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JNU Protest: फीस बढ़ने पर इतनी हायतौबा क्यों, इजाफे पर हमेशा रोक लगाना सही तरीका नहीं!

एजुकेशन फॉर ऑल के लिए शायद यह जरूरी भी है. कम से कम भारत जैसे देश में, जहां कई इलाकों में प्रति व्यक्ति आय इतनी नहीं है कि लोग अपने बच्चों को अच्छी यूनिवर्सिटी में पढ़ाने का खर्च उठा सकें.

नई दिल्लीः जेएनयू के छात्र सड़कों पर हैं. आंदोलन इस बात के लिए है कि बढ़ी हुई फीस वापस ली जाए. आंदोलन को दबाने के लिए सरकार की ओर से सख्ती भी हो रही है. मामला जब दिल्ली के इस विश्वविद्यालय से जुड़ा होता है तो सारी बहस तर्क की बजाय भावनाओं पर केंद्रित हो जाती है. लेकिन, असली बहस इस मुद्दे पर होनी चाहिए कि क्या सरकारी यूनिवर्सिटीज में फीस बढ़ाने की जरूरत है?

इस बहस में अर्बन नक्सल, टुकड़े-टुकड़े गैंग जैसे विशेषणों को लाने से मामला कुछ और ही हो जाता है. दुर्भाग्य से वही हो भी रहा है. सरकारी यूनिवर्सिटीज के नेटवर्क को बढ़ाना है तो फीस तो बढ़ानी ही होगी. न सिर्फ जेएनयू में, बल्कि हर सरकारी कॉलेज-यूनिवर्सिटी में.

अमेरिका में छात्र पर कितना होता है खर्च

अमेरिका में हर छात्र पर सालाना करीब 50,000 डालर यानी 35 लाख रुपये खर्च होते हैं. इसके मुकाबले अपने देश के अच्छे विश्वविद्यालयों में एक छात्र पर सालाना औसत खर्च 9000 डालर आता है. यानी करीब 6 लाख रुपये. अब तक इसका बड़ा हिस्सा सब्सिडी के रूप में दिया जाता रहा है.

एजुकेशन फॉर ऑल के लिए शायद यह जरूरी भी है. कम से कम भारत जैसे देश में, जहां कई इलाकों में प्रति व्यक्ति आय इतनी नहीं है कि लोग अपने बच्चों को अच्छी यूनिवर्सिटी में पढ़ाने का खर्च उठा सकें.

लेकिन इस एप्रोच का क्या असर हुआ है, हम सभी जानते हैं. सरकारी कॉलेजों का नेटवर्क उतनी तेजी से नहीं बढ़ पाया, जितनी तेजी से बढ़ना चाहिए था. यही वजह है कि दिल्ली यूनिवर्सिटी या दूसरे बड़े विश्वविद्यालयों में 90 फीसदी नंबर लाने वाले भी एडमिशन नहीं ले पाते हैं.

क्यों बढ़ी प्राइवेट यूनिवर्सिटीज की संख्या

इसी कमी को दूर करने के लिए प्राइवेट यूनिवर्सिटीज की संख्या में तेज़ी से बढ़ोतरी हुई. 2008 में देश में सिर्फ 14 प्राइवेट यूनिवर्सिटीज थीं. 2016 में इनकी संख्या बढ़कर 235 हो गई. लेकिन निजी यूनिवर्सिटीज के भरोसे रहे, तो उच्च शिक्षा कई मेधावी छात्रों की पहुंच से बाहर हो जाएगी, हो भी रही है.

बिल्कुल वही मॉडल जो हमने हेल्थ सेक्टर में देखा है. सरकारी क्षेत्र में क्षमता बढ़ी नहीं और इसकी जगह प्राइवेट सेक्टर ने ले ली. नतीजा यह हुआ कि हेल्थकेयर का खर्च, लोगों को गरीबी रेखा के नीचे धकेलने का बड़ा कारण बना हुआ है. क्या हम यही हाल शिक्षा क्षेत्र का भी करना चाहते हैं? हमें इसका फैसला करना है.

मेधावी, लेकिन गरीब छात्रों को अच्छी शिक्षा कैसे मिले इसका इंतजाम तो होना ही चाहिए. लेकिन फीस बढ़ोतरी पर हमेशा के लिए रोक लगाना इसका सही तरीका नहीं हो सकता.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

BLOG: ओवैसी को कोसना जहाँ बीजेपी का शौक़ है, वहीं ममता की मज़बूरी 

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