जानें क्यूं रेत के अवैध उत्खनन की स्टोरी मेरे हिस्से में बार बार आती है कि 2013 में रेड इंक अवॉर्ड से लेकर 2002 में ईएनबीए अवॉर्ड में किसी स्टोरी को लगातार कवरेज का अवॉर्ड भी रेत की स्टोरी करने पर ही आया. ऐसे में जब हमारे सीहोर के नितिन ने बताया कि उसके जिले में नर्मदा में बड़े पैमाने पर रेत का अवैध खनन हो रहा है तो बहुत ध्यान नहीं दिया मगर जब बातों- बातों में पता चला कि रेत किनारों से नहीं बल्कि नदी के बीचों बीच से नए- नए तरीकों से निकाली जा रही है तो कवरेज की इच्छा को रोक नहीं पाया और अगली सुबह हम आठ बजे नसरुल्लागंज के पास नीलकंठ घाट से नाव में सवार होकर निकल पडे थे हरदा की ओर.
सोचा था जो शूट करना होगा लुक छिपकर करेंगे मगर थोडी दूर चलने पर ही रेत उत्खनन का जो नजारा देखा उससे लगा कि जब अवैध काम खुलेआम हो रहा है तो हम क्यों छिपे और छिपाएं अपना माइक कैमरा किसी से. बस फिर क्या था हमारे कैमरामैन साथी होमेंद्र का कैमरा और हमारा माइक बोलने लगा था. हमने देखा कि नर्मदा नदी में थोड़ी दूर पर अनेक लोहे की नावें चल रहीं थीं जो बीच बहाव में आकर ठहर रहीं थीं. इन नावों में मजदूर थे जो बाल्टियां लेकर पानी में उतरते गोता लगाते और जब निकलते तो उस बाल्टी में गीली रेत होती उसे वो नाव में भर लेते. पांच से दस डुबकियों के बाद नाव रेत से लबालब हो जाती तो नाव किनारे ले जाकर वहां खड़े टैक्टरों में वो गीली रेत भर दी जाती.
रेत निकालने वाली ऐसी पांच दस नहीं पचीसों से नावें थीं. थोडा आगे चलने पर रेत निकालने का नया तरीका दिखा. यहां पर नाव में सवार लोग बड़े-बड़े छन्नों को पानी में डालकर रेत निकालकर नाव में भर रहे थे. इसमें इन मजदूरों को पानी में नहीं उतरना पड़ रहा था बल्कि नाव में खडे खड़े बड़े- बड़े मजबूत लट्ठों के सहारे ये काम हो रहा था. नितिन देखकर फुसफुसाया सर ये तो नया आइटम ले आए रेत निकालने का. मगर अभी और आइटम देखना बाकी था.
रेत निकालने वालों को भी ना तो हमारे कैमरे का डर था और ना ही किसी और का. दिलेरी का ये अंदाज देखकर तो एक दफा तो हम रेत निकालने वालों की कश्ती के करीब से गुजरे और उनकी कश्ती में ही सवार हो गए और लगे पूछने क्यों कर रहे हो ये गलत काम, मगर बेचारे गरीब मजदूरों को वैध अवैध से क्या मतलब. वो तो दूर यूपी से कुछ महीनों के लिए ठेके पर काम करने यहां आए हैं. ये काम तो वो किनारे बसे रसूखदार ठेकेदारो के लिए कर रहे हैं. एक नाव भरकर किनारे ले जाने पर आठ सौ से हजार रुपये मिलते हैं जो चार से छह लोगों में बंटते हैं.
नदी के बीच से निकाली जाने वाली ये रेत के ट्रैक्टरों को गांव वाले ही अपने खेतों से रास्ता देते और पैसा वसूलते हैं. ट्रैक्टर को नदी के बीच तक आने देने के लिए नदी में मिट्टी डालकर रास्ते भी जेसीबी की मदद से बनते हमें दिखे. हमें बताया गया कि दिन में ये जेसीबी खेतों में छिपी रहती हैं तो रात होते ही ये रेत निकालने के काम में जुट जाती हैं. क्योंकि रात में नदी में जाकर नाव से रेत निकालने का काम खतरनाक होता है.
दरअसल नदी किनारे के इन गांवों में रेत निकालना कुटीर उद्योग सा हो गया है. गांव के ट्रैक्टर खेती के काम में कम रेत ढोने के काम में ज्यादा आते हैं. एक ट्रैक्टर रेत में ढाई से तीन हजार रुपये की होती है तो वही रेत ट्रैक्टरों की मदद से जब दूर खड़े डंपरों में भर जाती है तो बीस से पच्चीस हजार रुपये की हो जाती है. बीच नदी से निकाली ये अवैध रेत ठेकेदार के नाकों पर रॉयल्टी की रसीद कटाकर वैध हो जाती है.
भोपाल होशंगाबाद या भोपाल सीहोर के रास्तों में पानी रिसते डंपरों से अंदाजा हो जाता कि रेत नदी के किनारों या बीच से निकालकर लाई जा रही है. मगर देखने वाला प्रशासन जब सब कुछ देख कर अनदेखा कर दे तो फिर क्या वैध और क्या अवैध. नाव की सवारी में हमें रेत निकालने का एक आइटम और दिखा जिसे पनडुब्बी कहते हैं इसे बीच टापू पर छिपाकर रखा गया था.
इस पनडुब्बी को किनारे रखे पंप से चलाकर बीच नदी की बालू खीची जाती है. नाव में सवार स्थानीय निवासी रामेश्वर ने कहा कि इसे पहली बार देखा. ऐसे रेत तो भिंड में ही निकालते हैं. सीहोर के छिपानेर के पास तो सैकड़ों की संख्या में कश्तियां बेखौफ होकर बिना किसी हैरानी के रेत निकाल रहीं थीं. हैरान तो हम थे कि ये वही नर्मदा है जिसके लिए शिवराज सरकार ने नर्मदा यात्रा निकाली.
इसी नर्मदा की जीवित वस्तु मानकर इसके खिलाफ किए जाने वाले अपराधों को गंभीर सजा देने का प्रावधान किया गया था. इस पवित्र नदी के किनारे करोडों वृक्षारोपण का इतिहास रचा गया. इसके किनारों से शराब के ठेके दूर किए गए, मगर इन आडंबरों के बाद भी नदी की छाती चीर कर जो रेत रात दिन निकाली जा रही है वो कब रुकेगी. क्या है इसका जवाब नर्मदा के नाम पर हर साल करोड़ों रुपये के आयोजन करने वाली प्रदेश सरकार और नर्मदा जयंती पर सैकड़ों मीटर चुनरी चढ़ाने वाले धार्मिक संगठनों के पास.
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