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संसद की एथिक्स कमिटी कर रही है अमर्यादित व्यवहार, महुआ मोइत्रा की निजता की रक्षा है उसकी जिम्मेदारी

आम तौर पर संसद की जो समितियां हैं, उनसे यह अपेक्षा होती है कि वे 'स्टेट' की तरह व्यवहार नहीं करे, लोगों के प्रतिनिधि की तरह व्यवहार करेगी. जो रवैया औऱ जिस तरह की जानकारी सामने आयी है, उससे यह साफ पता चलता है कि यह संसदीय समिति 'स्टेट' की तरह व्यवहार कर रही है और वो भी अपने एक साथी सदस्य के प्रति! संसदीय समिति अगर बिल्कुल वैसे ही व्यवहार करती है, तो वह खुद को अवैध बनाती है, नाजायज बनाती है. जो एक डेमोक्रेसी में शक्ति का बंटवारा है, उसमें एक्ज्क्यूटिव यानी कार्यपालिका पर चेक्स एंड बैलेंस करने के लिए संसद काम करती है, संसदीय समिति काम करती है. यहां तो यह दिख रहा है कि संसदीय समिति खुद ही उसी प्रकार से हूबहू बर्ताव कर रही है. अगर विधायिका वैसे ही बर्ताव करे, जैसे कार्यपालिका करती है, तो फिर नैतिक दृष्टि और संवैधानिक दृष्टि से उस पर प्रश्नचिह्न लग जाता है.

यदि एक माननीय संसद सदस्या समिति की प्रक्रिया पर, कार्यवाही पर टिप्पणी करती हैं और इस तरह का आक्रोश व्यक्त करती हैं, तो यह उस लम्हे को चिह्नित करता है, जो विधायिका के कार्यपालिकाकरण का होता है. निजता का अधिकार तो मौलिक अधिकार है और उस अधिकार पर कार्यपालिका ने जो हमला किया था, वह सबको पता है। सत्तारूढ़ दल के अधिकांश सांसदों का मानना था, क्योंकि उन्हीं के आधार पर कार्यपालिका सुप्रीम कोर्ट में यह पोजीशन ले रही थी कि 'निजता' भारतीय नागरिकों का मौलिक अधिकार नहीं है. ये सत्तारूढ़ दल और कार्यपालिका जो ये पोजीशन 2009 से 2017 तक ले रही थी, आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में बताया कि सरकार सरासर गलत है और वह जीवन जीने के अधिकार का हिस्सा है. नौ जजों की संवैधानिक खंडपीठ ने यह सर्वसम्मति से स्पष्ट किया था और संविधान यह अधिकार देता नहीं है, यह प्राकृतिक अधिकार है, जिसको संविधान बस रेकॉग्नाइज करता है, अनुमति देता है. 

निजता का अधिकार मानवीय गरिमा से जुड़ा

ये पतन का क्षण है. कार्यपालिका की नैतिकता और सत्तारूढ़ दल के सांसदों के संदर्भ में यह पतन का क्षण इसलिए है कि सुप्रीम कोर्ट को यह बताना पड़ता है कि एक प्राकृतिक अधिकार जो निजता का अधिकार है, उसे वैसे ही लागू किया जाए. यह अधिकार मानवीय गरिमा से जुड़ा है. गरिमा पर यह हमला है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के तुरंत बाद सुधार हो गया हो, ऐसा भी नहीं है लेकिन जब सत्तारूढ़ दल से जुड़े लोगों की निजता का हनन होता है, तो वे सुप्रीम कोर्ट के उसी फैसले की दुहाई देते हैं. इस मामले में कार्यपालिका और कार्यपालिका का समर्थन करनेवाली संसदीय समिति तिल का ताड़ बना रहे हैं. यह इसलिए कहना पड़ता है क्योंकि संसद की एक और समिति है- पार्लियामेंट्री स्टैंडिग कमिटी ऑन सबॉर्निडेट लेजिस्लेशन.

उस समिति की रिपोर्ट संसद की वेबसाइट पर उपलब्ध है. उस रिपोर्ट पर लिखा हुआ है, कॉन्फिडेंशियल और उसमें यह लिखा हुआ है कि संसद ने जो कानून बनाए हैं, उन कानूनों के विपरीत जाकर नियमावलियां बनी हैं. संसद का इससे बड़ा अपमान और क्या हो सकता है. अब सवाल यह उठता है कि प्रश्न पूछना बड़ी बात है या संसद के खिलाफ जाकर कार्यपालिका द्वारा नियमावली बनाना. ये पूरी लिस्ट है. संसद की मानहानि कार्यपालिका इससे अधिक क्या कर सकती है? एक दूसरी समिति है- इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी पर स्टैंडिंग कमिटी. उन्होंने 2014 की अपनी रिपोर्ट में खुलासा किया कि भारत के सभी मंत्रियों के, गणमान्यों के, सार्वजनिक संस्थानों के हेड वगैरह के मेल-फोन की निगरानी अमेरिका की सुरक्षा एजेंसियां कर रही हैं औऱ इसका खुलासा एडवर्ड स्नोडन ने किया. 

यह प्रश्न जब जे सत्यनारायण से यह सवाल पूछा गया, जो उस समय मुख्य सचिव थे संबंधित विभाग के, कि क्या उन्होंने यह सवाल अमेरिका से पूछा कि भारत के प्रधानमंत्री, सभी जजों, आर्मी के बड़े अधिकारियों आदि के फोन और मेल वह क्यों देख रहा है, तो सचिव महोदय ने संसदीय समिति को जवाब दिया कि उन्होंने अमेरिका के सर्वोच्च स्तर पर पूछताछ की है. तो, इसका मतलब तो अमेरिका के राष्ट्रपति से हुआ. जवाब यह था कि अमेरिकी संस्थाओं ने, अमेरिकी राष्ट्रपति ने जवाब दिया कि केवल मेटा डाटा कलेक्ट कर रहे हैं, उसके अलावा कुछ और अगर वह जुगाड़ेंगे तो उसको बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. मतलब कि मेटा डेटा कलेक्ट करना जायज है?

यह तो संसदीय समिति की क्षमता पर ही सवाल उठाता है, उनकी बौद्धिक कैपिबिलिटी पर प्रश्न उठाता है. मेटा डाटा का जो जिक्र आया है, वह नौ जजों की खंडपीठ के फैसले में एक बार बस आया है, आधार कार्ड वाले फैसले में दर्जनों बार और मेटा डेटा अभी तक पारिभाषित भी नहीं है और भारत के प्रधानमंत्री तक का डेटा- आज के और भविष्य के- अमेरिका, फ्रांस और यूके की कंपनियों के पास है. यह सूचना के अधिकार के तहत उपलब्ध जानकारी है. इससे अधिक खतरनाक बात क्या होगी? 6 सितंबर 2023 को दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला आया है औऱ उसने सूचना आयोग को कहा है कि वह सारी सूचना इस संदर्भ में उपलब्ध कराए. 

क्लाउड पर है मौजूद सारा डेटा

सभी भारतीयों का डेटा ऑनलाइन मौजूद है और वह क्लाउड पर है. क्लाउड का मतलब क्या होता है? क्लाउड का मतलब होता है, दूसरे का कंप्यूटर और वह किसी और का कंप्यूटर मतलब अमेरिका का कंप्यूटर होता है. भारत सरकार को क्लाउड पर पोजीशन लेनी चाहिए. चीन ने, रूस ने, यूरोप ने इस पर पोजीशन लेकर अपने डेटा को प्रोटेक्ट किया है, लेकिन भारत सरकार 2010 से सुप्रीम कोर्ट में एफिडेविट डालकर कह रही है कि निजता का कानून ला रहे हैं, लेकिन अभी तक वह फाइनल नहीं हुआ है. जो एक्ट बना है, उसके रूल्स तक तय नहीं हुए हैं.

सरकार को इन पर काम करना चाहिए, न कि किसी संसद-सदस्य को जबरन परेशान करना चाहिए. यह क्षरण का काल है और यह जो एथिक्स-कमिटी है, उसने पहले दिन से ही महुआ मोइत्रा की जांच-पड़ताल के संदर्भ में गड़बड़ी शुरू कर दी. उन्होंने अखबारों और मीडिया में बयान देना शुरू कर दिया. हम एक ऐसे क्षण में हैं, जब लगातार भारत के संविधान का हनन हो रहा है और वह जारी है. भारत की लोकसभा में डिप्टी-स्पीकर का चयन ही नहीं हुआ. वह स्पीकर का डिप्टी नहीं होता है, वह एक अलग संवैधानिक सत्ता होता है. सत्तारूढ़ दल ने लगातार उसका हनन किया है तो उनसे संसदीय गरिमा या भाषाई गरिमा की अपेक्षा करना ही बेमानी है. 

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ़ लेखक ही ज़िम्मेदार हैं.]

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