केरल विश्वविद्यालय की ओर से एक अच्छी पहल हुई है. केरल विश्वविद्यालय ने 18 साल से अधिक की आयु वाली छात्राओं के मातृत्व अवकाश और मासिक धर्म यानी पीरियड के वक्त अवकाश की अनुमति से संबंधित आदेश शारी कर दिया है.


इससे अब इस यूनिवर्सिटी की वैसी छात्राएं भी 6 महीने तक के लिए मैटरनिटी लीव का लाभ उठा सकती हैं, जो ग्रेजुएशन या पोस्ट ग्रेजुएशन कर रही हों. पहले ये सुविधा सिर्फ रिसर्च करने वाली लड़कियों को ही मिल पाता था. केरल यूनिवर्सिटी ऑफ हेल्थ साइंस (KUHS) ने भी छात्राओं को 6 महीने का मातृ्त्व अवकाश देने का फैसला किया है. कोचीन यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी (Cusat) ने भी अपने छात्राओं को 60 दिनों का मैटरनिटी लीव देने का फैसला किया है.


दरअसल केरल की पिनाराई विजयन सरकार ने राज्य की सभी यूनिवर्सिटी को अपने यहां लड़कियों के लिए 6 महीने की मैटरनिटी लीव की सुविधा लागू करने की सिफारिश की थी. इससे पहले केरल के विश्वविद्यालयों में सिर्फ पीएचडी करने वाली लड़कियों को मैटरनिटी लीव की सुविधा मिलती थी.


केरल की इन यूनिवर्सिटी में अब स्नातक या परास्नातक (PG) की पढ़ाई करने वाली लड़कियां भी 6 महीने तक के मातृ्त्व अवकाश पर जा सकती हैं और  उसके बाद वापस कॉलेज आकर अपनी आगे की पढ़ाई जारी रख सकती हैं. इससे उनके पढ़ाई के साथ ही उनके साल बर्बाद होने का डर नहीं रह जाएगा.


इस तरह की पहल कॉलेज में पढ़ने वाली लड़कियों के लिए वरदान की तरह है. हम सब जानते हैं कि भरात में भी भी बहुत बड़ी संख्या में लड़कियों का विवाह कम उम्र में हो जाता है. बड़ी संख्या में ऐसी भी लड़कियां हैं, जिनकी शादी 18 से भी कम उम्र में हो जाती. ये सारी लड़कियां या तो इंटरमीडिएट की पढ़ाई कर रही होती हैं या फिर ग्रेजुएशन में दाखिला लिया होता है.


शादी होने के बाद पढ़ाई जारी रखने में इन लड़कियों को तो ऐसे अमेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, लेकिन जो लड़की शादी के बाद भी कॉलेज ज्वाइन कर लेने में कामयाब दो जाती हैं, उनके सामने तब एक भारी बाधा आ खड़ी होती हैं, जब वो इस अवधि में प्रेगनेंट हो जाती हैं. ऐसे में यूनिवर्सिटी में मातृत्व अवकाश या मैटरनिटी लीव की सुविधा नहीं होने पर इनमें से बहुत सारी लड़कियों की पढ़ाई बीच में ही रूक जाती है.


सबसे बड़ी समस्या आती थी कि जो लड़कियां प्रसव के बाद भी अपनी पढ़ाई जारी रखना चाहती थी, उनका एक एकैडेमिक स्तर पर साल बर्बाद हो जाता था क्योंकि परीक्षा देने के लिए वो अटेंडेस की योग्यता को पूरी नहीं कर पाती थी. केरल विश्वविद्यालय ने जिस तरह का कदम उठाया  है, उससे ग्रेजुएशन और पोस्ट ग्रेजुएशन करने वाली लड़कियों को इस समस्या से मुक्ति मिल जाएगी. अब वो इस दौरान प्रेगनेंट होने के बावजूद बेधड़क अपनी पढ़ाई बिना साल का नुकसान किए जारी रख पाएंगी. ऐसी सुविधा होने से लड़कियों को मैटरनिटी लीव पर जाने के बाद पढ़ाई जारी रखने के लिए अलग से यूनिवर्सिटी से अनुमति लेने की बाध्यता भी खत्म हो जाती है.


मातृत्व अवकाश के बाद पढ़ाई शुरू करने वाली छात्राओं के लिए सबसे बड़ी समस्या कोर्स ब्रेक की रहती है. अगर हर यूनिवर्सिटी में मैटरनिटी लीव की सुविधा हो जाए तो 18 साल से ऊपर की लड़कियों के लिए कोर्स ब्रेक की समस्या खत्म हो जाएगी और उन्हें अपनी पढ़ाई आगे जारी रखने के लिए यूनिवर्सिटी में फिर से दाखिला लेने की जरूरत नहीं रह जाएगी. इस तरह की सुविधा में उन लड़कियों के लिए कोर्स को 6 महीने के लिए बढ़ा दिया जाता है.


अभी फिलहाल राष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं को मातृ्त्व अवकाश के लिए एक केंद्रीय कानून है, जिसे मातृत्व लाभ अधिनियम के नाम से जानते हैं. ये कानून सबसे पहले 1961 में बना था, जिसमें साल 2017 में संशोधन किया गया और उसके बाद इस कानून का नाम मातृत्व लाभ (संशोधन) अधिनियम 2017 हो गया. संशोधन के जरिए मैटरनिटी लीव की अवधि को 12 हफ्ते से बढ़ाकर 26 हफ्ते कर दिया गया.


अब सवाल उठता है कि जब देश में मैटरनिटी लीव को लेकर कानून बना हुआ है ही तो, फिर यूनिवर्सिटी में इसके लिए अलग से आदेश की जरूरत क्यों पड़ रही है. दरअसल मातृत्व लाभ यानी मैटरनिटी बेनेफिट एक्ट नौकरीपेशा महिलाओं पर लागू होता है, न कि कॉलेज में पढ़ने वाली लड़कियों पर. इसलिए अभी भी देश के हर यूनिवर्सिटी में ग्रेजुएशन या पोस्ट ग्रेजुएशन करने वाली लड़कियों को मैटरनिटी लीव की सुविधा नहीं मिल पाती है.


अभी फिलहाल पीएचडी करने वाली लड़कियों को अलग-अलग यूनिवर्सिटी में मैटरनिटी लीव की सुविधा मिलती है. कॉलेज में पढ़ने वाली हर लड़की को ये सुविधा नहीं मिल रही है.


ये बात समझनी होगी कि छात्राओं को मातृत्व लाभ देने का मामला लैंगिक समानता और महिलाओं के लिए समान अवसर मुहैया कराने से जुड़ा है. हमारे संविधान के भाग 4 में शामिल नीति निदेशक तत्वों के अधीन भी अनुच्छेद 42 में राज्य से ये अपेक्षा की गई है कि हर जगह काम की न्यायसंगत और मानवोचित दशाओं को सुनिश्चित किया जाए और प्रसूति सहायता के लिए भी प्रावधान किए जाएं. इसके आधार पर संसद से मैटरनिटी बेनेफिट एक्ट 1961 तो बन गया, लेकिन इसके दायरे में कॉलेज की पढ़ने वाली लड़कियों को शामिल नहीं किया गया. लेकिन अब वक्त की जरूरत है कि या तो संसद से अलग से कानून बनाकर या फिर  मैटरनिटी बेनेफिट एक्ट में संशोधन कर इसका दायरा बढ़ाकर कॉलेज में पढ़ने वाली 18 साल से ऊपर की देश की हर लड़कियों के लिए मैटरनिटी लीव की सुविधा को उनका मौलिक ह़क बना दिया जाए.


कालीकट विश्वविद्यालय 2013 में छात्राओं को मातृत्व अवकाश देने वाला देने वाला देश का पहला विश्वविद्यालय बना था. देश में रिर्सच करने वाली लड़कियों के लिए मैटरनिटी लीव की सुविधा को सयूजीसी ने सबसे पहले 2016 में मान्यता दी. इसे यूजीसी रेगुलेशन 2016 में शामिलि किया गया. इसके तहत एम फिल या पीएचडी के पूरे कार्यकाल के दौरान सिर्फ एक बार महिलाएं 240 दिनों तक का मातृत्व अवकाश ले सकती हैं.


विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यानी यूजीसी ने दिसंबर 2021 में एक सर्कुलर जारी किया. इसके तहत यूजीसी ने देश के हर यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर से छात्राओं के लिए मातृ्व अवकाश की सुविधा से जुड़े पर्याप्त नियम बनाने की गुजारिश की.


इस सिलसिले में दिसंबर 2021 का इलाहाबाद हाईकोर्ट का एक फैसला बेहद महत्वपूर्ण है. उस फैसले में हाईकोर्ट ने लखनऊ के डॉ एपीजे अब्दुल कलाम टेक्निकल यूनिवर्सिटी को ये निर्देश दिया था कि वो बीटेक कर रही एक महिला को यूनिवर्सिटी एक्जाम में शामिल होने की अनुमति दे, जो प्रेगनेंसी की वजह से पहले एक्जाम में शामिल नहीं हो पाई थी. कोर्ट ने यूजीसी के 2021 के सक्रुलर का हवाला देते हुए विश्वविद्यालयों से कहा था कि वे अंजर ग्रैजुएट और पोस्ट गैरजुएट छात्राओं के लिए मातृत्व अवकाश की सुविधा से जुड़े प्रावधान बनाएं. इलाहाबाद हाईकोर्ट का ये भी कहना था कि अगर हम सिर्फ रिसर्च या पीजी छात्राओं को ही मैटरनिटी लीव की सुविधा देते हैं और अंडर ग्रैजुएट छात्राओं को इससे वंचित रखते हैं, तो ये सवंधान के तहत मिले मौलिक अधिकार अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) , अनुच्छेद 15(3) (महिलाओं और बच्चों के लिए विशेष प्रावधान) के साथ ही अनुच्छेद 21 (जीवन और दैहिक स्वतंत्रता) का उल्लंघन है.


अब धीरे-धीरे अलग-अलग यूनिवर्सिटी यूजी और पीजी छात्राओं के लिए मैटरनिटी लीव की दिशा में कदम उठा रही हैं, लेकिन इस मुद्दे पर पूरे देश में एकरूपता लाने की जरूरत है. इसके लिए अलग से संसद से कानून बना दिया जाए तो, अलग-अलग यूनिवर्सिटी के बीच अलग-अलग नियम कायदे के जंजाल से भी मुक्ति मिल जाएगी और उच्च शिक्षा में लड़कियों की भागीदारी बढ़ाने में भी ये कदम लाभदायक साबित होगा.


एक और मुद्दा है जिस पर गंभीरता से पहल करने की जरूरत है. वो मुद्दा है माहवारी के दौरान कॉलेज की छात्राओं को अवकाश मिलने की. केरल में अलग-अलग यूनिवर्सिटी की ओर से इस दिशा में पहल हो रही है. कोचीन यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी और केरल विश्वविद्यालय पहले ही इसके लिए फैसला कर चुके हैं, इन यूनिवर्सिटी में छात्राओं को माहवारी के दौरान मासिक धर्म अवकाश देने का फैसला किया है. इसके लिए कॉलेज की छात्राओं के लिए न्यूनतम उपस्थिति आवश्यकता (minimum attendance requirement) 73% कर दिया है. लड़कों के लिए न्यूनतम उपस्थिति आवश्यकता 75% है.


माहवारी के दौरान लड़कियों को होने वाली परेशानी और दर्द के बारे में हम सब अच्छे से वाकिफ है. कई बार इसकी वजह से उस दौरान लड़किया कॉलेज नहीं जा पाती हैं और इससे उनके अटेंडेस कम पड़ने की संभावना बढ़ जाती है. कई ऐसे मामले सामने आए भी हैं कि अटेंडेंस कम होने की वजह से लड़कियां एक्जाम नहीं दे पाती हैं. ऐसे में कॉलेज जाने वाली लड़कियों को अगर मिनिमम अटेंडेंस के नियमों में छूट मिल जाती है, तो इससे उन्हें परीक्षा देने से वंचित नहीं होना पड़ेगा और बिना कोर्स ब्रेक के वो अपनी पढ़ाई जारी रख सकेंगी.


देश की हर नौकरीपेशा महिलाओं और छात्राओं को माहवारी के दौरान अवकाश की मांग से जुड़ी याचिका पर देश के सर्वोच्च अदालत में भी सुनवाी हो चुकी है. इस याचिका में मांग की गई थी कि सुप्रीम कोर्ट देश के हर राज्य को इस मुद्दे पर नियम बनाने का आदेश दे. हालांकि 24 फरवरी को चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस जेबी पारदीवाला की बेंच ने इस याचिका पर सुनवाई करने से इंकार कर दिया. कोर्ट ने माना कि ये नीतिगत मामला है और इस सिलसिले में हितधारकों को भारत सरकार के पास अपनी मांगे रखनी चाहिए. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने माना कि इस मुद्दे से कई आयाम जुड़े हैं और इस पर एक नीति बनाए जाने की जरूरत है.


बिहार में 1992 में इस तरह की नीति आई थी, जिसके तहत सरकारी महिला कर्मचारियों को हर महीने माहवारी के दौरान दो दिनों का अवकाश लेने की अनुमति है. लेकिन कॉलेज की छात्राओं के लिए वहां भी इस तरह का कोई नियम नहीं है. वहीं केरल में राज्य सरकार ने इस साल जनवरी में यूनिवर्सिटी छात्राओं के लिए माहवारी के दौरान अवकाश की सुविधा मुहैया कराने की घोषणा की थी.


कॉलेज छात्राओं की समस्याओं को देखते हुए इस मुद्दे पर भी देशव्यापी स्तर पर एक नियम बनाने की जरूरत है. केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्रालय चाहे तो इस पर एक नीति बनाकर हर राज्य को नियम बनाने का निर्देश दे सकता है. देश के हर विश्वद्यालय में मातृत्व अवकाश और माहवारी के दौरान अवकाश की सुविधा अनिवार्य हो जाए, तो भविष्य में इस कदम से लड़कियों के लिए उच्च शिक्षा में बिना बाधा के अपनी पढ़ाई जारी रखने का रास्ता और आसान हो जाएगा क्योंकि अभी भी हमारे देश में ऐसी लड़कियों की संख्या काफी है जो 18-19 साल में शादी होने के बाद प्रेगनेंसी की वजह से आगे की पढ़ाई जारी नहीं रख पाती हैं. पढ़ना चाहती भी हैं तो उनके सामने प्रेगनेंसी से पैदा होने वाली उलझन खड़ी हो जाती है. अगर हर कॉलेज-यूनिवर्सिटी में सुविधा मिलने लगे तो उन लड़कियों के मन से ये डर नहीं रहेगा और शादी के बाद भी वे बेझिझक अपनी पढ़ाई जारी रख पाएंगी. 


[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]