आरएसएस के पुराने स्वयंसेवकों में शामिल और उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रह चुके 80 बरस को पार करने वाले भगत सिंह कोश्यारी को महाराष्ट्र के राज्यपाल पद से हटाना केंद्र सरकार की मजबूरी थी या उनके ऐसे बड़बोले बयान, जो एक के बाद एक नए विवाद को जन्म देते गए. उन्होंने अपने तीन साल के कार्यकाल में ऐसे कई विवादास्पद बयान दिये हैं जिसे लेकर दिल्ली में बैठी सरकार को एक तरह से बैकफुट पर या ये कहें कि बचाव की मुद्रा में आने पर मजबूर होना पड़ा.


देश के संविधान के मुताबिक राष्ट्रपति के बाद राज्यपाल के संवैधानिक पद का ही सबसे अधिक महत्व है. अभी तक की परंपरा यही रही है कि इस पद पर बैठा व्यक्ति राजनीति या किसी ऐसे संवेदनशील मुद्दे पर अपना बयान देने से अक्सर बचता है जिससे कोई विवाद पैदा हो जाए. लेकिन अगर अतीत पर निगाह डालें तो कोश्यारी ने संविधान की इस मौन परंपरा को तोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी. उन्होंने उस पद पर रहते हुए कई ऐसे बयान दिए जिससे महाराष्ट्र से लेकर दिल्ली में बैठे बीजेपी नेताओं का ब्लड प्रेशर नीचे-ऊपर होता रहा कि सार्वजनिक मंचों से आखिर ऐसी बातें वे क्यों कह रहे हैं जिसका सियासी फायदा होने से तो रहा बल्कि चुनावी नुकसान ही होगा.


उनके ऐसे एक नहीं, अनेकों बयान हैं जिसने केंद्र की मोदी सरकार को भी मुश्किल में डाल देने का काम किया था. उन्होंने पिछले साल नवंबर में ये भी कहा कि छत्रपति शिवाजी महाराज तो पुराने जमाने के हीरो थे और आज के हीरो तो नितिन गडकरी और देवेंद्र फडणवीस ही हैं. इस पर विपक्ष ने तो बवाल मचाया ही था लेकिन मुंबई से लेकर दिल्ली में बैठे बीजेपी नेता भी हैरान ही गए थे कि कोश्यारी आखिर कहना क्या चाह रहे हैं. एक सार्वजनिक कार्यक्रम के मंच से बोलते हुए उन्होंने कहा था कि "शिवाजी महाराज तो पुराने जमाने की बात हैं. मैं नए युग की बात कर रहा हूं, सब यहीं मिल जाएंगे. डॉ. बीआर आंबेडकर से लेकर नितिन गडकरी तक आपको यहीं मिल जाएंगे."


जाहिर है कि महाराष्ट्र में रहने वाले हर मराठी ने इसे शिवाजी का अपमान बताया और विपक्ष ने भी इसकी तीखी आलोचना की. ऐसी प्रतिक्रिया देखकर महाराष्ट्र से लेकर दिल्ली तक बैठे बीजेपी नेताओं ने उनके इस बयान से पल्ला झाड़ते हुए साफ कह दिया कि ये उनकी निजी राय हो सकती है. लेकिन लगता है कि शिवाजी के बारे में कोई भी अपुष्ट या भ्रामक टिप्पणी करना मानो कोश्यारी की आदत में शुमार हो गया था. पिछले साल ही औरंगाबाद के एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा था कि छत्रपति शिवाजी महाराज के गुरु स्वामी समर्थ रामदास थे. उनके इस बयान के बाद महाराष्ट्र की सियासत उबल पड़ी थी जिसकी परवाह उन्होंने शायद ही कभी की हो. 


तब कोश्यारी ने कहा था कि जिस तरह से चाणक्य के बिना चंद्रगुप्त को कौन पूछेगा? उसी तरह से समर्थ के बिना शिवाजी को कौन पूछेगा? जीवन में गुरु का काफी महत्व होता है. लेकिन कोश्यारी के उस बयान पर एनसीपी नेता सुप्रिया सुले ने उन पर पलटवार करते हुए बॉम्बे हाईकोर्ट की औरंगाबाद खंडपीठ के एक आदेश की कॉपी भी ट्वीट की थी. यह आदेश वह था जिसमें कहा गया कि शिवाजी महाराज और स्वामी समर्थ रामदास के बीच कोई भी गुरु और शिष्य का रिश्ता नहीं था.


मुंबई में हुए एक सार्वजनिक समारोह के मंच से बोलते हुए भी कोश्यारी ने एक ऐसा विवादास्पद बयान दिया था जिसे सारे मुंबईवासियों ने न सिर्फ अपना अपमान महसूस किया था बल्कि विपक्षी दलों ने केंद्र सरकार से उन्हें किसी और राज्य में भेजने की मांग भी कर डाली थी. दरअसल, तब कोश्यारी ने कहा था कि अगर राजस्थान या गुजरात के मारवाड़ी समुदाय का योगदान न हो तो मुंबई खुद को देश की आर्थिक राजधानी कहलाने की हकदार नहीं है. इस बयान के बाद भी काफी बवाल मचा था और आखिरकार कोश्यारी को माफ़ी मांगनी पड़ी थी.


ये जानकर भी थोड़ी हैरानी होती है कि आजाद भारत के इतिहास में शायद ये पहला ऐसा मामला होगा जब एक राज्यपाल को हटाने के लिए विपक्षी दल सड़कों पर उतरे और नेताओं ने इसके लिए तमाम प्रदर्शन, धरना, मीटिंगें और रैलियां भी कीं. यहां तक कि इस मुद्दे पर बीजेपी-शिव सेना की गठबंधन वाली महाराष्ट्र सरकार में भी साफ फूट नजर आई.


इन्हीं विवादों के साये में बीती 19 जनवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कुछ योजनाओं का उद्घाटन करने मुंबई दौरे पर गए थे. दावा किया जा रहा है कि उसी दौरान तत्कालीन राज्यपाल कोश्यारी ने उनसे कहा था कि वह सभी राजनीतिक जिम्मेदारियों से मुक्त होना चाहते हैं. लेकिन सूत्रों की मानें, पीएम मोदी ने उन्हें इशारों में बता दिया था कि वे शाम तक अपना इस्तीफा भेज दें और बाकी जिम्मेदारी सरकार पर छोड़ दें कि उन्हें कब इस पद से मुक्त करना है. सो, सरकार ने रविवार को वो फैसला लेकर विपक्ष के एक फ्रंट पर तो बैरिकेड लगा ही दिया है.


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