इस समय मध्य प्रदेश में जो कांग्रेस की स्थिति है, वह आंतरिक कलह और संघर्ष की है. इसका मुजाहिरा माइक पर हो रहा है, सार्वजनिक समारोहों में हो रहा है, और यह एक पार्टी के लिए यकीनन चिंता का विषय होना चाहिए. संदर्भ के लिए हमें यह याद करना चाहिए कि 2018 में तो कांग्रेस जीत ही गयी थी, लेकिन ज्योतिरादित्य सिंधिया जिस तरह से गए थे, उसका प्रभाव मतदाताओं पर बहुत अच्छा नहीं पड़ा था. चुनाव की घोषणा के बाद जो माहौल बना था, उससे यह दिखने लगा था कि कांग्रेस लाभ की स्थिति में नजर आ रही थी. उसके कारण भी थे. जैसे, भाजपा अगर डबल इंजन की बात करती है, उसके शिखर पुरुष अगर उपलब्धियों को अपना बताते हैं तो कुल मिलाकर 20 साल से तो मध्य प्रदेश में भाजपा की ही सरकार है और केंद्र मे भी फिलहाल बीजेपी ही है.


डबल इंजन के फायदों को अगर आप लेते हैं, तो जो एंटी-इनकम्बेन्सी है, सत्ता के खिलाफ जो गुस्सा है, उसको भी तो आपको ही झेलना होगा. इस बार मध्यप्रदेश में सबसे अधिक गुस्सा था, लोगों के मन में सत्ता के प्रति. शिवराज सिंह चौहान तीसरी और चौथी पारी में खासे अलोकप्रिय हो गए थे. ब्यूरोक्रेसी हावी हुई थी और करप्शन भी बहुत हुआ था. तो, कांग्रेस का चांस बढ़िया लग रहा था, अभी भी है, लेकिन कुछ दिनों पहले तक तो लगभग कर्नाटक जैसी स्थिति लग रही थी. वहां जो कामयाबी मिली थी, उसके रिपीट होने की बात हो रही थी.


दिग्विजय और कमलनाथ के बीच जंग


हालांकि, जब से कांग्रेस की सूची आयी है, जिस तरह से मतभेद उभर कर आए हैं और स्थानीय, प्रादेशिक और आलाकमान के स्तर पर जो गैप दिख रहा है, जो समन्वय की कमी दिख रही है, वह दिक्कत की बात है. पिछले कुछ दिनों से तो कांग्रेस बैकफुट पर आय़ी है. जैसे, कमलनाथ का जो बयान वायरल हो रहा है, वह बहुत अच्छे कैंडिडेट को टिकट नहीं मिलने पर आया है. वह अनुकूल अवसर भी था, क्योंकि यशोधराराजे सिंधिया ने ऐलान कर दिया था कि वह चुनाव नहीं लड़ेंगी. कमलनाथ ने जो सार्वजनिक तौर पर उनको कहा कि जाकर दिग्विजय और उनके बेटे की धोती फाड़िए, तो वो एक मंझे हुए नेता का बयान तो नहीं है.



इधर वचप-पत्र जारी हो रहा था, उधर माइक पर ही दिग्विजय और कमलनाथ के बीच कटाक्षों का लेन-देन शुरू हो गया. कमलनाथ ने कुछ कहा तो दिग्विजय ने कहा कि नॉमिनेशन फॉर्म पर साइन तो आपका ही है, कैंडिडेट तो आप ही तय कर रहे हैं, इस पर कमलनाथ ने कहा कि कुछ भी हो पर उन्होंने गाली खाने का पावर ऑफ अटार्नी तो दिग्विजय को ही दिया है. इस पर दिग्विजय ने बात समाप्त की कि अगर गाली ही खानी है, तो वह शिव की तरह गरल पी लेंगे. अब देखिए कि ये सब लाइव था, टीवी चैनल्स पर दिख रहा था, स्थानीय कार्यकर्ताओं में ये संदेश गया कि सभी कुछ ठीक नहीं है.



कांग्रेस का चल रहा है संक्रमण काल 


मध्य प्रदेश में कांग्रेस संक्रमण-काल से गुजर रही है. मतलब यह है कि दिग्विजय ने उनके 10 वर्षों के मुख्यमंत्रित्व काल में इतनी अलोकप्रियता बटोर ली थी कि उनकी प्रदेश में पूरी उपस्थिति तो है, उनके कार्यकर्ता भी हैं, लेकिन हालत वही है कि अगर कांग्रेस आज यह घोषित कर दे कि जीतने पर दिग्विजिय सिंह मुख्यमंत्री होंगे तो कांग्रेस को एक चौथाई सीट न मिले. दूसरी तरफ, जब कमलनाथ की सरकार गयी तो बहाना भले ज्योतिरादित्य सिंधिया बने थे, लेकिन वह तो चले गए. सरकार के जाने की पृष्ठभूमि तो दिग्विजय सिंह ने बनायी थी. दिग्विजय और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीच की अदावत भी किसी से छुपी नहीं है. फिर, कमलनाथ जब सीएम बने थे, तो उन्होंने दिग्विजय को फ्री-हैंड भी दिया था.


उन्होंने दिग्विजय सिंह पर पूरा भरोसा किया और इसका एक कारण भी था. 1993 में जब सुभाष यादव कांग्रेस के सीएम बननेवाले थे तो अर्जुन सिंह के शिष्य होने के नाते दिग्विजय सिंह को सीएम बनवाने में कमलनाथ ने बड़ी मदद की थी. उससे भी पीछे जाएं तो अर्जुन सिंह को भी मुख्यमंत्री संजय गाँधी से कहकर कमलनाथ ने बनवाया था. कमलनाथ की उम्मीद थी कि वह दिग्विजय सिंह पर भरोसा कर सकते हैं, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. तो, जब ऐसा नहीं हुआ. इस वजह से भी कमलनाथ की नाराजगी थी. उन्होंने इसी कारण हरेक जगह अपना अपर हैंड रखा. कई जगहों पर दिग्विजय के पोस्टर भी नहीं थे. हालांकि, वो ठीक ही था, कांग्रेस को इसका फायदा ही मिल रहा था, लेकिन बीते दो दिनों से जो हो रहा है, वह कुछ अलग स्तर का ही है. प्रदेश की जनता में ये संदेश जा रहा है कि ऊपर सब कुछ ठीक नहीं है. खासकर, जबसे ये सूची जारी हुई है कांग्रेस की, तो उस सूची में कई कद्दावर नेताओं के नाम नहीं थे. इसके लिए पूरी तरह कमलनाथ जिम्मेदार हैं. 


कांग्रेस जीतेगी तो भाजपा की वजह से


जहां तक ज्योतिरादित्य सिंधिया फैक्टर का सवाल है, तो वह तो न घर के हैं न घाट के. उन्होंने अपने लिए पर्याप्त नाराजगी और बदनामी मोल ले ली है. भाजपा के अंदर जाकर उनको भी महसूस हो रहा है कि उनको कुछ मिला नहीं है. राज्यसभा तो कांग्रेस भी उनको भेज देती. सिंधिया के इलाके में तो भाजपा हारने ही वाली है. इसका कारण एक और है कि 30 साल तो माधवराव सिंधिया से भाजपा लड़ी, 20 साल से ज्योतिरादित्य सिंधिया लड़ रहे हैं, लेकिन अब जब वो समर्थकों समेत भाजपा में आए हैं, तो भाजपा का काडर ठगा महसूस कर रहा है. वह तो पीढ़ियों से महल से लड़ता रहा है तो इसीलिए वहां सबोटाज और आंतरिक संघर्ष तो होगा ही. इन सब के बीच अखिलेश यादव और सपा फैक्टर का ध्यान भी रखना चाहिए.


सपा इतनी कमजोर भी नहीं है. भिंड से लेकर रीवा तक सपा का अपना वोट बैंक भी है, जो 4 से 5 फीसदी वोट उनका है. वह 30 से 40 सीटों पर परिणामों पर असर तो डाल सकते हैं, लेकिन यह हैरत की बात है कि कांग्रेस ने उनसे बात नहीं की, जबकि वह तो इंडिया गठबंधन का ही हिस्सा हैं. हरेक बार कांग्रेस और उनका कुछ समझौता होता ही था, इस बार कमलनाथ ने वह भी नहीं होने दिया. 


इस वक्त कमलनाथ का व्यवहार बड़ा तिलिस्मी और रहस्यमय दिख रहा है. इसको अगर एक वाक्य में कहें तो अगर कांग्रेस यहां जीतती है तो उसकी जीत का श्रेय भारतीय जनता पार्टी को जाएगा और अगर हारती है तो ठीकरा कमलनाथ पर फूटेगा.


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