महाराष्ट्र: सरकारों का रिमोट कंट्रोल रखने वाले बाल ठाकरे के बेटे आखिर क्यों हो गए इतना बेबस?
एक जमाना वो भी था, जब बाला साहेब ठाकरे हिंदी फिल्मों के संजीदा कलाकार यूसुफ खान यानी दिलीप कुमार को अपने बंगले "मातोश्री" बुलाकर उनकी पसंदीदा बिरयानी बनवाने और खिलाने का उन्हें बहुत शौक हुआ करता था. लेकिन दूसरी तरफ वे तब सियासी तौर पर "आमची मुंबई" का नारा देकर मराठाओं को एकजुट करने में भी लगे हुए थे, ताकि महाराष्ट्र में शिवसेना की जमीन को इतना मज़बूत कर दिया जाये कि आने वाले कई सालों तक इसे कोई उखाड़ न सके. लेकिन बाला साहेब ठाकरे ने शायद कभी ये सोचा भी नहीं होगा कि उनके दुनिया से विदा हो जाने के कुछ साल बाद ही उनकी अगली दो पीढ़ी न सिर्फ सक्रिय राजनीति में कूदेंगी बल्कि उनका एक गलत फैसला सबसे ताकतवर शिवसेना को ऐसी बुरी हालत में ले आएगा.
सत्ता से दूर रहकर भी ताकतवर थे ठाकरे
गौर करने वाली बात ये है कि अंग्रेजी व मराठी अखबारों में कार्टून बनाने वाले बाल ठाकरे ने 1966 में जब शिवसेना की स्थापना की थी, तो उन्होंने महाराष्ट्र के लोगों को एक बड़ा भरोसा दिलाया था कि ये सेना सिर्फ आपके हितों के लिए ही बनी है, जो मुम्बई से लेकर दिल्ली तक हर लड़ाई लड़ेगी. तब उन्होंने एक बड़ा वादा ये भी किया था कि वे ताउम्र कभी भी सक्रिय राजनीति में नहीं कूदेंगे. इस वादे को उन्होंने अपनी आख़री सांस तक निभाया भी, क्योंकि वे जानते थे कि राज्य का मुख्यमंत्री या फिर केंद्र सरकार में मंत्री बनने से भी ज्यादा ताकतवर है कि ऐसी सरकारों को चलाने का रिमोट कंट्रोल ही अपने हाथ में क्यों न रखा जाए. ऐसा हुआ भी... केंद्र में भले ही कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार रही हो या फिर बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार रही हो, उनकी किसी भी बात को ठुकराने से पहले दस बार सोचना पड़ता था.
लेकिन कौन जानता था कि उनके बेटे उद्धव ठाकरे अपने पिता की तरह रिमोट कंट्रोल को अपने हाथ में रखने की बजाय सत्ता पाने वाली सियासत की ऐसी कठपुतली बन जाएंगे कि घर से ही ऐसी बग़ावत होगी, जो उन्हें अर्श से फर्श पर लाने में कुछ मिनट ही लगायेगी. अब इसे अहंकार कहो या फिर राजनीतिक अनुभवहीनता लेकिन सच तो ये है कि वे कांग्रेस व एनसीपी के साथ गठबंधन करने से पहले अपने उन विधायकों को विश्वास में ही नहीं ले पाए थे, जो बाल ठाकरे की एक आवाज़ पर अपना सब कुछ न्योछावर करने के लिए तैयार रहते थे. उसमें तब भी मराठी मानुष और हिंदुत्व का मुद्दा सबसे ज्यादा अहम हुआ करता था.
लेकिन उद्धव ठाकरे ने महाराष्ट्र की सत्ता पाने के लिए ऐसा बेमेल गठजोड़ करने से पहले एक बार भी अपने पिता के उस सबसे चर्चित इंटरव्यू को रिप्ले करके देखा-सुना होता, तो शायद वे इतनी बडी गलती करने से पहले सौ बार सोचते और उनसे सलाह लेते, जो उनके पिता के कई सालों तक उनकी आंख, कान व नाक बनने की भूमिका निभा रहे थे.
अपनी मृत्यु से कुछ साल पहले बाल ठाकरे ने एक न्यूज चैनल को दिये इंटरव्यू में कहा था कि, "मैं सिर्फ हिंदू ही नहीं हूं लेकिन एक पागलपन की पराकाष्ठा तक पहुंचने वाला हिंदू हूं, जो अपना हिंदुत्व मरते दम तक नहीं छोड़ सकता." तब उनसे एक सवाल ये भी पूछा गया था कि आप तो सक्रिय राजनीति में नहीं आए लेकिन आपके जाने के बाद क्या उद्धव आएंगे? इसके जवाब में उन्होंने कहा था कि,"नहीं जानता कि मेरे बाद क्या होगा लेकिन इतना विश्वास है कि "मातोश्री" का कोई भी सदस्य हिंदुत्व की पताका लहराने में कभी कमजोर नहीं होगा."
हिंदुत्व से समझौता पड़ा भारी?
उद्धव ने हिंदुत्व से समझौता करके अपनी विरासत की वही सबसे बड़ी गलती कर दी, जिसके चलते न सिर्फ उन्हें सत्ता से बेदखल होना पड़ा, बल्कि अब तो उन्हें राज्य की विधान परिषद में विपक्ष का नेता अपनी पार्टी के गुट से बनवाने के लिए पापड़ बेलने पड़ रहे हैं. जानकार बताते हैं कि नौबत तक तो यहां तक आ गई है कि शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस के गठबंधन वाली महा विकास अघाड़ी यानी एमवीएम अगर टूट जाए, तो किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए. अगर ऐसा होता है, तो इसे उद्धव ठाकरे के राजनीतिक भविष्य को हाशिये पर लाने का एक बड़ा संकेत ही समझा जाएगा.
दरअसल,राजनीति में ऐसा पहली बार देखने को मिल रहा है कि गठबंधन में शामिल तीनों ही पार्टियों ने विधान परिषद में नेता, प्रतिपक्ष का पद हथियाने के लिए अपना दावा ठोंक दिया है. चूंकि परिषद में शिव सेना के 12 सदस्य हैं, इसलिये उसका दावा करना तो समझ मे आता है, लेकिन कांग्रेस और एनसीपी भी अपने 10-10 सदस्य होने के नाते मैदान में कूद गई हैं कि ये पद उन्हें मिलना चाहिए. सियासी गलियारों में चर्चा है कि उद्धव ठाकरे अपने करीबी अनिल परब को नेता विपक्ष बनाने की तैयारी में हैं. जबकि एनसीपी एकनाथ खडसे को विधान परिषद में नेता विपक्ष बनाना चाहती है. हालांकि कांग्रेस की लिस्ट में तीन नेताओं का नाम हैं. लेक़िन गौर करने वाली बात ये भी है कि पिछला चुनाव कांग्रेस और एनसीपी मिलकर लड़े थे. इसलिए वे दोनों ही एक संयुक्त पत्र विधान परिषद के सभापति को सौंपकर ये दावा कर सकते हैं कि इस पद पर उनका ही अधिकार है.
बता दें कि 78 सदस्यों वाली महाराष्ट्र विधान परिषद में बीजेपी के 24, शिवसेना के 12 और कांग्रेस व एनसीपी के 10-10 सदस्य है. लोक भारती, पीजेंट्स एंड वर्कर्स पार्टी ऑफ इंडिया और राष्ट्रीय समाज पक्ष का भी एक-एक सदस्य है. हालांकि विधान परिषद में चार निर्दलीय सदस्य भी हैं, जबकि 15 सीटें खाली हैं. इसलिए देखना दिलचस्प होगा कि ये पद महाविकास अघाड़ी को आगे के लिए जिंदा रखता है या फिर यहीं पर उसका द एन्ड हो जायेगा?
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)