कौम की इज्जत कब तक औरत अपने बदन से चुकाती रहेगी?
आदम से लेकर काली के कलयुग तक, जो एक चीज़ नहीं बदली वो है इज़्ज़त का, औरत की योनि में होने की मानसिकता. कल शाम जब मैंने मणिपुर की वो वीडियो देखी जिसमें कुछ इंसानी शक्ल के हैवान कुकी समुदाय की दो औरतों को बेआबरू कर सड़क पर घुमा रहे थे, उस वक़्त दिमाग सुन्न सा पड़ गया. अंदर से रूह कांप उठी.
पत्रकारिता के फील्ड में होते हुए भी इस खबर को छूने का दिल नहीं किया. मन में कई बातें थीं जिन्हें लिखना था, बोलना था, सोचना था और करना था. हालांकि जो एक ख्याल मन में बार-बार आ रहा था, वो ये था कि बार-बार औरतें ही क्यों? क्योंकि औरत के बदन में उसकी क़ौम की इज़्ज़त बस्ती है, इसलिए?
हर सभ्यता में जब-जब मार-काट हुई, दंगा-फसाद हुआ है, उसकी सबसे बड़ी क़ीमत न चाहते हुए भी औरतों को ही चुकानी पड़ी है, वही औरतें जिन्होंने कभी ये लड़ाई-दंगे-फसाद मांगे ही नहीं, वही औरतें जो युद्ध के समय अपने पतियों के इंतज़ार में बच्चों को संभालती रहीं, वही प्रेमिकाएं जो युद्ध में अपने प्रेमी का इंतज़ार करते-करते, आख़िरी दम भरने तक अपने आख़िरी आंसू संभाले रहीं, वही औरतें जिन्हें हर युग में एक चीज़ की तरह इस्तेमाल किया गया, युद्ध लड़ने के लिए, एक शास्त्र की तरह इस्तेमल किया गया.
वही औरतें जिन्होंने जब रानी लक्ष्मीबाई की तरह युद्ध के मैदान में उतरने की भी ठानी तो आखिरी ख्वाहिश में खुद को जला देने का फरमान जारी किया ताकि कोई आदमी उनके बदन को न छू सके. वही औरतें जो अपने पतियों के लिए सती हुईं ताकि दुश्मन सेना के आदमी उन्हें अपनी हवस का शिकार न बना सकें. क्यों? क्योंकि औरत के बदन में उसकी क़ौम की इज़्ज़त बस्ती है.
जहां लड़ाईयां हुईं, वहां मर्दों ने समझा कि औरत के जिस्म में उसकी ही नहीं बल्कि उसकी क़ौम की, उसके समुदाय की इज़्ज़त-ओ-आबरू, उसकी शर्म, उसकी हया बसती है. अगर उस पर वार किया जाए, तो उसकी क़ौम को भी ज़लील कर सकेंगे. ये वही औरतें हैं जिन्होंने अपनी क़ौम का ठेका कभी नहीं लिया, जिन्होंने कभी नहीं कहा कि हां उन्हें चाहिए कि उनके घर-परिवार की इज़्ज़त उनके जिस्म में बसे. तो कहां से और क्यों आई ये मानसिकता? क्योंकि औरत के बदन में उसकी क़ौम की इज़्ज़त बस्ती है.
मणिपुर में जो भी हुआ, वो समाज, लोकतंत्र और सभ्यता पर एक धब्बा तो है ही, मगर इसकी जड़ है इस सोच में कि जब किसी समुदाय विशेष पर हावी होना हो, वार करना हो, तब उनकी औरतों को निशाना बना लो. लोग जब एक sexual assault या फिर बलात्कार के बारे में बात करते हैं, तो कहते हैं कि उसकी इज़्ज़त लूट ली. TV channel जब ये खबरें चलाते हैं तो कहते हैं कि बेटी की इज़्ज़त दांव पर. क्यों? क्योंकि औरत के बदन में उसकी क़ौम की इज़्ज़त बस्ती है.
दिक्कत हमारी सोच में है और ये हमारी व्याकरण और हमारी भाषा में झलकती है.
कई लोगों का मानना है कि केवल मानसिक रोगी ही किसी औरत के साथ ये हरकत कर सकते हैं. मगर ये सच नहीं है. इस तरीके की घटनाएं इंसान अपनी अय्याशी के लिए कम और उस औरत पर, और by extension - उसके समुदाय पर, अपना हक़ जताने के लिए करते हैं. क्यों? क्योंकि औरत के बदन में उसकी क़ौम की इज़्ज़त बस्ती है.
तो ये जो वीडियो आपने देखी, वो आगे भी होगा, और तब तक होगा जब तक हम औरत को इज़्ज़त के पैमाने से हटाकर, एक commodity, एक tool के लिहाज़ से नहीं बल्कि एक इंसान के पैमाने से नहीं देख लेते. ये तब तक होगा जब तक एक मर्द दूसरे मर्द को नीचा दिखाने के लिए औरत का इस्तेमाल करेगा.
कंकड़-पत्थर के घर तो दोबारा बन जायेंगे, आर्थिक स्थिति भी ठीक हो जाएगी, मगर जिन औरतों पर मर्दों की आपसी रंजिशों के ज़ख्मों के निशान हैं, वो एक दिन उनके बदन में घुल जायेंगे, ये औरतें वो विष कन्याएं बनेगी जिनका ज़हर ही उनकी जान हर दिन लेगा. क्यों? क्योंकि औरत के बदन में उसकी क़ौम की इज़्ज़त बस्ती है.
लोग कहते हैं कि औरतें बढ़ती उम्र के साथ चिड़चिड़ हो जाती हैं. ज़रूरी नहीं कि ये किसी यौन उत्पीड़न के ज़हर का नतीजा हो, मगर एक यौन उत्पीड़न ही तो औरतों का इकलौता उत्पीड़न नहीं होता.
पैदा होने से लेकर कब्रस्तान या शमशान तक एक औरत की ज़िन्दगी में कई पड़ाव आते हैं - माहवारी, शरीर में बदलाव, उसे देखने वालों की नज़रों में बदलाव, सेक्स के बाद शरीर में बदलाव, बच्चा होने पर बदलाव, माहवारी रुकने पर बदलाव, hormones में बदलाव, अगर असुरक्षित गर्भपात कराये हैं तो उस वजह से बदलाव, अगर बच्चा नहीं हो रहा तो उसकी दवाईयों के असर का बदलाव, और इतने बदलावों में भी आदमियों के उन पर तंझ कसने से लेकर, दफ्तरों में sexist jokes और महफिलों में बैठ कर चाय पीते हुए उनका मज़ाक बनाने तक का सफर किसी भी इंसान में ज़हर घोलेगा.
ये उत्पीड़न, ये इस्तेहसाल किसी किताब, किसी शोध पत्र, किसी आंकड़े में आपको नहीं मिलेगा। ये सिर्फ वक़्त के साथ औरतों में महसूस किया जा सकता है.
तो ये बात तो ठीक है कि मणिपुर में जो हुआ वो एक धब्बे की तरह हमारे ज़हन में उतर चुका है, मगर ये जो रोज़ का उत्पीड़न है और ऐसी घटनाओं के पीछे का जो कारण है, उसे जब तक नहीं समझा जायेगा, लोगों की हैवानियत की वजह को जब तक नहीं उखाड़ा जायेगा, तब तक आदमी औरतों को अपनी इज़्ज़त, अय्याशी और मर्दानगी के लिए इस्तेमाल करता रहेगा.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]