बरसों पहले किसी शायर ने लिखा था- "वो मोहब्बत ही क्या, जहां आपसे कोई महबूबा रूठे ही ना, और वो सियासत ही क्या जहां आप किसी से अदावत ही न करें." पिछले ढाई साल से बीजेपी के खिलाफ आग उगल रहे शिवसेना के सबसे मुखर नेता व राज्यसभा सदस्य संजय राउत को रविवार की आधी रात को प्रवर्त्तन निदेशालय यानी ED ने गिरफ्तार करके उनकी आवाज़ को चुप करा दिया है. उन्हें शिवसेना के मुखिया उद्धव ठाकरे का सबसे करीबी माना जाता है और कहते हैं कि पार्टी में उनकी हैसियत नंबर दो की है. इसलिये सवाल उठता है कि इस कार्रवाई के बाद महाराष्ट्र् की राजनीति में उद्धव वाली शिवसेना का वजूद कम हो जाएगा या फिर वो दोगुनी ताकत से उभरेगी? 


जाहिर है कि इस मुद्दे पर आज सोमवार को संसद भी गरमायेगी और विपक्ष दोनों सदनों में मोदी सरकार पर ये आरोप लगाते हुए उसे घेरेगा कि वह अपनी जांच एजेंसियों का इस्तेमाल विपक्ष को डराने-धमकाने और उसकी आवाज़ को चुप कराने के लिए कर रही है. संजय राउत पर मनी लॉन्ड्रिंग का आरोप है और बताया जा रहा है कि ये मामला मुंबई के गोरेगांव इलाके में पात्रा चॉल के भवन निर्माण से जुड़ा 1034 करोड़ रुपये का घोटाला है जिसमें उन्होंने अपने करीबी बिल्डर प्रवीण राउत को तत्कालीन उद्धव ठाकरे सरकार से गैर कानूनी रूप से मदद दिलवाई. इस मामले में संजय राउत की पत्नी को लाखों रुपये बगैर ब्याज के कर्ज के नाम पर दिए जाने के आरोप भी हैं.


हम नहीं जानते कि इसका सच क्या है और इसका फैसला तो अब अदालत ही करेगी लेकिन एक सवाल उठता है कि संजय राउत ने खुद को ईडी की हिरासत में लिए जाने से पहले एक बड़ी बात कही है. उन्होंने ईडी की कार्रवाई शुरू होने के कुछ ही देर बाद ट्वीट किया, "मैं दिवंगत बालासाहेब ठाकरे की सौगंध खाता हूं कि मेरा किसी घोटाले से कोई संबंध नहीं है. उन्होंने लिखा, मैं मर जाऊंगा, लेकिन शिवसेना को नहीं छोडूंगा." लेकिन यहां ये बताना भी जरूरी है कि इसी साल अप्रैल में, ईडी (ED) ने इस मामले की जांच के तहत संजय राउत की पत्नी वर्षा राउत और उनके दो सहयोगियों की 11.15 करोड़ रुपये से अधिक की संपत्ति को अस्थायी रूप से कुर्क किया था. सोचने वाली बात ये भी है कि अगर जांच एजेंसी के पास घोटाले के कोई दस्तावेजी सबूत न होते, तो क्या वह किसी सांसद या उसके परिवार के ख़िलाफ़ ऐसी कार्रवाई करने की जोखिम उठा सकती थी?


हालांकि इस तथ्य से भी कोई इनकार नहीं कर सकता कि महाराष्ट्र से लेकर दिल्ली तक की सियासत में संजय राउत को राजनीति का एक मंझा हुआ खिलाड़ी माना जाता है जो ये जानते हैं कि संसद के भीतर और बाहर सरकार पर हमला करने के लिए किन तीखे तेवरों का इस्तेमाल करना है. शिवसेना के संस्थापक बाला साहेब ठाकरे के जीवित रहते हुए ही जब संजय निरुपम शिवसेना छोड़कर कांग्रेस में चले गए थे तब बाल ठाकरे ने ही संजय राउत को पार्टी के मुख पत्र "सामना" का संपादक भी नियुक्त किया था. ये तो सब जानते हैं कि उनकी मेहरबानी के बगैर राउत राज्यसभा में नहीं आ सकते थे. लेकिन उनके दुनिया से विदा हो जाने के बाद राउत ने उद्धव ठाकरे पर अपना ऐसा सियासी जादू चलाया कि वे उनकी किसी बात पर इनकार नहीं कर पाते थे. दरअसल, तब तक उद्धव ठाकरे राजनीति में नौसिखिया थे या यूं कहें कि वे राजनीति में आना ही नहीं चाहते थे.


अक्टूबर 2019 में हुए महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों के बाद आये नतीजों ने शिवसेना-बीजेपी के ढाई दशक पुराने गठबंधन को तोड़कर रख दिया. बीजेपी, शिवसेना को पछाड़ते हुए सबसे बड़ी पार्टी बन गई लेकिन पेंच ये फंस गया कि पहले ढाई साल मुख्यमंत्री किसका होगा. जाहिर है कि पहला दावा और हक तो बीजेपी का ही बनता था लेकिन उद्धव नहीं माने क्योंकि उन्हें भड़काने वाले उनके करीबी ही थे और उनमें एक बड़ा नाम संजय राउत का बताया जाता है. महाराष्ट्र की राजनीति के जानकार बताते हैं कि सियासी शतरंज की गोटियां बैठाने में माहिर राउत ने जहां एक तरफ बीजेपी के लिए पहले उद्धव को सीएम बनने की जिद पर अड़ा रखा था तो वहीं उन्होंने एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार और कांग्रेस के चाणक्य माने जाने वाले अहमद पटेल से बात करके ये भी तय कर लिया था कि शिवसेना, बीजेपी से नाता तोड़ने के लिए तैयार है और हम तीनों पार्टियां मिलकर अब राज्य में महा विकास अघाड़ी सरकार बना सकते हैं.


इन तीनों का बेमेल गठबंधन भी हो गया. बेमेल इसलिये कि कहां तो घोर हिंदुत्व का झंडाबरदार रही शिवसेना और कहां कांग्रेस व एनसीपी जैसी सेक्युलर पार्टियां जिनके कहने पर उद्धव ठाकरे आखरी वक़्त तक चलते रहे. खैर तब बारी आई कि शिवसेना की तरफ से मुख्यमंत्री कौन होगा तो बताते हैं कि उद्धव ठाकरे ने सबसे पहला नाम एकनाथ शिन्दे का लिया क्योंकि वे बाल ठाकरे के सबसे करीबी थे. लेकिन शरद पवार ने सलाह दी कि मुख्यमंत्री तुम खुद बनो, ताकि सरकार की कमान अपने हाथों में रहे. उद्धव ने राजनीतिक व प्रशासनिक अनुभव की कमी का हवाला देते हुए पहले तो साफ इंकार कर दिया लेकिन फिर उन्हें किसी तरह से मनाया गया. जानकार बताते हैं कि ये सलाह दिलवाने और उद्धव को राजी करने के पीछे भी तब संजय राउत का ही दिमाग चल रहा था. इसलिये कि वे जानते थे कि उद्धव ठाकरे के सीएम बनते ही सरकार में उनका एकतरफा दबदबा कायम हो जाएगा और ऐसा हुआ भी.


लेकिन राउत की मनमानी और अपने ही मंत्रियों के साथ अपमानजनक बर्ताव ही उद्धव ठाकरे की अगुवाई वाली सरकार के पतन का सबसे बड़ा कारण बना. मुख्यमंत्री एकनाथ शिन्दे तो कई बार दोहरा चुके हैं कि उद्धव ठाकरे ने संजय राउत को मनमानी करने की इतनी छूट अगर न दी हुई होती तो न शिवसेना टूटती और न ही ये पतन देखने को मिलता. लेकिन कहते हैं कि जब विनाश काल आता है तो इंसान की बुद्धि हमेशा उल्टी चलने लगती है. शायद वही उद्धव-राउत की जोड़ी के साथ भी हुआ है. रविवार की सुबह जब ईडी की टीम भारी-भरकम सुरक्षा बलों के साथ मुंबई स्थित संजय राउत के घर छापेमारी करने पहुंची तो उन्हें इसका आभास हो चुका था कि वे उनकी 'आरती' उतारने नहीं बल्कि गिरफ्तार करने ही आये हैं. इसलिये संजय राउत ने बाला साहब ठाकरे की सौंगन्ध खाकर शिव सैनिकों को सड़कों पर उतरने के लिए मजबूर करने का जो "इमोशनल कार्ड" खेला है, देखते हैं कि उसका कितना असर होता है, जो शिवसेना का सियासी भविष्य भी तय करेगा?


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)