में श्रम किया है. लोटस ब्लूम्स की सांकेतिकी, पार्श्वध्वनि, प्रकाश आदि तत्वों में उनकी प्रगति झलकती है. एक निर्देशक के रूप में उनका आगे बढ़ना सुखद है. कोई फिल्म मैथिली में हो अथवा हिंदी, मराठी तमिल, तेलुगू, फ्रांसीसी, इतालवी अथवा रूसी में, इन सब शाब्दिक भाषाओं से परे सिनेमा शिल्प की एक अपनी भाषा होती है जो विभिन्न बिंबों के माध्यम से व्यक्त होती है. तकनीकी रूप से इसे फिल्म सांकेतिकी (film semiotics) कहते हैं. जो फिल्मकार जितनी गहराई से इस सांकेतिकी का इस्तेमाल करता है, उसे उतना ही कुशल फिल्मकार माना जाता है. प्रतीक शर्मा बहुत हद तक इस कार्य में भी सफल हुए हैं. कुछ उदाहरण देखिए.


पहले बिंब का दर्शन कीजिए, बेनू के जाने के बाद सरस्वती बीच सड़क पर खड़ी है. फ्रेम क्षैतिज रूप से दो हिस्सों में आधे में जमीन और ठीक दूसरे आधे हिस्से में आसमान है, यानी उस फ्रेम के बाद से सरस्वती की जिंदगी दो हिस्सों में बंट गई है. एक हिस्सा टूटकर सिंगापुर चला गया है. दूसरा बिंब, सरस्वती के बनाए चित्र के बीच की धारी जो अमरेंद्र उर्फ़ धीरज ऊपर से नीचे तक स्पर्श करता है, यह उसके सरस्वती के प्रति बढ़ते अनुराग का सूचक है. तीसरा बिंब, अमरेंद्र के कमरे में सरस्वती मच्छरदानी लगाकर सोती है. यहां मच्छरदानी उन दोनों के बीच अर्धछीद्रिल पर्दा है, जिसमें निजता के लिए थोड़ी सी ही गुंजाइश बची है. एक रात सोते समय मच्छरदानी की स्ट्रिप लगाते हुए सरस्वती का हाथ उसमें कुछ पल के लिए फंसा रह जाता है और मुट्ठी भर फांक बंद होने से रह जाता है. बाद में हालांकि अमरेंद्र उसे बंद कर देता है, लेकिन फिल्मकार ने संकेत दे दिया है कि अब वह अर्धछीद्रिल पर्दा हटने वाला है. चौथा बिंब, अमरेंद्र से मिले काम में मैथिली चित्रकारी करते समय सरस्वती द्वारा एक शिशु व उसकी माता का तस्वीर उकेरा जाना, यह याद दिलाता है कि सरस्वती के अब भी एकमात्र लक्ष्य अपने पुत्र बेनू को वापस पाना ही है. पांचवां बिंब, पोखर और उसमें खिल रहा कमल. फिल्मांकन ऐसा है जैसे मां पोखर हो और खिलने वाला कमल उसका पुत्र. बाकी, दीवारों पर या टिफिन बॉक्स के ऊपर मधुबनी चित्रकारी तो है ही, मिथिला की माटी को स्थापित करने के लिए. सूर्य देव की आकृति वाला सूप सरस्वती के घर की दिवाल पर टंगा है. छठ महापर्व वहां भी सूक्ष्म रूप में विद्यमान है. अपने इन्हीं लोकल तत्वों के कारण 'लोटस ब्लूम्स' ग्लोबल अपील धारण की हुई है. जिनकों अपनी जड़ों से जुड़ाव है, उन्हें यह फिल्म जरूर देखनी चाहिए.


कहानी सरल लेकिन सुंदर है, प्यारी सी. सरस्वती का पति काम पर गया तो कभी लौटकर नहीं आया. इसलिए अब वह अपने बेटे बेनू के साथ रहती है. गरीबी के कारण बेनू की पढ़ाई छूट गई और व्यवस्था में उसे सिंगापुर भेजना पड़ा. फोन पर पुत्र की व्यथा सुन मां का हृदय तड़प उठा और उसने अपने स्वाभिमान को किनारे कर बनू की वापसी के लिए पैसे के प्रबंध में जुट गई. इन पैसों का प्रबंध करने में उसे किन-किन संघर्षों से गुजारना पड़ा? फिर भी क्या बेनू वापस आता है? यही कथा है. कहानी भले ही बिहार के मैथिली क्षेत्र के एक गांव की है. लेकिन, इसकी बुनावट इतनी बारीक है कि यह दुनिया हर उस परिवार का प्रतिनिधित्व करती है, जो विपन्नता के कारण अपने बच्चों को स्वयं से दूर करते हैं. अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका, दक्षिण-पूर्व एशिया व भारतीय उपमहाद्वीप में ऐसे करोड़ों परिवार हैं, जो विवशता में कलेजे के टुकड़े को खुद से अलग करते हैं. 'लोटस ब्लूम्स' ऐसे हर वंचित समाज की कहानी है. इसलिए भी इसका वैश्विक अपील है. माजिदी की फिल्मों की भांति.


सरस्वती के पात्र में इस फिल्म की निर्मात्री अस्मिता शर्मा हैं, जिन्होंने अपने कंधों पर पूरी फिल्म को उठा रखा है. 'गुटरूं-गुटरगूं' के बाद से अब तक उनका अभिनय अधिक स्वाभाविक हुआ है, हालांकि उनका एफर्टलेस होना अभी बाकी है. अस्मिता पूरी तरह सरस्वती के किरदार में समाई हुई हैं. अकेली महिला का संघर्ष, पुत्र के प्रति वात्सल्य, फिर उसी पुत्र के लिए बाहरी दुनिया से बाप वाली सख्ती, विपन्नता में भी स्वाभिमान... इन सारे भावों को एक साथ घोलकर उन्होंने परोसा है. भावों में संतुलन देखिए. अमरेंद्र से प्रथम दैहिक स्पर्श के ठीक पूर्व अपनी दोनों हथेलियों को आपस भींचकर रखना, बेनू के नहीं रहने पर हवा में हाथ लहराना, घड़ी को अपलक देखना.... अस्मिता शर्मा के बाद बेनू के किरदार में अथ शर्मा औसत हैं. उन्हें अभी और सीखना है. बाबा के किरदार में परवेज अख्तर का अभिनय नाटकीय है. बाबा के पुत्र अमर बाबू के रूप में अखिलेंद्र मिश्रा ने अपनी एक्टिंग के टूलकिट में से उतना ही निकाला जितने में काम चल जाए.


तकनीकी पक्षों की बात करें, तो फिल्म के आरंभ में कैमरा विहंगम कोण से ग्राम्य जीवन की स्थापना करता है. गांव का मटमैला रंग संयोजन कथा के यथार्थ को पुष्ट करता है. हल्की सर्दी के कलर टोन को मिलाने का प्रयास हुआ है. पार्श्वध्वनि का कहीं-कहीं आधिक्य कर्णभेदी प्रतीत होता है. जैसे एक बार घर लौटने के बाद सरस्वती के कमरे में बैठने वाला दृश्य हो या अमरेंद्र के भाग जाने के बाद हताश खड़ी सरस्वती वाला दृश्य. इससे बचना चाहिए. 'बउआ...' गाना मोहक है. स्कूल और अमरेंद्र के संग चित्रकारी वाले कुछ दृश्य लंबे हो गए हैं, उन्हें संपादित किया जा सकता था, तो फिल्म और भी चुस्त होती.


हालांकि, तकनीकी पक्ष ऐसा है कि उसमें कभी भी आदर्श स्थिति की संभावना नहीं होती है. मूल है कथानक की प्रस्तुति, जिसमें निर्देशक प्रतीक शर्मा सफल हुए हैं. मैथिली सिनेमा अभी बाजार सापेक्ष नहीं हुआ है, इसके बावजूद इसमें निवेश करने का साहस करने वाली प्रोड्यूसर अस्मिता शर्मा को कोटि-कोटि बधाई. निर्माता-निर्देशक की इस प्यारी जोड़ी की जानिब से आगे भी मैथिली, भोजपुरी, मगही व हिंदी में अच्छी फिल्में हमें देखने को मिलेंगी, ऐसी आशा है.


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