राजनीति को ‘अनन्त सम्भावनाओं का खेल’ कहा गया है. इसमें कोई भी अछूत नहीं होता. राजनीति का सत्ता और कुर्सी के पीछे भागना अनिवार्य है. राजनीतिक विचारधाराएं सिर्फ़ मुखौटा होती हैं. विजेता ही नैतिकता को परिभाषित करता है. नहीं जीतने वाले अंगूरों को खट्टा बताते रहते हैं. राजनीति में खाने और दिखाने के दांत हमेशा अलग ही होते हैं. राजनीति में किसी की भी कथनी और करनी हमेशा एक जैसी नहीं होती. गठबन्धन को राजनीति का प्रमुख वाद्ययंत्र कह सकते हैं. इसके साज़िदें बेमेल सुरों के तालमेल से सुरीलापन विकसित करते हैं. इसीलिए यक्ष-प्रश्न ये है कि महाराष्ट्र में सियासी सुरीलेपन की अभी जो तरंगें उभरी हैं, वो कैसे सुहानी रह पाएंगी?
चुनाव पूर्व गठबन्धन जहां प्रतिद्वन्दियों की ताक़त का अन्दाजा लगाकर बनते हैं, वहीं चुनाव बाद वाले गठबन्धन ‘जिसकी जितनी हिस्सेदारी, उसकी उतनी भागीदारी’ के उसूल से चलती है. गठबन्धन की बुनियाद परस्पर मान-सम्मान, सह-अस्तित्व, साफ़-सुथरा लेन-देन या हिसाब-क़िताब तथा भूल-चूक लेनी-देनी के उसूलों से चलता है. गठबन्धन तभी तक टिकाऊ रहता है जब तक कि एक-साथ हुए राजनीतिक दल अपनी-अपनी थालियों में खाकर सन्तुष्ट रहते हैं. जैसे ही दूसरे की थाली में हाथ मारने की कोशिशें होती हैं, वैसे ही गठबन्धन टूटने लगता है. गठबन्धन की समन्वय समिति ही उसे रस्सी की तरह बांधे रखती है. ये ‘थर्ड अम्पायर या वीडियो रेफ़री’ की तरह होते हैं. इनके निष्पक्ष रहने तक ही गठबन्धन का मैच चलता है.
राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले सुधी पाठक उपरोक्त नियमों को खेल के मैदान की सीमा-रेखाओं या लक्ष्मण-रेखाओं की तरह भी देख सकते हैं. इन्हीं सरहदें अथवा चुनौतियों से तय होगा कि मुम्बई में उद्धव ठाकरे की अगुवाई में बनी महाविकास अघाड़ी सरकार कितनी टिकाऊ और सुरीली होगी? महाराष्ट्र का महा-प्रयोग अब निम्न पंच-तत्वों पर ही निर्भर रहेगा. इसे परीक्षा के उस प्रश्न-पत्र की तरह देखा जा सकता है, जिसमें सबसे ऊपर निर्देश लिखा है कि ‘प्रश्न संख्या एक अनिवार्य है!’
प्रश्न संख्या एक: उदार बनाम कट्टर हिन्दुत्व
भारतीय राजनीति में हिन्दुत्व का अंश हमेशा रहा है. फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि गांधी के अनुयायी उदार वाले रास्ते पर चले और संघ के खिलाड़ियों ने कट्टर की राह थामी. एक पर अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण के आरोप लगे तो दूसरे पर बहुसंख्यकों को उकसाने के. एनसीपी और काँग्रेस की छवि जहां नरम हिन्दुत्व वाली है, वहीं शिवसेना की पहचान आक्रामक हिन्दुत्व वाली रही है. शिवसैनिकों के लिए विनम्र बनना भले ही बहुत मुश्किल हो, लेकिन सरकार चलानी है तो अपने तेवरों से समझौता करना ही होगा.
उद्धव का अयोध्या दौरा रद्द करना ये बताता है कि वो लचीलेपन के लिए राज़ी हैं. शिवसैनिकों को अब परप्रान्तीयों को आड़े हाथों लेने के अपने अन्दाज़ से भी परहेज़ करना होगा. गोडसे को देशभक्त बताने पर बीजेपी जैसी सख़्ती से अपनी सांसद प्रज्ञा ठाकुर के साथ पेश आयी है, उसे देखते हुए सावरकर को भारत-रत्न देने के अपने नज़रिये से शिवसेना को भी तौबा करना होगा. नाटक-फ़िल्म का हिंसक विरोध करने के पुराने रवैये से बचना होगा. क्रिकेट मैच से पहले पिच खोदने वाले आदतें छोड़नी होंगी. शिवसेना में यदि ऐसे बदलाव दिखे तभी महाविकास अघाड़ी की सरकार पाँच साल चल जाएगी.
प्रश्न संख्या दो: तोड़-फोड़ से बचाव का कवच
तीनों दलों को अपने-अपने घरों को दलबदलुओं की सेंधमारी से बचाना होगा. कांग्रेस-एनसीपी को कर्नाटक, गोवा, बिहार, अरूणाचल, मेघालय, मिज़ोरम, उत्तराखंड जैसे राज्यों से मिले सबक को गाँठ बाँधकर रखना होगा. बीजेपी के मुँह में नरभक्षी का ख़ून लगा हुआ है. वो तोड़-फोड़ करके महाविकास अघाड़ी की गाड़ी को पंचर करने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ने वाली, लिहाज़ा तीनों दलों को अपने असन्तुष्टों को साधने के लिए पुख़्ता कवच विकसित करना होगा. इस लिहाज़ से तीनों दलों को ही एक-दूसरे पर निगरानी रखते हुए उनकी मदद के लिए तत्पर रहना होगा. शिवसेना के लिए भी ये बेहतर होगा कि पवार परिवार की तर्ज़ पर वक़्त रहते राज ठाकरे से सुलह-सफ़ाई करके अपने परिवारिक क़िले को मज़बूत बना ले. वर्ना, परिवारिक घाव उसे बहुत भारी पड़ सकता है.
प्रश्न संख्या तीन: ताल-मेल की तकनीक
सरकार चलाने का असली मंत्र परस्पर ताल-मेल ही होगा. इसके कई रूप हैं. नीतियों के लिए तो ‘कॉमन मिनिमम प्रोग्राम’ बन गया, लेकिन जब तक ‘मुख्यमंत्री का फ़ैसला अन्तिम’ वाला नियम चलेगा तभी तक सरकार बग़ैर खटपट के चल पाएगी. मुख्यमंत्री को भी सहयोगियों को उनकी राजनीति के लिए पर्याप्त जगह छोड़नी होगी. जल्द ही ये ऐलान भी ज़रूरी है कि क्या शिवसेना, अब यूपीए का हिस्सा बन चुकी है? यदि हाँ, तो फिर भविष्य के चुनावों में उतरने के लिए महाविकास अघाड़ी का फ़ॉर्मूला क्या होगा? तीनों दलों के नेताओं का दावा भले ही ये हो कि सरकार के फ़ैसले आमसहमति से लिये जाएंगे, लेकिन रोज़मर्रा में यही असली अग्नि-परीक्षा होगी. अघाड़ी में उद्धव जैसे नौसिखिए को सीखना होगा कि वो अनुभवी मुख्यमंत्रियों पृथ्वीराज चाव्हाण, अशोक चाव्हाण, शरद पवार, सुशील कुमार शिन्दे जैसों को कैसे साध पाएँगे? अन्य नेताओं की महत्वाकांक्षों को काबू में रखना भी तलवार की धार पर चलने जैसा होगा.
प्रश्न संख्या चार: केन्द्र से सम्बन्ध
मौजूदा केन्द्र सरकार के पास अपार बहुमत है. उसे इसका अहंकार होना स्वाभाविक है. बीजेपी को विरोधी दलों की सरकारों को अस्थिर करके गिराने का चस्का लग चुका है. चुनाव में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी महाराष्ट्र बीजेपी विपक्ष में शान्ति से नहीं बैठने वाली. वो सरकार की नाक में दम करने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ने वाली. केन्द्र सरकार से उसे पूरी शह मिलती रहेगी. ऐसे में महाराष्ट्र और केन्द्र सरकार के सम्बन्धों का हमेशा तल्ख़ रहना तथा राजभवन में सियासी साज़िशों का होना स्वाभाविक है. उद्धव इस चुनौती से अच्छी तरह से वाक़िफ़ हैं. तभी तो उन्होंने ‘मुख्यमंत्री की कुर्सी को नुकीली कीलों से भरपूर’ कहा है. उन्हें अब केन्द्र में अपनी सरकार होने का लाभ नहीं मिलेगा. ‘केन्द्र से रिश्ते की तासीर’ अब बहुत कठिन चुनौती होगी.
प्रश्न संख्या पाँच: चुनावी वादे निभाना
हरेक सरकार अपने चुनावी वादों को ‘पहली प्राथमिकता’ भले ही बताती है, लेकिन व्यवहारिक राजनीति का तकाज़ा इसे ‘आख़िरी प्राथमिकता’ बना देता है. लिहाज़ा, जब तक महाविकास अघाड़ी उपरोक्त चारों प्रश्नों या चुनौतियों के सही-सही समाधान करने में सफल रहेगी, तभी तक इस पाँचवें मुद्दे यानी चुनावी वादों को निभाने की दिशा में आगे बढ़ने का रास्ता निकलता रहेगा. तीन दलों को मिलकर एक-दूसरे के साथ ताल-मेल बिठाकर उन चुनावी मुद्दों को अमली जामा पहनाने की कोशिश करनी होगी जिसे ‘कॉमन मिनिमम प्रोग्राम’ में जगह मिली है. तीनों दलों को बराबर से इस बात के लिए सतर्क रहना होगा कि उन पर भ्रष्टाचार के इतने गम्भीर आरोप नहीं लगें जिनका सामना करना मुश्किल हो जाए. तीनों को ये नहीं भूलना चाहिए कि सीबीआई, ईडी और आयकर विभाग, हर पल उनके शिकार की फ़िराक़ में क्यों नहीं रहेंगे?