यूपी में कमल पूरी प्रखरता से खिला हुआ है. कभी-कभी अखिलेश की साइकिल भी इतराती है. यहां के सियासी आसमान में हैदराबादी पतंग भी कुलांचे तो खूब खा रही है. भाई के बाद बहन भी पंजे को असफलता के शिकंजे से मुक्त करने में नाकाम ही रहीं हैं. वहीं, यूपी के सियासी माहौल में योगी रोज आतिशबाजी कर रहे हैं, लेकिन विपक्ष के प्रयास फुलझड़ियों सरीखे ही साबित हुए. अब मंगलवार को उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में यकायक मायावती का हाथी चिंघाड़ उठा. योगी का हिंदुत्व, ओवैसी के मुसलमान और तालिबान की हलचल के बीच मायावती ने अपने हाथी के मस्तक पर ब्राह्मण टीका लगा दिया. साथ ही यूपी के चुनावी माहौल में शंखनाद कर सियासी घंटे-घड़ियाल बजाकर एक हलचल मचा दी है.
मायावती की चुप्पी तमाम लोगों को अखर रही थी. पहले 2017 के विधानसभा चुनाव और फिर 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद यूपी की सियासत में बहुजन समाज पार्टी की माया को खत्म मान लिया गया था. जिस तरह से पूरे समय मायावती मौन साधे रहीं, उसके बाद राजनीतिक पंडितों ने मायावती की सियासत के खत्म होने की भविष्यवाणी भी कर दी. इधर, सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव बीच-बीच में कभी ट्विटर तो कभी मीडिया मे आते रहे, लेकिन मुलायम की समाजवादी पार्टी के संघर्ष वाले चरित्र की कमी से वह बीजेपी के विकल्प के तौर पर अभी तक खड़े नहीं दिख सके. उस पर तुर्रा ये कि सपा के मुसलिम-यादव समीकरण को एआईएमआईएम के असदुद्दीन ओवैसी ने काटना शुरू कर दिया. वहीं, भाई राहुल के बाद अब बहन प्रियंका गांधी के सियासी टूरिज्म से कांग्रेस का हाथ यहां पर अपनी रही-सही शक्ति भी खोता दिख रहा था.
इधर, कोरोना की दूसरी लहर में लोगों की नाराजगी से कुम्हलाया बीजेपी का कमल अब फिर संघ और मोदी के दिल्ली दिए गए खाद-पानी के बाद फिर से खिला दिखाई पड़ने लगा. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बीजेपी के हिंदुत्व को अपने तरीके से और सान चढ़ाई. अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई और खासतौर से भाषणों से लेकर फैसलों तक में हिंदुत्व के नए पुरोधा के रूप में खुद को साबित करने में योगी कामयाब रहे. चौतरफा योगी आदित्यनाथ के पोस्टरों, विज्ञापनों और भाषणों के बीच विपक्ष की आवाज हल्की ही साबित होती रही. वास्तव में बीजेपी के अंदर की राजनीतिक खींचतान भी विपक्ष के प्रयासों से ज्यादा बड़ी खबर के रूप में सामने आती रही. वह भी केंद्रीय नेतृत्व और आरएएस ने बैठकों पर बैठके कर संभाल लिया.
हालांकि, राजनीति का कटु सत्य यह भी है कि जब कोई खुद को अपराजेय महसूस करने लगे. जब कोई हारता न दिखे तो उसी समय राजनीतिक घटनाक्रम या कोई ऐसा मुद्दा होता है जो मजबूत व्यक्ति या साम्राज्य के पतन का कारण बनता है. मसलन योगी आदित्यनाथ को यूपी जैसे प्रदेश की कमान देकर बीजेपी ने जातियों को तोड़कर हिंदुत्व के रथ को दौड़ाने की कोशिश की थी. मगर पिछले साढ़े चार साल में विपक्ष तो विपक्ष पार्टी के अंदर भी योगी जातिवाद के आरोपों से बच नहीं सके. विपक्ष लगातार उन पर एक जाति विशेष यानी राजपूत तबके को आगे बढ़ाने का आरोप लगाता रहा. इसके बावजूद सच यही है कि अभी भी उत्तर प्रदेश में योगी की हिंदुत्ववादी छवि खासी प्रखर है. मगर विपक्ष को तो जातिवाद का मसला ही एक मजबूत दीवार में दरार की तरह दिखा और उस पर लगातार हथौड़े मारे जा रहे हैं. संयोग से उत्तर प्रदेश सरकार के कुछ घटनाक्रम या फैसले ऐसे हुए, जिससे विपक्ष को ये आरोप लगाने में बड़ी मदद मिल गई.
सियासत में अजगर की तरह चुपचाप बैठकर शिकार का इंतजार होता है. फिलहाल मायावती ने वही किया. 2007 की दलित-ब्राह्मण की पुरानी केमेस्ट्री को उन्होंने जमीन पर उतारने का फैसला लिया. बहुजन समाज पार्टी में मायावती ने सतीशचंद्र मिश्र को तब चेहरा बनाया था. नतीजा पक्ष में आया था और बीएसपी की सरकार लगभग अपने बूते सत्ता तक पहुंचने में कामयाब रही. हालांकि, 2017 में मायावती ने सोशल इंजीनियरिंग पार्ट 2 आजमाया. इसके तहत दलित-मुसलिम गठजोड़ बनाने की कोशिश की, लेकिन वो सफल नहीं हो सका. मोदी की आंधी में सारे समीकरण उड़ गए. अब मायावती को ब्राह्मणों से ही उम्मीद दिखाई पड़ रही है. खासतौर से पिछड़े वर्ग और ब्राह्मणों का एक तबका योगी सरकार में उपेक्षित महसूस कर रहा है, इस तरह की धारणा यूपी में बलवती है.
इसी आधार में चुपचाप बैठीं मायावती ने अचानक अयोध्या से ब्राह्मणों को रिझाने की कवायद शुरू की. पहले ब्राह्ण सम्मेलन होना था, लेकिन फिर इसका नाम प्रबुद्ध सम्मेलन रखा गया. एक-एक वोट का हिसाब-किताब रख रही बीजेपी पर इसका असर हुआ और इसकी काट भी शुरू करने की कोशिश की गई. खैर मायावती ने मंगलवार को लखनऊ में जिस तरह से –सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय- का नारा बुलंद कर अपने भाषण के केंद्र में ब्राह्मणों को रखा, उससे साफ है कि वो इस मुद्दे पर बेहद आक्रामक खेलने जा रही हैं. सूत्रों का कहना है कि मायावती पूरे उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा टिकट ब्राह्मणों को देने का मन बन चुकी हैं. इसके अलावा ब्राह्मणों के सम्मान और उनकी सुरक्षा का वादा कर मायावती ने बड़ा दांव चला है.
मायावती का दांव अपनी जगह है, लेकिन एक सच्चाई और भी है. मायावती के साथ 2007 में ब्राह्मण जुड़े तो जरूर, लेकिन वे लगातार उनके साथ बने नहीं रहे. मसलन 2007 में लगभग मायावती के 37 ब्राह्मण चुनाव जीते थे, जिसमें से करीब 9 को उन्होंने मंत्री बनाया था. खास बात ये है कि इनमें से ज्यादातर अब बीजेपी का झंडा थाम चुके हैं. इसलिए, ब्राह्मण जो कि यूपी की राजनीति में निर्णायक फैक्टर साबित होते हैं, उनके बीच अभी मायावती को खासी मेहनत करनी पड़ सकती है. वैसे बीएसपी की गणित ये भी है कि अगर ब्राह्मण बीएसपी की तरफ आया तो मुसलिम किसी भी हाल में बीजेपी को हराने के लिए उनके साथ आ सकता है.
मायावती ने इसे समझते हुए ही ब्राह्मणों को तो अपनी रणनीति के केंद्र मे रखा है, लेकिन मुसलमानों पर भी पासा फेंका है. इस कड़ी में उन्होंने साफ किया कि बड़े-बड़े स्मारक और प्रतिमायें नहीं बनवाई जाएंगी, केवल विकास पर काम होगा. यहां, समझना जरूरी है कि इस्लाम में बुतपरस्ती हराम है. ये संदेश परोक्ष रूप से मायावती ने मुसलिम तबके को भी दिया है. राजनीति में कौन सा पासा या कौन सी चाल उल्टी या सीधी पड़ेगी ये तो जनता के हाथ में है, लेकिन मायावती के हाथी की चिंघाड़ ने यूपी में थोड़ी हलचल तो जरूर मचाई है. वैसे तथ्य ये भी है कि यूपी में सपा-बसपा गठबंधन के मजबूत गणित को 2019 में मोदी फैक्टर धराशायी कर चुका है. बस फर्क ये है कि तब लोकसभा चुनाव था और अब योगी का काम और उनका व्यक्तित्व भी कसौटी पर होगा. ऐसे में मायावती के इस दांव की काट के लिए बीजेपी में कुछ प्रतीकात्मक ही सही, लेकिन परिवर्तन दिखें तो आश्चर्य मत करियेगा.
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