आज़ाद भारत की राजनीति में अगर सादगी, संयम व गरिमापूर्ण जीवन बिताने की बात करें, तो दो नाम एकदम से जेहन में आते हैं और वे हैं-पूर्व राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद व पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री. हालांकि, दिवंगत अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर नरेंद्र मोदी तक ने अपनी सियासी जिंदगी में सादगी को ही अपनाया लेकिन आज हम बात करते हैं उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के मोहनपुरा कस्बे में जन्मे उस शख्स की जो सादगी, संयम के साथ फक्कड़ता को ही अपना मूलमंत्र मानते हुए इस मुकाम तक पहुंचे हैं.


बनारस हिंदू विश्विद्यालय की छात्र राजनीति से अपना सफ़र शुरु करते हुए केंद्र सरकार में मंत्री रहने के बाद अब जम्मू-कश्मीर के "लाट साहब" यानी उप राज्यपाल के पद पर बैठे मनोज सिन्हा आज 61 बरस के हो गये हैं. हालांकि वे खुद को न लाट साहब कहलवाना पसंद करते हैं और न ही दिखावटी शान में यकीन रखते हैं.




हालांकि राजनीति की मायावी दुनिया में ऐसे लोग विरले ही मिलते हैं जिसे देश के सबसे बड़े सूबे के मुख्यमंत्री का सेहरा पहनाने की पूरी तैयारी कर ली गई हो लेकिन ऐन वक्त पर किसी और की ताजपोशी कर दी जाये. पर फिर भी वो शख्स शांत, संयत रहते हुए अपना आपा भी न खोये और पार्टी का कर्मयोगी भी बना रहे. आधुनिक भारत की राजनीति और खासकर भारतीय जनता पार्टी में इसे पहली व ऐतिहासिक मिसाल कहा जा सकता है.


पूर्वांचल की राजनीति की नब्ज को समझते हुए तीन बार लोकसभा में पहुंचने वाले मनोज सिन्हा को जब पिछले साल अगस्त में ऐसे वक्त पर जम्मू-कश्मीर का एलजी नियुक्त किया गया, जब आर्टिकल 370 को ख़त्म करके राज्य को मिला विशेष दर्जा वापस ले लिया गया था. तब उनके हितैषियों ने भी यही समझा था कि ये तो उनकी पनिशमेंट पोस्टिंग है. तब उनके ही शुभचिंतकों की जुबान से ये जुमला सुनाई देता था कि "आतंकवाद की मार झेल रहे उस राज्य में गाजीपुर वाले हमारे मनोज भैया भला कौन-सा गुल खिला देंगे?"


मनोज सिन्हा ने इस आशंका भरे सवाल का जवाब तब भी नहीं दिया था और अब भी नहीं दिया. लेकिन, उसे जमीनी हकीकत में बदलने की ऐसी शुरुआत की जिसके लिए ढिंढोरा पीटने को कभी अपनी जरुरत नहीं समझा. चरमपंथी से लेकर उदार विचारधारा रखने वाले 14 जिद्दी नेताओं को एक साथ प्रधानमंत्री से बातचीत करने के लिए राजी कर लेना, इतना आसान काम नहीं था. लेकिन सियासत में कुछ ऐसे पल आते हैं जब चतुराई की बजाय कोमलता और दिमाग की जगह दिल से की गई कोशिश बड़ी मुश्किल को भी आसान बना देती है.




देश में कितने लोग भला इस सच को जानते हैं कि 24 जून सिन्हा के लिए एक बेहद खास दिन था. सिर्फ इसलिए नहीं कि उस दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के घर पर कश्मीरी नेताओं से बातचीत होनी थी, जिसका तानाबाना बुनने में उनकी अहम भूमिका थी. बल्कि वह उनकी निजी जिंदगी का भी एक खास दिन था. इधर बैठक चल रही थी और उधर नयी दिल्ली के एक सरकारी बंगले में परिवार के लोग उनके बेटे अभिनव की शादी की रस्में पूरी करने के लिए सिन्हा का इंतज़ार कर रहे थे.


शादी भी ऐसी हुई कि न कोई तामझाम, न तड़क-भड़क और न ही कोई वीआईपी. कोरोना की गाइडलाइंस का पालन करते हुए परिवार व बेहद नजदीकी मित्रों समेत महज़ 22-24 सदस्य. सबसे तेज व सबसे पहले ख़बर देने की अंधी दौड़ में लगे किसी मीडिया को उन्होंने इसकी भनक तक नहीं लगने दी. वरना उसी रात शादी की तस्वीरें देश के सामने होतीं. इसे आखिर क्या कहा जायेगा, यही न कि ऊंचे पद पर रहते हुए भी उन्हें अभी तक शोहरत की भूख नहीं लग पाई है.


गाजीपुर से लेकर दिल्ली के रेल भवन और संचार भवन में एक मंत्री के नाते सिन्हा की इंसानियत व इंसान की कद्र करने की मिसाल तो ढेर सारी हैं लेकिन कुछेक का जिक्र करना यहां लाजिमी होगा. सिन्हा के एक करीबी मित्र बताते हैं कि सार्वजनिक जीवन में रहते हुए नैतिकता को कैसे बरकरार रखा जाये, ये सिन्हा की जिंदगी से सीखना चाहिये.


वे पूरे वाकये का खुलासा करते हैं कि "जब सिन्हा को संचार मंत्री बनाया गया,तो उन्होंने सबसे पहला काम यह किया कि अपने ही बेटे अभिनव की नौकरी छीन ली. वह चीन की हुवेई कंपनी के भारत स्थित दफ्तर में ऊंचे पद पर कार्यरत थे. चूंकि उस कंपनी का कारोबार मोबाइल फोन व अन्य संचार माध्यमों का है, लिहाजा उन्होंने बेटे से कहा कि तुम फौरन इस कंपनी से इस्तीफा दे दो और जब तक मैं संचार मंत्री हूं, तब तक इस तरह की किसी भी देशी-विदेशी कंपनी में काम मत करना. बेटे को बात माननी पड़ी."


उनके साथ काम कर चुके एक सरकारी अफसर के मुताबिक "मैंने अपने जीवन में पहला ऐसा मंत्री देखा, जो हर रोज अपना खाना भी अपने स्टाफ के साथ बांटकर खाता हो और जो मंत्रालय के पियून और सचिव से बात करते वक़्त जरा भी फर्क न रखता हो."


वह कहते हैं कि "पूर्वांचल के जितने भी शहरों के  स्टेशन आज आप देखते हैं,उनका कायाकल्प करने का एकमात्र श्रेय सिन्हा को जाता है क्योंकि उन्होंने इसके लिए इतने फिक्रमंद होकर काम किया है,मानो अपनी बेटी की शादी कर रहे हों."


बीएचयू से बीटेक और एमटेक की डिग्री हासिल करने वाले सिन्हा के बारे में एक और खास बात यह भी बताई जाती है कि उनकी याददाश्त बहुत तेज है.एक बार किसी से मिल लें, तो सालों तक उसे भूलते नहीं हैं.उनके करीबी मित्रों के मुताबिक मंत्री रहते हुए  गाजीपुर से जब भी कोई नौजवान उनसे मिलने आता था तो वे उसके पिता और दादा तक को याद कर लिया करते थे कि तुम फलां के बेटे या पोते हो.


बनारसी पान और लिट्टी-चौखा का शौक रखने वाले सिन्हा के बारे में बताते हैं कि कुछ साल पहले उन्होंने पान खाने की अपनी आदत से छुटकारा पा लिया है. लेकिन, जम्मू से लेकर श्रीनगर के राजभवन तक गाजीपुर की मिठाई व लिट्टी का स्वाद अब भी बरकरार है.



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