पुराने जमाने में पीर-फ़क़ीर कहा करते थे कि दुनिया के किसी भी बादशाह की सियासत व दौलत ऐसी नामुराद शै है, जो आपको सिर्फ अंधा ही नहीं करती बल्कि आपकी अक्ल भी ले जाती है.इसलिए कि आपके हाथ में तो एक आना भी नहीं आना और वहां नोटों-जवाहरातों का अंबार लगा होगा, जिसे देखने की आपको इजाजत भी नहीं होगी. जमाना बदल गया,सारी बादशाहियत भी नेस्तनाबूद हो गई. देश में 75 बरस पहले लोकतंत्र भी आ गया लेकिन आज भी उन पीरों-फकीरों की बाणी को झूठा साबित करने की हिम्मत है क्या किसी में ? नहीं,.हो भी नही सकती. क्योंकि हमारे लोकतंत्र को अब पुराने रजवाड़ों को कब्जाने वाला तरीका ज्यादा पसंद आ रहा है,जहां न लड़ाई होगी,न चुनाव होंगे. फिर भी वहां बादशाहत अपनी ही होगी. बादशाहत कायम करने के लिए तो ये प्रयोग बहुत अच्छा है लेकिन लोकतंत्र की नींव को खोखला करने और आने वाली पीढ़ियों के लिए ये बेहद खतरनाक संदेश है.
महाराष्ट्र में ये सियासी युद्ध की नौबत आखिर क्यों आई और इसके लिए कौन जिम्मेदार है, ये तो बहुत जल्द ही हम सबके सामने आ जायेगा. लेकिन इस सियासी संकट में उन दो लोगों की कही बातों पर जरुर गौर करना चाहिए, जो अपनी पार्टी के संस्थापक होने के साथ ही अगले कई बरसों तक उसके मार्गदर्शक भी रहे. पहली बात उन पर लागू होती है,जो अभी तक राज्य के मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाल रहे उद्धव ठाकरे हैं.उनके दिवंगत पिता और शिव सेना के संस्थापक बाला साहेब ठाकरे से साल 2004 में दिए एक टीवी चैनल के इंटरव्यू में सवाल पूछा गया था कि "आप हिंदुत्व को लेकर इतना बवाल आखिर क्यों मचाते हो? इसका जवाब देते हुए बाल ठाकरे ने कहा था कि " मैं सौ टका खरा हिन्दू हूं..I am Mad,Mad Hindu.यानी मैं पागलपन की पराकाष्ठा तक पहुंचने वाला हिंदू हूँ." इसलिए एकनाथ शिंदे और अन्य विधायकों की बग़ावत के बाद अब राज्य के लोगों को भी कुछ हद तक तो ये समझ आ ही गया है कि मराठी मानुष की अस्मिता के लिए जीने और उसी शिव सेना के लिए सब कुछ न्योछावर करने वालों की खातिर बाला साहेब ठाकरे के बेटे ने ये गठबंधन आखिर क्यों किया था.
बुधवार को महाराष्ट्र की जनता के नाम दिए संदेश में उद्धव ठाकरे ने भावनात्मक भाषण देकर अपनी फेस सेविंग करने की जो कोशिश की है,वो 30 साल पहले उनके पिता बाल ठाकरे के लिखे उस लेख की याद दिला देती हैं,जब सिर्फ एक नेता माधव देशमुख की आलोचना करने के बाद बाल ठाकरे ने ये एलान कर दिया था कि "अब इस शिव सेना पर ठाकरे परिवार का कोई नियंत्रण नहीं है. मैं पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे रहा हूँ. अब आप जैसे चाहें, इस सेना को चलायें." साल 1992 में शिव सेना के मुखपत्र "सामना" में छपे उस लेख को पढ़कर तमाम शिव सैनिक इतने बौरा गए थे कि अगले ही दिन उनके आवास "मातोश्री" के बाहर हजारों समर्थको की भीड़ जुट गई थी कि किसी एक के कहने पर आखिर वे ऐसा फैसला क्यों ले रहे हैं? तब कुछ शिव सैनिकों ने आत्मदाह करने की कोशिश भी की थी ,जिसे पुलिस की मुस्तेदी ने संभाल लिया.
कुछ उसी अंदाज व उसी तेवर के साथ उद्धव ठाकरे ने बुधवार की शाम दिए संदेश में ये जताने की कोशिश करी कि अगर पार्टी का एक भी विधायक उनके खिलाफ है और वे उनके सामने आकर बोल दे,तो वे सीएम पद से इस्तीफा देने को तैयार हैं.लेकिन शायद वे भूल गए कि सत्ता पाने के लिए बाल ठाकरे ने न कभी कोई समझौता किया और न ही अपनी हिंदुत्ववादी विचारधारा से भटकने की कभी कोई गलती ही की.उद्धव ने अपने संदेश में ये भी कहा कि उन्हें सत्ता का कोई लालच नहीं है और ऐसे पद आते और जाते रहेंगे. लेकिन साल 2019 में एनसीपी और कांग्रेस के साथ गठबंधन करके मुख्यमंत्री बनने वाले उद्धव शायद तब ये भूल गए थे कि उनके पिता ने महाराष्ट्र से लेकर केंद्र सरकार की सत्ता में कभी कोई पद नहीं लिया,बल्कि वे अपनी आखिरी सांस तक एक "किंग मेकर" की भूमिका ही निभाते रहे. अगर उद्धव भी अपने पिता के नक्शे-कदम पर चले होते, तो आज शिव सेना के इतनी बुरी तरह से टूटने की नौबत ही न आती.ढाई साल के बाद सीएम के सरकारी आवास "वर्षा" को खाली करके बुधवार की रात वे अपने जिस पैतृक घर "मातोश्री" पहुंचे हैं,वो महाराष्ट्र में अपने मन माफ़िक सत्ता लाने-चलाने और गिराने का दशकों तक रिमोट कंट्रोल रहा है.लिहाजा,राजनीति के जानकार इसे उद्धव की सबसे बड़ी सियासी गलती मानते हैं कि वे बाल ठाकरे की तरह रिमोट कंट्रोल को अपने हाथ में रखने की बजाय खुद ही एक खिलौना बनकर रह गए थे,वरना इतनी बड़ी बग़ावत के बारे में कभी कोई सोच भी नहीं सकता था.
खैर,ये तो अब साफ हो चुका है कि शिव सेना से निकलकर बग़ावत का परचम थामे एकनाथ शिंदे के साथ गए 37 या उससे ज़्यादा विधायकों ने राज्य में बीजेपी की सरकार बनाने का रास्ता साफ कर दिया है. हालांकि मुंबई के मरीन ड्राइव के किनारे बैठकर समंदर में आ रही लहरों को नापकर खुश हो रहे बीजेपी के तमाम नेता ये दावा कर रहे हैं कि इसमें उनका कोई हाथ नही है और न ही शिव सेना के किसी विधायक से उनका संपर्क हुआ है. लेकिन सियासी संकट की इस नाजुक घड़ी में बीजेपी के नेताओं को अपने सबसे बड़े मार्गदर्शक रहे दिवंगत अटल बिहारी वाजपेयी की इस कविता के जरिये सच बोलने-बताने की हिम्मत जुटानी चाहिए----
"कर्तव्य के पुनीत पथ को
हमने स्वेद से सींचा है,
कभी-कभी अपने अश्रु और—
प्राणों का अर्ध्य भी दिया है.
किंतु, अपनी ध्येय-यात्रा में—
हम कभी रुके नहीं हैं.
किसी चुनौती के सम्मुख
कभी झुके नहीं हैं.
आज,
जब कि राष्ट्र-जीवन की
समस्त निधियाँ,
दाँव पर लगी हैं,
और,
एक घनीभूत अंधेरा—
हमारे जीवन के
सारे आलोक को
निगल लेना चाहता है;
हमें ध्येय के लिए
जीने, जूझने और
आवश्यकता पड़ने पर—
मरने के संकल्प को दोहराना है.
आग्नेय परीक्षा की
इस घड़ी में—
आइए, अर्जुन की तरह
उद्घोष करें :
‘‘न दैन्यं न पलायनम्.’’
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