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(Source: ECI/ABP News/ABP Majha)
भाजपा को लाभ पहुंचाने और अपनी महत्वाकांक्षा के लिए विपक्षी एकता को खंडित कर रहीं ममता बनर्जी
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी या अखिलेश यादव की मुलाकात हो या ममता बनर्जी ओडिशा में जाकर बीजू जनता दल के नवीन पटनायक से मुलाकात करें. या वो फिर दिल्ली में जाकर वहां की क्षेत्रीय दलों से मुलाकात करेंगी, ये सब दरअसल पुराना खेल-तमाशा है. देखिए, इसमें दो तीन चीजें हैं. इन लोगों की जो महत्वाकांक्षा अभी खत्म नहीं हुई है. इन लोगों की एक महत्वाकांक्षा ये थी और बनाया भी है कि ममता बनर्जी प्रधानमंत्री होंगी. जबकि पश्चिम बंगाल में कुल लोकसभा की सीटों की संख्या 42 है और ये सभी सीटों पर जीत हासिल नहीं कर सकती हैं. ये बात है कि राहुल गांधी को नहीं स्वीकारना या राहुल के नेतृत्व में सभी विपक्षी दल एक न हों उसके लिए ममता बनर्जी की जो सक्रियता है, उसकी मुख्य वजह जो है वो ये कि ये जितने भी क्षेत्रीय दल हैं या राष्ट्रीय दल हैं, इनकी भूमिका मुख्य रूप से अपने ही राज्यों में है.
तृणमूल कांग्रेस का केवल पश्चिम बंगाल में ही सर्वाधिक प्रभाव है. ये बात भी ठीक है कि कुछ सीटें यहां-वहां विधानसभा में मिल गईं. इसी तरह समाजवादी पार्टी का प्रभाव उत्तर प्रदेश में ही है और ऐसे ही बीजू जनता दल वो ओडिशा में ही है. इस तरह से अगर आप देखें तो क्षेत्रीय दल जो हैं वो अपने राज्यों में सर्वाधिक प्रभावशाली हैं. ओडिशा में कोई सीट तृणमूल कांग्रेस को नहीं मिल सकती है. उत्तर प्रदेश में नहीं मिल सकती है. इसी तरह से बंगाल में भी सपा और बीजू जनता दल को सीटें नहीं मिल सकती हैं.
RSS-BJP और नरेंद्र मोदी का विरोधी कौन?
जब आप पीछे जाकर देखेंगे तो चीजें और स्पष्ट हो जाएंगी. दरअसल, 2014 का लोकसभा चुनाव जीतकर जिस वक्त नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने उस समय तृणमूल कांग्रेस को पश्चिम बंगाल में 34 सीट आई थी. भाजपा को 2 सीट, कांग्रेस को 4 सीटें और भाकपा को 2 सीट हासिल हुई थी. लेकिन 2019 में बंगाल में भाजपा की सीट बढ़कर 18 हो गई, कांग्रेस को दो और तृणमूल कांग्रेस को 22 सीटें मिली. यानी कांग्रेस हर लोकसभा चुनाव में दो या चार ही सही सीट जीतती गई. पिछले कुछ दिन पहले बंगाल में एक सीट पर उप-चुनाव हुआ, इसमें तृणमूल कांग्रेस के प्रत्याशी को हराकर कांग्रेस प्रत्याशी की जीत हुई. अब ये एक्टिव हो गए हैं क्योंकि राहुल गांधी के नेतृत्व में व्हिसल ब्लोअर शुरू हो गया है. लेकिन देखना ये है कि ये लोग चाहते क्या हैं? मैं अभी अपना एक कॉलम लिख रहा हूं जिसका शीर्षक है कि 'आरएसएस भाजपा और नरेंद्र मोदी का विरोधी कौन है'? वास्तविक अर्थ में कौन सा क्षेत्रीय दल विरोधी है.
ममता बनर्जी तो अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में रहीं हैं, फिर वो कांग्रेस से टूट कर तृणमूल कांग्रेस बनाया था...तो इसमें उनकी अपनी निजी महत्वाकांक्षा है. आप देखिए कि भारत के किसी भी राजनीतिक दल ने या किसी भी नेता ने हिंडनबर्ग वाले मामले पर या अडानी वाले मामले पर संसद के बाहर और संसद के अंदर कितने सवाल उठाए. टीएमसी की जो एक सांसद हैं मोईत्रा, वो पहली बार ही सांसद बनी हैं और उन्होंने जो लोकसभा में अपना पहला भाषण दिया. इसमें उन्होंने भारत में फासीवाद को लेकर कितने चिन्ह हैं, वो बताया था. लेकिन उन्हें चुप करा दिया गया है. मुझे लगता है कि अगर यही स्थिति तो रही तो वो कांग्रेस चली जाएगी. मुझे ये बताये की मोदी-अडानी का मामला तो ममता बनर्जी ने कभी नहीं उठाया. यहां प्रश्न नीयत का है, विचारधारा के अंतर का प्रश्न है. राहुल गांधी हिंदुत्व की राजनीति या भाजपा या आरएसएस की जो विभाजनकारी नीति है वो उसके विरोधी हैं.
तीसरा मोर्चा बना लेंगे तो फायदा किसका होगा
अभी संसद की जो स्थिति है उसमें भारत के 36 दलों के सांसद हैं, जिसे आप विरोधी कहते हैं या जो गठबंधन बनाने वाली बात है. अगर इसके भी इतिहास को आप देखें खासकर के 1989-90 में तो सभी असफल होते गए. अभी जो भी क्षेत्रीय दल हैं उनकी एक ही मंशा है कि हम अपने राज्य विशेष में बने रहें और उसका हम फायदा लेते रहें. ये सब जो कर रहें उसका कोई मतलब ही नहीं है क्योंकि इनका इतिहास हमारे पास है. कल होकर ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसीआर एक साथ मिलकर तीसरा मोर्चा बना लेंगे तो सवाल ये है कि इससे फायदा किसका होगा? मेरा कहना ये है कि ये तीसरा मोर्चा या संयुक्त मोर्चा या राष्ट्रीय मोर्चा बनता है कांग्रेस और उसके साथ जो दल हैं उसके विरोध में और भाजपा के विरोध में भी तो इससे फायदा किसको पहुंचेगा.
दबाव की राजनीति भी हो सकती है
अगर त्रिकोणीय संघर्ष होता है तो फायदा किसको होगा, इसका पूरा लाभ तो भाजपा को जाएगा. इसका एक पक्ष ये भी है कि इन सबकी फाइलें केंद्र में होंगी तो कल खूल न जाए तो वो चाहे सपा हो या बंगाल में ममता बनर्जी यहां तो फाइलें खुल सकती हैं. ओडिशा में तो फाइल नहीं खुलेगी. यानी की जो दबाव की राजनीति है या ब्लैकमेलिंग की राजनीति तो एक ये भी कारण होगा. मतलब कहने का ये है कि ये लोग खुद को सुरक्षित कर रहे हैं देश को नहीं. यही लोग अगर ये कहते हैं कि लोकतंत्र का नाश हो रहा है, संविधान की धाराएं खत्म हो रही हैं. अभी देखिए कि सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस पर किस तरह का अटैक हो रहा है और जो लोग ऐसी सरकार को सत्ता से बाहर करना चाहते हैं तो इसके लिए तो उनमें एकता होनी चाहिए. लेकिन उस एकजुटता को जो लोग खत्म कर रहे हैं तो ये लोग सत्ता के साथ हैं.
ममता बनर्जी के प्रधानमंत्री के सपने पर हंसा ही जा सकता है
प्रश्न यहाँ उठता है कि आप कांग्रेस और भाजपा दोनों का ही कर रहे हैं? राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा की, वो विदेश में जाकर भारत पर सवाल उठाया है. संसद में उनसे जवाब मांगा जा रहा है. अगर ममता बनर्जी को कोई प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार कर भी ले तो उनके पास तो 42 लोकसभा की सीटें हैं, तो ये तो 40 सीट भी नहीं ला सकते हैं. भाजपा भी तो 18 तक पहुंच गई है. 2024 में जो 18वीं लोकसभा चुनाव जो होने जा रहा होने जा रहा है उसमें तो भाजपा को उतनी सीट मिल ही जाएगी..तो ये सारी जो खलबलाहट है, जो महत्वाकांक्षाएं हैं वो चाहे नीतीश कुमार की हो या ममता बनर्जी की इस पर तो हसा ही जा सकता न. ममता के 42 सीटें हैं लेकिन कांग्रेस के पास तो इनसे ज्यादा हैं न लोकसभा में तो सब मूर्खतापूर्ण इक्षाएँ हैं. ये सारी चीजें मतदाताओं को कंफ्यूज करने के लिए है न कि उनको असली मुद्दे पर जागरूक करने के लिए.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]
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