अब ये सवाल बार-बार टकराने लगा है कहीं किसी से मिलो, थोड़ी देर हालचाल लेने के बाद एक ही सवाल पूछा जाता है, जो अब मैं आपसे पूछ रहा हूं, भाई क्या होगा आने वाले चुनाव में? क्या लग रहा है आपको, मध्यप्रदेश में फिर बीजेपी जीतेगी या कांग्रेस अबकी बार पांच साल के लिए आएगी? हम पत्रकारों पर अपने काम के अलावा ये अतिरिक्त बोझ होता है राजनीति और चुनाव पर कमेंट्री करने का.


चलिए अब सवाल का जवाब तलाशते हैं. बीच के पंद्रह महीने को छोड़ दें तो मध्य प्रदेश में बीजेपी की सरकार जब नौ महीने बाद विधानसभा चुनाव में उतरेगी तो बीस साल पूरे कर चुकी होगी. प्रदेश में लगातार इतना लंबा वक्त किसी पार्टी की सरकार को काम करने का पहले कभी नहीं मिला. ना ही कोई राजनेता मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जैसा इतना लंबे समय तक इस सर्वोच्च पद पर रहा. 


शिवराज सिंह को प्रदेश के मुख्यमंत्री बने अगले महीने मार्च में पूरे सोलह साल हो जाएंगे. अपने इस लंबे दौर में शिवराज सिंह ने लकीरें लंबी खींची है. लगातार दौरों और सक्रियता से उन्होंने मुख्यमंत्री का खास पद आम कर दिया. उनके संवाद की अदा और सहजता ने वोटरों से रिश्ता बनाया जिसका फायदा बीजेपी को लगातार चुनावों में होता रहा. हालांकि इन सालों में बीजेपी ने भी अपने आपको बदला है.


ब्राह्मण- बनियों की पार्टी की छवि से बीजेपी आगे निकली और पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों में पैठ बनाई. बीजेपी सरकार के सहारे आरएसएस की पैठ पूरे प्रदेश में बढ़ती रही तो बीजेपी को वोट प्रतिशत का ग्राफ भी लगातार उठाता रहा. मगर सवाल यह है कि आने वाले चुनावों में क्या होगा? क्या पिछले चुनाव में हार के बाद भी बीजेपी शिवराज के सहारे इस चुनाव में पार लग पाएगी? 


बीजेपी के लिए राहत की बात यह है कि 2018 के चुनाव में बीजेपी को 1,56,42,980 तो कांग्रेस को 1,55,95,153 वोट मिले थे यानी कि 47,827 वोट ज्यादा पाकर भी बीजेपी वोट की तालिका में कांग्रेस से पांच सीटें पीछे रही. कांग्रेस 40.90 प्रतिशत वोटों के साथ 114 तो बीजेपी को 41 प्रतिशत वोटों के साथ 109 सीटें मिलीं. मगर इन पांच सीटों के अंतर ने कांग्रेस की सरकार में पंद्रह साल बाद वापसी करा दीं. ये अलग वजह है कि कांग्रेस नेताओं के अंतर्द्वंद्व के चलते पंद्रह साल बाद आई सरकार पंद्रह महीने में ही लुढ़क गई और फिर भाजपा और शिवराज आ गए.


अब बड़ा सवाल यही है कि आने वाले चुनावों के लिए बीजेपी क्या नया करने जा रही है? क्या शिवराज सिंह के चेहरे पर ही चुनाव मैदान में उतरेगी या फिर कोई खास फॉर्मूला पार्टी के पास है? अब तक के रुझान यही बता रहे हैं कि शिवराज अपनी चौथी पारी पूरी करते हुए लग रहे हैं. मंत्रियों को बदलने की बात भी हवा हो गई है. दिन महीने तेजी से गुजरने के साथ ही शिवराज की सक्रियता और कार्यक्रमों की संख्या बढ़ती जा रही है.


मध्यप्रदेश के अखबारों में तकरीबन हर दूसरे-तीसरे दिन पहले पूरे पन्ने के विज्ञापनों में शिवराज या तो कोई बड़ा आयोजन करते दिखते हैं या फिर किसी योजना का लोकार्पण. ऐसा लगता है कि कर्ज लेकर काम चलाने वाली सरकार भव्य आयोजनों और चमकीले विज्ञापनों पर ही पैसा खर्च कर वोटरों को बता रही है ये लगातार काम करने वाली सरकार है.


चुनाव के साल में शिवराज सरकार अब लाडली बहना योजना पर दांव लगा रही है जिसमें सरकार वयस्क महिलाओं को हर महीने एक हजार रुपये बांटेगी- इस पर तकरीबन हर महीने एक हजार करोड़ रुपये खर्च होंगे. बीजेपी को उम्मीद है कि इस योजना के बाद प्रदेश की महिला वोटर लाइन लगाकर पार्टी को वोट देंगे, मगर क्या सब इतना आसान है.


शिवराज सरकार की एंटी इंकम्बेंसी का क्या होगा? जो इन सालों में और बढ़ी है. ये स्वाभाविक है कि लंबे समय तक काम करने के बाद शिवराज सिंह अब अपने आपको दोहराते हुए दिखते हैं, मगर ये भी सच है कि मध्यप्रदेश में शिवराज के बाद बीजेपी में उनके कद का नेता नहीं है. किसी नए नेता पर दांव लगाना रिस्की होगा पर नया नेता पार्टी को लेकर मतदाताओं की अब समाप्त कर देगा.


मगर क्या नया नेता कम वक्त में उतना मेहनती और लोकप्रिय होगा जितना शिवराज हैं. ये सवाल पार्टी के सामने हैं और खबर ये है कि फिलहाल बीजेपी आलाकमान मध्य प्रदेश की चुनावी परिस्थितियों को गंभीरता से तौल रहा है.


अब यदि बात कांग्रेस की करें तो यहां भी हालत पिछले चुनाव से ज्यादा बदले नहीं है. उम्रदराज और अनुभवी कमलनाथ के कंधों पर ही पूरी कांग्रेस को जिताने का दारोमदार है. ये सच है कि कमलनाथ के सामने पार्टी की गुटबाजी ने दम तोड़ दिया है. वो पार्टी के सर्वमान्य नेता हैं. चुनाव में प्रत्याशी चयन से लेकर चुनाव प्रबंधन तक उनका अनुभव काम आता है.


इस बार उनके सामने टिकट बंटवारे के लिए सिंधिया जैसा अड़ने और लड़ने वाला नेता नहीं है, इसलिए उनका लक्ष्य सिर्फ जीतने वाला उम्मीदवार ही होगा, मगर कांग्रेस के जहाज में भी कमजोरियां कम नहीं है. पार्टी एक टूट झेल चुकी है बाकी के बचे विधायकों के सामने भी सीटें जीतने का संकट है. दो पार्टियों के बीच हुए मुकाबले में कांग्रेस अच्छी हालत में होती है मगर दो से तीन या चार मजबूत उम्मीदवार होते ही कांग्रेस के वोट बंट जाते हैं फायदा सीधा बीजेपी को होता है.


मध्यप्रदेश के आने वाले चुनाव में केजरीवाल की आप और ओवैसी की एआईएमआईएम भी उतरेगी. आदिवासी इलाकों में जनता का साथ कांग्रेस को शायद ही मिले. बीएसपी ने अपने प्रत्याशी उतारे और उनको बीजेपी ने पर्दे के पीछे से मजबूती दी तो कांग्रेस का हाल बुरा हो जाएगा. साथ ही कांग्रेस ने लंबे समय से जमीन पर आकर जनता के लिए कोई ऐसा आंदोलन नहीं किया.


ऐसा लगता है कि पूरी पार्टी सिर्फ शिवराज सरकार के विरोधी वोटरों के दम पर ही सरकार में वापसी के सपने देख रही है. ऐसे में दोनों पार्टियों के पास अपनी ताकत और कमजोरियां हैं. ऐसे में अब देखना होगा कौन सी पार्टी कैसे विरोधी पार्टी को शिकस्त देती है और दिसंबर में अपनी सरकार बनाती है. इतना तय है इस बार मुकाबला पिछले चुनाव से ज्यादा कड़ा होगा.


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