मणिपुर में स्थिति क्यों नहीं हो रही सामान्य, राजनीतिक जवाबदेही से ज़्यादा बीरेन सिंह सरकार को है छवि की चिंता
मणिपुर में बड़े पैमाने पर हिंसा की शुरूआत हुए 5 महीने से ज़्यादा का वक़्त बीत चुका है. उसके बावजूद मणिपुर में हालात अभी तक सामान्य नहीं हो पाया है. हिंसा की घटनाएं ज़रूर कम हुई हैं,लेकिन वहाँ के दो प्रमुख समुदाय मैतेई और कुकी के बीच तनाव की स्थिति कमोबेश वैसी ही है.
बीच-बीच में हिंसक घटनाओं की तस्वीरें सामने आती रहती हैं. तस्वीरों के साथ ही हिंसक घटनाओं का वीडियो भी वायरल होते रहता है, जिसको लेकर सोशल मीडिया के अलग-अलग मंचों पर अलग-अलग दावे भी होते हैं. अभी एक वीडियो वायरल हुआ था, जिसमें स्पष्ट तौर से देखा जा सकता है कि भीड़ में से चंद लोग दो युवकों को गोली मार कर उनके शव को एक गड्ढे में दफ़ना रहे थे. यह घटना कहाँ की है और शव को किस जगह पर दफ़नाया जा रहा है, इसकी जानकारी वीडियो में नहीं थी.
मणिपुर में स्थिति क्यों नहीं हो पा रही सामान्य?
मणिपुर से बाहर के लोगों को पिछले 5 महीने से मणिपुर के हालात के बारे में ज़्यादा जानकारी इस तरह के तस्वीरों और वीडियो से ही मिलती रही है. इन 5 महीनों में मणिपुर की हालत कितनी बदली है, माहौल सामान्य हुआ है या फिर तनाव का स्तर कमोबेश पहले जैसा ही है, इन सारे सवालों के जवाब इस तरह की तस्वीरों और वीडियो से कुछ हद कर जाते हैं. स्थिति में सुधार के सरकारी दावों की भी कलई इन तस्वीरों और वीडियो से खुल जाती है. मणिपुर में जिस तरह का माहौल है, हिंसक घटनाओं का सिलसिला थम नहीं रहा है,उससे इतना तो ज़ाहिर है कि मणिपुर में कानून व्यवस्था अभी भी दयनीय स्थिति में है.
हिंसा की आग में 5 महीने से झुलसता मणिपुर
मणिपुर पिछले 5 महीने से हिंसा की आग में झुलस रहा है. वहाँ के लोग डर और भय में जीने को मजबूर हैं. हिंसा में अब तक जान माल का कितना नुक़सान हुआ है, मणिपुर के बाहर के लोगों के लिए इसका वास्तविक अनुमान लगाना भी संभव नहीं है. मणिपुर में 3 मई को हिंसा ने व्यापक रूप ले लिया था.
उसके बाद से हिंसा में 180 से अधिक लोग अपनी जान गँवा चुके हैं और घायलों की संख्या हज़ारों में है. हज़ारों लोग बेघर होने को मजबूर हुए हैं. बड़ी संख्या में लोग अभी भी अपने घरों से दूर हैं. यह सब सरकारी आँकड़ों में दर्ज है. वास्तविकता इससे भी अधिक भयावह हो सकती है. प्रदेश के कई इलाकों में भय का माहौल है. मणिपुर में जो कुछ हुआ या हो रहा है, उसका कारण चाहे जो भी हो, इतना ज़रूर है कि यह एन. बीरेन सिंह की अगुवाई में प्रदेश की बीजेपी सरकार के ऊपर एक धब्बा है.
संसद के मानसून सत्र के ठीक पहले जुलाई में मणिपुर की दो महिलाओं के साथ बर्बरतापूर्ण हरकत से जुड़ा वीडियो वायरल होने के बाद एन बीरेन सिंह सरकार की कार्रवाई के नाम पर तेज़ी दिखाई ज़रूर दी है, लेकिन अभी भी प्रदेश में माहौल को सामान्य बनाने कि लिए सरकार में संजीदगी की कमी झलकती है. ऐसा लगता है कि मणिपुर सरकार को प्रदेश के लोगों से ज़्यादा ख़ुद की छवि की चिंता है.
वीडियो को लेकर मणिपुर सरकार का नया आदेश
मणिपुर की सरकार की ओर 11 अक्टूबर की रात को एक आदेश जारी किया गया है. मणिपुर गृह विभाग की ओर से जारी आदेश प्रदेश में हिंसा और संपत्तियों को नुकसान पहुंचाने संबंधी वीडियो के प्रसार पर रोक लगाने से जुड़ा है. इस आदेश में कहा गया है कि मणिपुर सरकार अलग-अलग सोशल मीडिया पर हिंसा और संपत्तियों को क्षतिग्रस्त करने से जुड़े वीडियो को गंभीरता और संवेदनशीलता से ले रही है. आदेश के मुताबिक़ जो बातें कही गई हैं, उससे एन बीरेन सिंह सरकार को लगता है कि ऐसे वीडियो से राज्य में कानून व्यवस्था की स्थिति ख़राब हो रही है. इस वज्ह से सरकार ने ऐसे वीडियो के प्रसार पर रोक लगाने का फै़सला लिया है. सरकीरा आदेश में कहा गया है कि इस तरह के वीडियो के प्रसार में जिस किसी की भूमिका पायी जायेगी, उस पर आईपीसी और आईटी अधिनियम के तहत कार्रवाई की जायेगी.
एन. बीरेन सिंह सरकार को है छवि की ज़्यादा चिंता
जहाँ तक वीडियो वायरल होने से कानून व्यवस्था के बिगड़ने का सवाल है, उसके मद्द-ए-नज़र राज्य सरकार की सख़्ती जाइज़ है. लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि मणिपुर के लोग जिस प्रताड़ना और दंश झेलने को मजबूर है, उनके बारे में प्रदेश से बाहर के लोगों को पिछले 5 महीने से छिटपुट वास्तविक जानकारी उन वीडियो और तस्वीरों से ही मिल रही है. ऐसे तो मणिपुर में तीन मई को हिंसा के व्यापक रूप लेने के बाद ही मोबाइल इंटरनेट सेवा निलंबित कर दी गई थी, जिसे 23 सितंबर को फिर से बहाल कर दिया गया था. लेकिन दो लापता छात्रों के शवों की तस्वीरें वायरल होने के बाद इंफाल घाटी में फिर से आंदोलन शुरू हो जाता है. इसकी वज्ह से 26 सितंबर को फिर से मोबाइल इंटरनेट सेवा निलंबित कर दी जाती है. अब मणिपुर सरकार ने मोबाइल इंटरनेट सेवाओं के निलंबन की अवधि को 16 अक्टूबर शाम तक के लिए बढ़ा दिया है.
सरकारी तंत्र की विफलता का अंजाम
मणिपुर हिंसा के इतने दिनों तक जारी रहने के लिए सरकारी तंत्र की विफलता भी उतनी ही ज़िम्मेदार है. इसके बावजूद मुख्यमंत्री एन.बीरेन सिंह ने कई इसकी ज़िम्मेदारी नहीं ली. बीच में त्यागपत्र देने से जुड़ी घटना का नाटकीय रूप पूरे देश ने ज़रूर देखा था. ज़िम्मेदारी लेने की ब-जाए मुख्यमंत्री एन.बीरेन सिंह हिंसा के लिए नये-नये कारण ज़रूर बताने में व्यस्त रहे हैं.
अब मुख्यमंत्री एन.बीरेन सिंह का कहना है कि मणिपुर में विवाद और हिंसा का पूरा मामला दो समुदायों मैतेई और कुकी के बीच का नहीं है. उनके मुताबिक़ मामला ड्रग माफिया और सरकार के बीच का है. बीरेन सिंग का कहना है कि इसमें बाहरी ताक़तों का हाथ है. बीरेन सिंह के बयानों से ज़ाहिर है कि वो यह समझाना चाह रहे हैं कि
अगर बाहरी दख़्ल नहीं होता,तो अब तक पूरा मामला सुलझ जाता.
राजनीतिक जवाबदेही से बचती बीजेपी सरकार
एन. बीरेन सिंह अपनी सरकार की असमर्थता को छिपाने के लिए अब ड्रग माफियाओं को बीच में लाकर राजनीतिक और सरकारी जवाबदेही लेने से पल्ला झाड़ते हुए नज़र आ रहे हैं. उनका कहना है कि सरकार ने पोस्ता की खेती और नशीली दवाओं की तस्करी में शामिल अवैध प्रवासियों पर सख़्ती बरती. इससे ड्रग माफियाओं ने सीमाई इलाकों में अशांति फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
मणिपुर में मैतेई समुदाय लंबे वक़्त से अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा देने की मांग कर रहे थे. इसके विरोध में पर्वतीय जिलों में कुकी, नागा समुदायों की ओर से जनजातीय एकजुटता रैली का आयोजन किया जाता है. उसी दिन तीन मई से मणिपुर में जातीय हिंसा व्यापक रूप ले लेती है. चुराचांदपुर जिले में हिंसा का सबसे व्यापक रूप देखा गया. प्रदेश में चुराचांदपुर,चंदेल और कांगपोकपी कुकी बहुल क्षेत्र हैं.
हाईकोर्ट का निर्देश हिंसा के लिए ज़िम्मेदार नहीं!
मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने के मुद्दे पर मणिपुर हाईकोर्ट ने राज्य सरकार से विचार करने को कहा था. इसी बात को आधार बनाकर एन.बीरेन सिंह का कहना है कि हाईकोर्ट का निर्देश प्रदेश में हिंसा फैलने और अशांति के लिए आधार हो ही नहीं सकता क्योंकि हाईकोर्ट ने सरकार को सिर्फ़ राय मांगी थी. हाईकोर्ट ने तत्काल कार्रवाई का कोई निर्देश नहीं दिया था और सरकार ने भी 3 मई तक अपनी राय नहीं दी थी. इस आधार पर ही एन.बीरेन सिंह का कहना है कि हाईकोर्ट का निर्देश हिंसा के लिए ज़िम्मेदार नहीं हो सकता.
बाहरी हस्तक्षेप को रोकने की ज़िम्मेदारी किसकी?
एन.बीरेन सिंह इन बातों के ज़रिये प्रदेश सरकार और ख़ुद की जवाबदेही से बचने की कोशिश में दिखते हैं क्योंकि सवाल कई है. प्रदेश में भी बीजेपी की सरकार और केंद्र में भी बीजेपी सरकार. सवाल यहीं उठता है. एक मिनट के लिए मान भी लिया जाए कि हिंसा में बाहरी हस्तक्षेप की सबसे बड़ी भूमिका रही है, तो उस हस्तक्षेप से निपटने में मुस्तैदी और तेज़ी से निपटने की ज़िम्मेदारी किसकी थी. कोई भी इसके जवाब में यही कहेगा बाहरी दख़्ल से निपटने की पूरी ज़िम्मेदारी प्रदेश सरकार और केंद्र सरकार की ही थी.
बीरेन सिंह सरकार पर इतनी मेहरबानी क्यों?
हालांकि इतनी व्यापक हिंसा के बाद केंद्र सरकार की ओर से राज्य सरकार पर सख़्ती का कोई रुख़ नहीं दिखा. न ही प्रदेश में बेहद ही ख़राब हो चुकी स्थिति को लेकर राज्यपाल अनसुइया उइके की रिपोर्ट के बाद मणिपुर में राष्ट्रपति शासन लगाने के बारे में सोचा गया. राज्यपाल अनुसुइया उइके ने इतना तक कहा था कि उन्होंने अपनी ज़िदगी में इतनी हिंसा कभी नहीं देखी. राज्यपाल अनुसुइया उइके ने टीवी पर ही इस बात को स्वीकारा भी था कि मणिपुर में बिगड़ी स्थिति से जुड़ी रिपोर्ट वो ऊपर यानी केंद्र के पास भेज भी चुकी थीं.
इतना ही नहीं बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व ने मणिपुर में मुख्यमंत्री बदलने के बारे में विचार तक नहीं किया. या'नी चाहे सरकार हो या पार्टी, केंद्रीय स्तर से एन.बीरेन सिंह को बचाने की हर संभव कोशिश की गई. इसके कारण आजतक मणिपुर में इतनी लंबी अवधि तक हुई हिंसा की राजनीतिक जवाबदेही तय नहीं हो पायी है. अगर संसद के मानसून सत्र से ठीक एक दिन पहले 19 जुलाई को महिलाओं के साथ बर्बरतापूर्ण हरकत से जुड़ा वीडियो वायरल नहीं होता, तो मणिपुर की वास्तविकता से बाहर के लोग पता नहीं कब तक रू-ब-रू हो पाते.
अब तक मणिपुर क्यों नहीं गए पीएम मोदी?
मणिपुर से जुड़े वायरल हुए वीडियो से 19 जुलाई को देशभर में पैदा हुए आक्रोश का ही असर था कि मानसून सत्र की शुरूआत से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मणिपुर हिंसा पर पहली बार कुछ बयान दिया. उससे पहले हिंसा की शुरुआत को ढाई महीने का समय बीत चुका था, लेकिन प्रधानमंत्री की ओर से मणिपुर को लेकर कोई बयान नहीं आया था. अब तक सार्वजनिक तौर से संसद सदन के बाहर प्रधानमंत्री का मणिपुर के मसले पर 20 जुलाई का बयान ही इकलौता बयान रह गया. व्यापक हिंसा की शुरूआत को इतने महीने हो गये हैं. विडंबना है कि अब तक प्रधानमंत्री ने मणिपुर जाकर वहाँ के लोगों का दु:ख-दर्द जानने की कोशिश नहीं की है. प्रधानमंत्री का मणिपुर जाकर पीड़ित और प्रभावित इलाकों में लोगों से सीधे संवाद प्रदेश की स्थिति को सामान्य बनाने के लिहाज़ से काफ़ी महत्वपूर्ण हो साबित हो सकता है.
मणिपुर में मार्च 2017 से बीजेपी की सरकार
मणिपुर में जातीय संघर्ष के लंबा इतिहास रहा है. पहले भी मणिपुर के लोगों को इस तरह के जातीय हिंसा का सामना कई बार करना पड़ा है. हालांकि इस साल मई से जिस तरह की हिंसा हुई है, पिछले दो दशक में उतनी ख़राब स्थिति कभी नहीं देखी गई थी.
मणिपुर के लोगों के लिए इसे विडंबना ही कहा जा सकता है कि 5 महीने के बाद भी हालात और तनाव में पूरी तरह से सुधार नहीं देखने को मिल रहा है. महत्वपूर्ण बात यह है कि केंद्र के साथ ही प्रदेश में भी बीजेपी की सरकार है. मणिपुर में मार्च 2017 से मुख्यमंत्री एन.बीरेन सिंह की अगुवाई में बीजेपी की सरकार है. मार्च 2017 से पहले मणिपुर में ओकराम इबोबी सिंह की अगुवाई में 15 साल लगातार कांग्रेस की सरकार रही थी. उसके पहले भी मणिपुर में अधिकतर समय कांग्रेस की ही सरकार रही है.
जातीय संघर्ष से छुटकारा दिलाने का वादा
मार्च 2017 में जब विधान सभा चुनाव हो रहा था, तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत बीजेपी के तमाम नेताओं ने दावा किया था कि अगर केंद्र के साथ ही प्रदेश में भी बीजेपी की सरकार बन जाती है, तो मणिपुर के लोगों को सरकार को प्रयासों से इस जातीय संघर्ष से छुटकारा मिल जायेगा. बीजेपी के नेताओं ने कहा था केंद्र में जिस पार्टी की सरकार है, अगर उसी पार्टी की सरकार मणिपुर में भी बन जाये, तो मणिपुर की इस समस्या के साथ ही कई समस्याओं का समाधान जल्द ही हो जायेगा. हालांकि यह तो नहीं हुआ, इसके उलट हिंसा का ऐसा रूप दिखा, जिससे मणिपुर के लोगों को व्यथा की कथा के साथ जीने को विवश होना पड़ रहा है.
मणिपुर में अभी भी हालात तनावपूर्ण
हालात अभी भी कितने बुरे हैं, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि पांच माह से जारी जातीय संघर्ष में मारे गये कुकी-जो समुदाय के कई लोगों के शव राजधानी इंफाल के मुर्दाघरों से रखे हुए है. आदिवासी संगठन 'कमेटी ऑन ट्रायबल यूनिटी' को सरकारी अधिकारियोंसे इन शवों को इंफाल के मुर्दाघरों से कांगपोकपी जिले में लाये जाने का अनुरोध करना पड़ रहा है. सगंठन का कहना है कि शवों की संख्या 50 हो सकती है. इतना ही नहीं लाए जाने के दौरान इन शवों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सरकारी नुमाइंदों से गुहार भी लगानी पड़ रही है. ये उन लोगों के शव हैं, जिनकी पहचान नहीं हो पायी है.
मणिपुर में बाहरी हस्तक्षेप से जुड़ा पहलू
मणिपुर की आबादी 30 लाख के आस-पास है. मणिपुर की आबादी में मैतेई समुदाय की संख्या क़रीब 53% है. ये लोग अधिकतर इंफाल घाटी में रहते हैं. इन्हें राज्य में अनुसूचित जनजाति का दर्जा नहीं मिला हुआ है. इनके साथ ही मणिपुर की आबादी में लगभग 40 फ़ीसदी नगा और कुकी आदिवासी हैं. नगा और कुकी आबादी का मुख्य ठौर पर्वतीय जिले हैं. मणिपुर में क़रीब 90% हिस्सा पहाड़ी इलाका है.
पहाड़ी इलाकों में व्यापक पैमाने पर पोस्ता की खेती होती है. इसकी खेती के लिए पहाड़ी इलाकों में जंगलों को बड़े पैमाने पर नष्ट भी किया गया है. लंबे समय से इन इलाकों में पोस्ता की खेती का संबंध म्यांमार, थाईलैंड और लाओस के गोल्डन ट्रैंगल से रहा है. इससे इन इलाकों में कुकी और नागा लोगों को बाहरी हस्तक्षेप से जूझना पड़ता था.
ड्रग्स का कारोबार और पोस्ता की खेती
एन. बीरेन सिंह सरकार का मानना रहा है कि ड्रग्स के कारोबार और पोस्ता की खेती की वज्ह से कुकी बहुल क्षेत्र चुराचांदपुर,चंदेल और कांगपोकपी में डेढ़ दशक में कई नये गांव बन गये, जहाँ बड़े पैमाने पर अवैध प्रवासी रह रहे थे. एन बीरेन सिंह का कहना है कि क़रीब ढाई हज़ार अवैध प्रवासियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की गई. पहचान कर उन सबको डिटेंशन सेंटर में डाला गया. साथ ही इन जिलों के मूल निवासियों कुकी और नागा समुदाय के लोगों को अवैध प्रवासियों को सहारा नहीं देने के लिए चेतावनी भी दी गई. मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह का कहना है कि ये सारी घटनाएं मणिपुर में 3 मई से शुरू हुई हिंसा के लिए वज्ह बनी.
तनाव का राजनीतिक पहलू से गहरा संबंध
कुछ हद तक मणिपुर के जातीय संघर्ष से संबंध ईसाई-गैर ईसाई, हिन्दू-मुस्लिम जैसे पहलुओं का भी रहा है. अलग-अलग समुदाय में राजनीतिक जनाधार बनाने के प्रयासों से भी मनमुटाव को बढ़ावा मिला है. पिछले कुछ सालों से मैतेई समुदाय के बड़े हिस्से का समर्थन बीजेपी को मिलते रहा है,वहीं कुकी-नागा समुदाय की पहचान कांग्रेस के परंपरागत वोट बैंक के तौर है.
संघर्ष के लिए राजनीतिक कारक भी ज़िम्मेदार
जब से प्रदेश में बीजेपी की सरकार बनी है, भीतरखाने मैतेई और कुकी-नागा समुदाय के बीच का मनमुटाव बढ़ने लगा है. मई से हिंसा की जिस व्यापक आग में मणिपुर झुलस रहा है, उसके लिए राजनीतिक कारक भी उतने ही ज़िम्मेदार हैं. उसमें भी जब नेता और कार्यकर्ताओं से लेकर आम लोगों तक में मणिपुर जैसी हिंसा की व्याख्या दलगत आधार पर होने लगता है, तो फिर किसी भी सरकार के लिए राजनीतिक जवाबदेही से बचना आसान हो जाता है. मणिपुर के मामले में भी ऐसा ही हुआ है. शायद यही कारण है कि आज के समय में भारत वैश्विक व्यवस्था में सैन्य, आर्थिक और कूटनीतिक तौर से दुनिया की शीर्ष शक्तियों में से एक है, उसके बावजूद पिछले 5 महीने से हिंसा में झुलसते मणिपुर में हालात पूरी तरह से सामान्य नहीं हो पाये हैं.
राजनीतिक जवाबदेही कैसे होगी तय?
मणिपुर में इतने लंबे समय तक हिंसा..सरकार के साथ ही समाज के हर लोगों के चेहरे पर एक तमाचा है. इसके बावजूद सोशल मीडिया पर बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक..जातीय और धार्मिक दोनों आधार पर विमर्श के साथ ही राजनीतिक दलों को समर्थन के आधार पर पूरे देश में आम लोग अभी भी बहस करते नजर आ रहे हैं. मीडिया के अलग-अलग मंचों पर ख़ासकर सोशल मीडिया पर अभी भी नेता और कार्यकर्ताओं के साथ ही आम लोग भी ...उस घटना-इस घटना, उस समुदाय-इस समुदाय, इस वक़्त-उस वक़्त, तुम्हारी पार्टी-मेरी पार्टी की सत्ता के समय हुई घटना...जैसे बिन्दुओं को आधार बनाकर बहस में उलझे हैं.
यह भारत जैसे देश के लिए ख़तरनाक ट्रेंड है, जिसकी ताक़त ही विविधता में एकता है. घटना चाहे कितनी भी बड़ी हो, उसके प्रभावित और पीड़ित लोगों की संख्या चाहे कितनी भी ज़्यादा हो.. इस तरह के ट्रेंड से सरकार और राजनीतिक दलों को अपनी जवाबदेही से बचने का रास्ता आसानी से मिल जाता है.
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