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बाल ठाकरे के स्टाइल में आखिर अब इतना क्यों गरजे उद्धव ठाकरे?

शिवसेना की विरासत संभालने वाले महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के बारे में अकसर यही माना जाता था कि वे अपने पिता बाल केशव ठाकरे यानी बाल ठाकरे की तरह न तो उतने बेबाक हैं और न ही हिंदुत्व को लेकर ही उनका उतना उग्र रुख रहा है. उनके मुकाबले राज ठाकरे को बाल ठाकरे का ज्यादा करीब इसलिए समझा जाता रहा कि वे उग्र हिंदुत्व को लेकर दिए बयानों से उनकी हुबहू कॉपी पेश करते रहे हैं. लेकिन उद्धव ठाकरे ने शनिवार को शिवसेना की रैली में दिए अपने भाषण से इस धारणा को तोड़ दिया कि वे 'मोम की गुड़िया' हैं और उन्हें उग्रता दिखाना नहीं आता. उन्होंने बीजेपी और संघ के ख़िलाफ़ जितनी तीखी भाषा का प्रयोग किया है, वह तो शायद बाल ठाकरे ने भी कभी नहीं किया होगा.
              
महाराष्ट्र में शिवसेना और बीजेपी का 30 साल पुराना गठबंधन साल 2019 में सिर्फ इसलिये टूट गया था कि दोनों के बीच अहंकार की लड़ाई में कोई भी झुकने को तैयार नहीं था.लेकिन राजनीति के इस सच को भला कौन झुठला सकता है कि साल 1989 में बीजेपी नेता प्रमोद महाजन ही बाल ठाकरे के आवास 'मातोश्री' में ये फ़रियाद लेकर पहुंचे थे कि अगर शिवसेना और बीजेपी का चुनावी गठबंधन हो जाता है, तो महाराष्ट्र में भगवा लहराने से हमें कोई नहीं रोक सकता. आने वाले सालों में ये सच भी साबित हुआ.

लेकिन उस घटना के जानकारों के मुताबिक अपनी अकड़ और जिद के लिए मशहूर रहे बाल ठाकरे ने तब  महाजन के उस प्रस्ताव पर अपने मुंह से कुछ न बोलकर एक कागज़ पर लिख दिया था, 'शिवसेना 200 सीटों पर चुनाव लड़ेगी और जो सीटें बचती हैं, उन पर बीजेपी लड़ ले.' गौरतलब है कि महाराष्ट्र में 288 विधानसभा सीटें हैं.बताते हैं कि महज़ आधे घंटे की चर्चा के बाद फाइनल हुए गठबंधन के इस समझौते में बात इस पर खत्म हुई कि 1990 के विधानसभा चुनाव में शिवसेना 183 और बीजेपी 104 सीटों पर चुनाव लड़ेगी.मतलब ये कि उस जमाने में बीजेपी के सबसे बड़े 'संकटमोचक प्रबंधक' के रुप में उभरे प्रमोद महाजन बाल ठाकरे को भी उनकी जिद से झुकाने में कामयाब हुए और उन्होंने पार्टी को 16 और ज्यादा सीटों पर लड़ाने का मौका दिलवाया था.

हिंदुत्व की राह पर चलने वाले दोनों दलों की दोस्ती रंग लाई और महाराष्ट्र में कई बार गठबंधन की सरकार भी बनी. लेकिन इस गठबंधन का बड़ा फायदा बीजेपी को हुआ,जिसने शिव सेना के जरिये महाराष्ट्र में अपनी जमीन इतनी मजबूत कर ली कि वह 'छोटे भाई ' की भूमिका से निकलकर 'बड़े भाई' की भूमिका में आ गई और उसने शिवसेना को महत्व देना लगभग बंद कर दिया. वहीं से शुरू हुई तकरार ने दोनों के रिश्ते नवम्बर 2019 में खत्म करवा दिए.
 
शनिवार को हुई शिव सैनिकों की रैली में उद्धव ठाकरे का वही दर्द छलका.उन्होंने कहा क‍ि "पिछले 25 साल हम गठबंधन में सड़ गए.अब हम इनका विकृत चेहरा देख रहे हैं और सोच रहे हैं कि क्या यह वही लोग हैं जिनके साथ हम थे. हमारे सामना अखबार में जो हम लिखते हैं, वो देश के लिए लिखते हैं,किसी के परिवार या घरवालों के बारे में नहीं लिखते, यह हमारा संस्कार है. हाल ही में पुरानी एक वीडियो सामने आई जिसमें पेट्रोल की कीमत सिर्फ 7 पैसे बढ़ने पर अटल बिहारी वाजपेयी ने बैलगाड़ी से संसद पहुंचकर इसका विरोध किया था.अब इन्हें क्या हुआ है?"

आज़ादी की लड़ाई के बहाने उद्धव ठाकरे ने संघ व बीजेपी पर जिस धारदार भाषा में हमला बोला है,वह दरअसल,बाल ठाकरे की शैली ही रही है.उद्धव की इस तल्ख़ी को सियासी गलियारों में बेहद अहम माना जा रहा है.इसलिये कि ये रूप उनके शालीन स्वभाव के बिल्कुल उलट है और इसीलिये कहा जा रहा है कि वे अब मोदी सरकार से आरपार की लड़ाई के लिए अपनी आस्तीन चढ़ा चुके हैं.

कल तक जो बात कांग्रेस कहा करती थी,उसे उद्धव ने दोहराकर ये जता दिया कि शिवसेना और बीजेपी सियासी नदी के वो दो किनारे बन चुके हैं, जो अब कभी मिल नहीं सकते. उद्धव ठाकरे ने कहा कि, "संघ का आजादी में कोई योगदान नहीं था. तुम्हें आजादी से क्या लेना-देना है? स्वतंत्रता की लड़ाई में तुम्हारा कोई योगदान नहीं है. संघ उस समय कुछ नहीं कर रहा था. लेकिन जनसंघ कर रहा था. उस समय शिवसेना नहीं थी, लेकिन शिवसेना प्रमुख बालासाहेब ठाकरे और मेरे काका श्रीकांत ठाकरे और मेरे परिवार ने आजादी की लड़ाई में साथ दिया."

अयोध्या में बाबरी मस्जिद का विवादित ढांचा गिराये जाने का क्रेडिट अक्सर बीजेपी लेती रही है जिसका उसे चुनावों में फायदा भी मिला है. लेकिन बीजेपी के हिंदुत्व पर उद्धव ने जिस तरह से हमला किया है,उसे गुब्बारे में सुई चुभोने जैसा समझा जा रहा है.उन्होंने कहा कि, "बीजेपी का हिंदुत्व झूठा है. वो हमें हिंदुत्व का पाठ ना पढ़ाए. हम हिंदुत्व को नहीं छोड़ सकते हैं. हमारे हिंदुत्व का फैसला करने वाले आप कौन होते हैं? बाबरी मस्जिद को आपने नहीं बल्कि शिवसैनिकों ने गिराया था." 

वहीं एमएनएस चीफ राज ठाकरे पर निशाना साधते हुए उद्धव ठाकरे ने उन्हें मुन्नाभाई कहकर बुलाया और कहा कि, इस मुन्नाभाई के बारे में क्या कहें, उसके सिर पर कोई केमिकल लोचा है.      जम्मू-कश्मीर में कश्मीरी पंडित राहुल भट्ट की हत्या को लेकर उन्होंने कहा, ''राहुल भट्ट की एक सरकारी कार्यालय में हत्या कर दी गई. चरमपंथी आए और उसे मार दिया. क्या आप वहां जाकर हनुमान चालीसा पढ़ेंगे? हमें मंदिर में घंटी बजाने वाला नहीं बल्कि दुश्मनों को बाहर रखने वाला हिंदुत्व चाहिए.हम कांग्रेस के साथ गए लेकिन हमारे हिंदुत्व को नहीं छोड़ा. हिंदुत्व कोई धोती नहीं है जिसे छोड़ सकते हैं. तुम छोड़ सकते हो, हम नहीं."

उद्धव के बीजेपी से ख़फ़ा होने की अपनी सियासी वजह है लेकिन महाराष्ट्र की राजनीति के अलावा बाहर शायद कम लोग ही ये जानते होंगे कि बाल ठाकरे ने बीजेपी के लिए एक कोड वर्ड रखा हुआ था- "कमलाबाई." शायद ये नाम उन्होंने बीजेपी के चुनाव-चिह्न कमल के निशान को जोड़ते हुए मजाक में ही रखा होगा.लेकिन इसके लिए एक सच्चा वाकया जानना भी जरुरी है.

एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार अपनी आत्मकथा, 'ऑन माई टर्म्स' में लिखते हैं, "बाला साहेब का उसूल था कि अगर आप एक बार उनके दोस्त बन गए तो वो उसे ताउम्र निभाते थे. सितंबर, 2006 में जब मेरी बेटी सुप्रिया ने राज्यसभा चुनाव लड़ने की घोषणा की तो बाला साहेब ने मुझे फ़ोन किया. वो बोले, 'शरद बाबू मैं सुन रहा हूं, हमारी सुप्रिया चुनाव लड़ने जा रही है और तुमने मुझे इसके बारे में बताया ही नहीं. मुझे यह ख़बर दूसरों से क्यों मिल रही है?' "मैंने कहा, 'शिव सेना-बीजेपी गठबंधन ने पहले ही उसके ख़िलाफ़ अपने उम्मीदवार के नाम की घोषणा कर दी है. मैंने सोचा मैं आपको क्यों परेशान करूं.' ठाकरे बोले, 'मैंने उसे तब से देखा है जब वो मेरे घुटनों के बराबर हुआ करती थी. मेरा कोई भी उम्मीदवार सुप्रिया के ख़िलाफ़ चुनाव नहीं लड़ेगा. तुम्हारी बेटी मेरी बेटी है.' मैंने उनसे पूछा, 'आप बीजेपी का क्या करेंगे, जिनके साथ आपका गठबंधन है?' उन्होंने बिना पल गंवाए जवाब दिया, 'कमलाबाई की चिंता मत करो. वो वही करेगी जो मैं कहूंगा."

लेकिन अब न तो बाल ठाकरे हैं और न ही बीजेपी को 'कमलाबाई' कहने की हैसियत किसी में है. लिहाजा, उद्धव ने वही किया,जो सियासत में एक बेटा अपनी ताकत दिखाने के लिए करता है कि उसकी रगों में आज भी उस पिता का ही खून दौड़ रहा है,इसलिये मुझे कमजोर आंकने की गलती मत करना.अब सवाल है कि ताकत का ये नज़ारा 'दिल्ली दरबार' को कितना रास आया होगा,जो महाराष्ट्र की सियासत में एक नया गुल खिलाने के लिए तैयार बैठा है?

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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