Opinion: अब किस करवट बैठ रहा है चुनाव
मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव का शोर अब तकरीबन खत्म होने को है. चुनाव प्रचार के लिये पूरे प्रदेश में उडे अनेक हैलीकाप्टरों की धूल भी बैठने लगी है. मोहल्लों और गलियों में गाड़ियों में लगे लाउडस्पीकर और उनसे आते नारों की गूंज ठहर गयी है. शोर की शांति के बाद जो सवाल गूंज रहा है वो ये कि कौन सी पार्टी जीतेगी चुनाव और कौन बनेगा मुख्यमंत्री.
सच्चाई तो यही है कि पिछले कुछ चुनावों से अलग इस चुनाव में बीजेपी ने अपने नेता या मुख्यमंत्री की तस्वीर साफ नहीं की. नहीं तो अप्रत्यक्ष लोकतांत्रिक प्रणाली में जहां वोटर अपने विधायक और सांसदों को चुनते हैं वहां पर कौन होगा आपकी पार्टी का मुख्यमंत्री और कौन होगा प्रधानमंत्री पद का चेहरा ये सवाल सबसे पहले बीजेपी ने ही पूछना शुरू किया है. मगर इस कडे चुनाव में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को फिर से मुख्यमंत्री पद का चेहरा बनाने के बजाय उनके साथ आठ दस दूसरे चेहरे जोड कर विज्ञापन बनाये गये तो लगा कि ये तो कुछ नये अंदाज का चुनाव लडने लगी बीजेपी.
पार्टी के राष्टीय अध्यक्ष जेपी नड्डा जब संकल्प पत्र जारी करने के बाद पत्रकारों से मुखातिब हुये तो मुख्यमंत्री का चेहरा क्यों सामने नहीं ला रहे तो उनका जवाब बहुत कुछ छिपाते हुये था कि ये पार्टी की रणनीति है. कुछ पहले के चुनावों में भी ऐसा किया गया है. मगर मध्यप्रदेश में जहां पर शिवराज सिंह पिछले पंद्रह साल से ज्यादा वक्त से मुख्यमंत्री बने हुये हैं जिनकी मेहनत और लोकप्रियता के बराबर का कोई नेता बीजेपी ने नही है उसको मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं बनाने का फैसला समझ के परे हैं क्योंकि चुनाव के जानकार बताते है कि यदि मुख्यमंत्री पद का चेहरा साफ तौर पर सामने ना हो तो पार्टी का वोट प्रतिशत सीटों में परिवर्तित उस अनुपात में नहीं होता. इस कठिन चुनाव में ये रणनीति कितने काम आयेगी देखना होगा.
बीजेपी इसे कठिन चुनाव मान रही थी इसलिये चौंकाने वाली रणनीति से शुरुआ9त की. चुनाव की तारीखों के ऐलान के पहले ही हारी हुयी सीटों पर प्रत्याशियों के नाम घोषित किये. मगर जिन सात सीटों पर सांसदों को उतारा उनमें से आधे अपनी जिंदगी का सबसे कठिन चुनाव लडते दिख रहे हैं. एंटी इनकंबेंसी से डरी बीजेपी ने शिवराज पहले साइड लाइन किया मगर बाद में शिवराज ओर उनकी लाडली बहना योजना के भरोसे ही चुनाव छोड दिया. प्रधानमंत्री मोदी की सभाओं में आचार संहिता के पहले आने वाली भीड बाद की सभाओं में आधी हो गयी.
इंदौर के भव्य रोड शो को छोड दिया जाये तो एक दिन में मोदी की तीन तीन सभाओं और भाषण में ऐसा कुछ नहीं निकला जो विपक्षी कांग्रेस को डरा देता. कर्नाटक में मोदी की सभाओं में बजरंग बली आ गये थे और कांग्रेस जीता हुआ मैच हारने की कगार पर आ गयी मगर बजरंग बली का आशीर्वाद कांग्रेस को ही मिला. मध्यप्रदेश की सभाओं में पहले मोदी ने शिवराज को किनारे किया उनका और उनकी योजनाओं का नाम भी नहीं लिया मगर बाद में जो फीडबैक आया उसके बाद शिवराज शरणं हो गया पूरा चुनाव.
इसमें दो मत नहीं कि अठारह साल की सरकार को फिर से चुनने को लेकर जनता में कोई रुचि या उत्साह नहीं है. ठीक उसी तरह कोई उत्साह कांग्रेस को सत्ता में वापसी को लेकर भी नहीं है. मगर सरकार के खिलाफ असंतोष का वोट कांग्रेस को फायदा ही पहुंचायेगा. विभिन्न इलाकों में अधिकतर लोग घूमने फिरने पर चुनाव का पूछने पर यही कहते दिखते हैं कि फंसा हुआ है चुनाव, बडी टक्कर का है चुनाव, कांटे का है चुनाव और ज्यादा है तो हार जीत का फैसला बहुत कम अंतर से होगा. इन जवावों के पीछे छिपे इशारे को समझें तो पता चलता है कि कोई ये नहीं कह रहा कि अबकी बार बीजेपी फिर सरकार बना रही है. ये लोग ये भी नहीं कह रहे कि कांग्रेस सरकार बनाने जा रही है.
किसी भी वोटर से थोडी ज्यादा बात करो तो साफ हो जाता है कि वोटर को मंत्री और विधायक से नाराजगी है मगर ये नाराजगी कांग्रेस के वोट में तब्दील होगी या फिर शिवराज सरकार की लोक लुभावन योजनाओं में घुल जायेगी ये बडा सवाल है. ये चुनाव मोदी शिवराज की योजनाओं के करोडों संतुष्ट लाभार्थी और असंतुष्ट वोटरों के बीच होता जा रहा है. पार्टी से बढ़कर प्रत्याशी की छवि का असर चुनाव में अब ज्यादा काम आ रहा है. दस से पंद्रह जगहों पर होने वाले त्रिकोणीय मुकाबले भी बीजेपी कांग्रेस की चुनावी संभावनाओं पर असर डाल रहे हैं. ऐसे में हम भी यही कहेगे कि चुनाव कांटे का है और फंसा हुआ है.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ़ लेखक ही ज़िम्मेदार हैं.]